दोहा
भिन्न भिन्न मै दीख सबु अति बिचित्र हरिजान ।
अगनित भुवन फिरेउँ प्रभु राम न देखेउँ आन ॥८१ -क॥
सोइ सिसुपन सोइ सोभा सोइ कृपाल रघुबीर ।
भुवन भुवन देखत फिरउँ प्रेरित मोह समीर ॥८१ -ख
चौपाला
भ्रमत मोहि ब्रह्मांड अनेका । बीते मनहुँ कल्प सत एका ॥
फिरत फिरत निज आश्रम आयउँ । तहँ पुनि रहि कछु काल गवाँयउँ ॥
निज प्रभु जन्म अवध सुनि पायउँ । निर्भर प्रेम हरषि उठि धायउँ ॥
देखउँ जन्म महोत्सव जाई । जेहि बिधि प्रथम कहा मैं गाई ॥
राम उदर देखेउँ जग नाना । देखत बनइ न जाइ बखाना ॥
तहँ पुनि देखेउँ राम सुजाना । माया पति कृपाल भगवाना ॥
करउँ बिचार बहोरि बहोरी । मोह कलिल ब्यापित मति मोरी ॥
उभय घरी महँ मैं सब देखा । भयउँ भ्रमित मन मोह बिसेषा ॥
दोहा
देखि कृपाल बिकल मोहि बिहँसे तब रघुबीर ।
बिहँसतहीं मुख बाहेर आयउँ सुनु मतिधीर ॥८२ -क॥
सोइ लरिकाई मो सन करन लगे पुनि राम ।
कोटि भाँति समुझावउँ मनु न लहइ बिश्राम ॥८२ -ख॥
चौपाला
देखि चरित यह सो प्रभुताई । समुझत देह दसा बिसराई ॥
धरनि परेउँ मुख आव न बाता । त्राहि त्राहि आरत जन त्राता ॥
प्रेमाकुल प्रभु मोहि बिलोकी । निज माया प्रभुता तब रोकी ॥
कर सरोज प्रभु मम सिर धरेऊ । दीनदयाल सकल दुख हरेऊ ॥
कीन्ह राम मोहि बिगत बिमोहा । सेवक सुखद कृपा संदोहा ॥
प्रभुता प्रथम बिचारि बिचारी । मन महँ होइ हरष अति भारी ॥
भगत बछलता प्रभु कै देखी । उपजी मम उर प्रीति बिसेषी ॥
सजल नयन पुलकित कर जोरी । कीन्हिउँ बहु बिधि बिनय बहोरी ॥
दोहा
सुनि सप्रेम मम बानी देखि दीन निज दास ।
बचन सुखद गंभीर मृदु बोले रमानिवास ॥८३ -क॥
काकभसुंडि मागु बर अति प्रसन्न मोहि जानि ।
अनिमादिक सिधि अपर रिधि मोच्छ सकल सुख खानि ॥८३ -ख॥
चौपाला
ग्यान बिबेक बिरति बिग्याना । मुनि दुर्लभ गुन जे जग नाना ॥
आजु देउँ सब संसय नाहीं । मागु जो तोहि भाव मन माहीं ॥
सुनि प्रभु बचन अधिक अनुरागेउँ । मन अनुमान करन तब लागेऊँ ॥
प्रभु कह देन सकल सुख सही । भगति आपनी देन न कही ॥
भगति हीन गुन सब सुख ऐसे । लवन बिना बहु बिंजन जैसे ॥
भजन हीन सुख कवने काजा । अस बिचारि बोलेउँ खगराजा ॥
जौं प्रभु होइ प्रसन्न बर देहू । मो पर करहु कृपा अरु नेहू ॥
मन भावत बर मागउँ स्वामी । तुम्ह उदार उर अंतरजामी ॥
दोहा
अबिरल भगति बिसुध्द तव श्रुति पुरान जो गाव ।
जेहि खोजत जोगीस मुनि प्रभु प्रसाद कोउ पाव ॥८४ -क॥
भगत कल्पतरु प्रनत हित कृपा सिंधु सुख धाम ।
सोइ निज भगति मोहि प्रभु देहु दया करि राम ॥८४ -ख॥
चौपाला
एवमस्तु कहि रघुकुलनायक । बोले बचन परम सुखदायक ॥
सुनु बायस तैं सहज सयाना । काहे न मागसि अस बरदाना ॥
सब सुख खानि भगति तैं मागी । नहिं जग कोउ तोहि सम बड़भागी ॥
जो मुनि कोटि जतन नहिं लहहीं । जे जप जोग अनल तन दहहीं ॥
रीझेउँ देखि तोरि चतुराई । मागेहु भगति मोहि अति भाई ॥
सुनु बिहंग प्रसाद अब मोरें । सब सुभ गुन बसिहहिं उर तोरें ॥
भगति ग्यान बिग्यान बिरागा । जोग चरित्र रहस्य बिभागा ॥
जानब तैं सबही कर भेदा । मम प्रसाद नहिं साधन खेदा ॥
दों०माया संभव भ्रम सब अब न ब्यापिहहिं तोहि ।
जानेसु ब्रह्म अनादि अज अगुन गुनाकर मोहि ॥८५ -क॥
मोहि भगत प्रिय संतत अस बिचारि सुनु काग ।
कायँ बचन मन मम पद करेसु अचल अनुराग ॥८५ -ख॥
अब सुनु परम बिमल मम बानी । सत्य सुगम निगमादि बखानी ॥
निज सिद्धांत सुनावउँ तोही । सुनु मन धरु सब तजि भजु मोही ॥
मम माया संभव संसारा । जीव चराचर बिबिधि प्रकारा ॥
सब मम प्रिय सब मम उपजाए । सब ते अधिक मनुज मोहि भाए ॥
तिन्ह महँ द्विज द्विज महँ श्रुतिधारी । तिन्ह महुँ निगम धरम अनुसारी ॥
तिन्ह महँ प्रिय बिरक्त पुनि ग्यानी । ग्यानिहु ते अति प्रिय बिग्यानी ॥
तिन्ह ते पुनि मोहि प्रिय निज दासा । जेहि गति मोरि न दूसरि आसा ॥
पुनि पुनि सत्य कहउँ तोहि पाहीं । मोहि सेवक सम प्रिय कोउ नाहीं ॥
भगति हीन बिरंचि किन होई । सब जीवहु सम प्रिय मोहि सोई ॥
भगतिवंत अति नीचउ प्रानी । मोहि प्रानप्रिय असि मम बानी ॥
दोहा
सुचि सुसील सेवक सुमति प्रिय कहु काहि न लाग ।
श्रुति पुरान कह नीति असि सावधान सुनु काग ॥८६॥
चौपाला
एक पिता के बिपुल कुमारा । होहिं पृथक गुन सील अचारा ॥
कोउ पंडिंत कोउ तापस ग्याता । कोउ धनवंत सूर कोउ दाता ॥
कोउ सर्बग्य धर्मरत कोई । सब पर पितहि प्रीति सम होई ॥
कोउ पितु भगत बचन मन कर्मा । सपनेहुँ जान न दूसर धर्मा ॥
सो सुत प्रिय पितु प्रान समाना । जद्यपि सो सब भाँति अयाना ॥
एहि बिधि जीव चराचर जेते । त्रिजग देव नर असुर समेते ॥
अखिल बिस्व यह मोर उपाया । सब पर मोहि बराबरि दाया ॥
तिन्ह महँ जो परिहरि मद माया । भजै मोहि मन बच अरू काया ॥
दोहा
पुरूष नपुंसक नारि वा जीव चराचर कोइ ।
सर्ब भाव भज कपट तजि मोहि परम प्रिय सोइ ॥८७ -क॥
सोरठा
सत्य कहउँ खग तोहि सुचि सेवक मम प्रानप्रिय ।
अस बिचारि भजु मोहि परिहरि आस भरोस सब ॥८७ -ख॥
चौपाला
कबहूँ काल न ब्यापिहि तोही । सुमिरेसु भजेसु निरंतर मोही ॥
प्रभु बचनामृत सुनि न अघाऊँ । तनु पुलकित मन अति हरषाऊँ ॥
सो सुख जानइ मन अरु काना । नहिं रसना पहिं जाइ बखाना ॥
प्रभु सोभा सुख जानहिं नयना । कहि किमि सकहिं तिन्हहि नहिं बयना ॥
बहु बिधि मोहि प्रबोधि सुख देई । लगे करन सिसु कौतुक तेई ॥
सजल नयन कछु मुख करि रूखा । चितइ मातु लागी अति भूखा ॥
देखि मातु आतुर उठि धाई । कहि मृदु बचन लिए उर लाई ॥
गोद राखि कराव पय पाना । रघुपति चरित ललित कर गाना ॥
सोरठा
जेहि सुख लागि पुरारि असुभ बेष कृत सिव सुखद ।
अवधपुरी नर नारि तेहि सुख महुँ संतत मगन ॥८८ -क॥
सोइ सुख लवलेस जिन्ह बारक सपनेहुँ लहेउ ।
ते नहिं गनहिं खगेस ब्रह्मसुखहि सज्जन सुमति ॥८८ -ख॥
मैं पुनि अवध रहेउँ कछु काला । देखेउँ बालबिनोद रसाला ॥
राम प्रसाद भगति बर पायउँ । प्रभु पद बंदि निजाश्रम आयउँ ॥
तब ते मोहि न ब्यापी माया । जब ते रघुनायक अपनाया ॥
यह सब गुप्त चरित मैं गावा । हरि मायाँ जिमि मोहि नचावा ॥
निज अनुभव अब कहउँ खगेसा । बिनु हरि भजन न जाहि कलेसा ॥
राम कृपा बिनु सुनु खगराई । जानि न जाइ राम प्रभुताई ॥
जानें बिनु न होइ परतीती । बिनु परतीति होइ नहिं प्रीती ॥
प्रीति बिना नहिं भगति दिढ़ाई । जिमि खगपति जल कै चिकनाई ॥
सोरठा
बिनु गुर होइ कि ग्यान ग्यान कि होइ बिराग बिनु ।
गावहिं बेद पुरान सुख कि लहिअ हरि भगति बिनु ॥८९ -क॥
कोउ बिश्राम कि पाव तात सहज संतोष बिनु ।
चलै कि जल बिनु नाव कोटि जतन पचि पचि मरिअ ॥८९ -ख॥
बिनु संतोष न काम नसाहीं । काम अछत सुख सपनेहुँ नाहीं ॥
राम भजन बिनु मिटहिं कि कामा । थल बिहीन तरु कबहुँ कि जामा ॥
बिनु बिग्यान कि समता आवइ । कोउ अवकास कि नभ बिनु पावइ ॥
श्रद्धा बिना धर्म नहिं होई । बिनु महि गंध कि पावइ कोई ॥
बिनु तप तेज कि कर बिस्तारा । जल बिनु रस कि होइ संसारा ॥
सील कि मिल बिनु बुध सेवकाई । जिमि बिनु तेज न रूप गोसाई ॥
निज सुख बिनु मन होइ कि थीरा । परस कि होइ बिहीन समीरा ॥
कवनिउ सिद्धि कि बिनु बिस्वासा । बिनु हरि भजन न भव भय नासा ॥
दोहा
बिनु बिस्वास भगति नहिं तेहि बिनु द्रवहिं न रामु ।
राम कृपा बिनु सपनेहुँ जीव न लह बिश्रामु ॥९० -क॥
सोरठा
अस बिचारि मतिधीर तजि कुतर्क संसय सकल ।
भजहु राम रघुबीर करुनाकर सुंदर सुखद ॥९० -ख॥
चौपाला
निज मति सरिस नाथ मैं गाई । प्रभु प्रताप महिमा खगराई ॥
कहेउँ न कछु करि जुगुति बिसेषी । यह सब मैं निज नयनन्हि देखी ॥
महिमा नाम रूप गुन गाथा । सकल अमित अनंत रघुनाथा ॥
निज निज मति मुनि हरि गुन गावहिं । निगम सेष सिव पार न पावहिं ॥
तुम्हहि आदि खग मसक प्रजंता । नभ उड़ाहिं नहिं पावहिं अंता ॥
तिमि रघुपति महिमा अवगाहा । तात कबहुँ कोउ पाव कि थाहा ॥
रामु काम सत कोटि सुभग तन । दुर्गा कोटि अमित अरि मर्दन ॥
सक्र कोटि सत सरिस बिलासा । नभ सत कोटि अमित अवकासा ॥