दोहा
नयन बिषय मो कहुँ भयउ सो समस्त सुख मूल।
सबइ लाभु जग जीव कहँ भएँ ईसु अनुकुल ॥३४१॥
चौपाला
सबहि भाँति मोहि दीन्हि बड़ाई । निज जन जानि लीन्ह अपनाई ॥
होहिं सहस दस सारद सेषा । करहिं कलप कोटिक भरि लेखा ॥
मोर भाग्य राउर गुन गाथा । कहि न सिराहिं सुनहु रघुनाथा ॥
मै कछु कहउँ एक बल मोरें । तुम्ह रीझहु सनेह सुठि थोरें ॥
बार बार मागउँ कर जोरें । मनु परिहरै चरन जनि भोरें ॥
सुनि बर बचन प्रेम जनु पोषे । पूरनकाम रामु परितोषे ॥
करि बर बिनय ससुर सनमाने । पितु कौसिक बसिष्ठ सम जाने ॥
बिनती बहुरि भरत सन कीन्ही । मिलि सप्रेमु पुनि आसिष दीन्ही ॥
दोहा
मिले लखन रिपुसूदनहि दीन्हि असीस महीस।
भए परस्पर प्रेमबस फिरि फिरि नावहिं सीस ॥३४२॥
चौपाला
बार बार करि बिनय बड़ाई । रघुपति चले संग सब भाई ॥
जनक गहे कौसिक पद जाई । चरन रेनु सिर नयनन्ह लाई ॥
सुनु मुनीस बर दरसन तोरें । अगमु न कछु प्रतीति मन मोरें ॥
जो सुखु सुजसु लोकपति चहहीं । करत मनोरथ सकुचत अहहीं ॥
सो सुखु सुजसु सुलभ मोहि स्वामी । सब सिधि तव दरसन अनुगामी ॥
कीन्हि बिनय पुनि पुनि सिरु नाई । फिरे महीसु आसिषा पाई ॥
चली बरात निसान बजाई । मुदित छोट बड़ सब समुदाई ॥
रामहि निरखि ग्राम नर नारी । पाइ नयन फलु होहिं सुखारी ॥
दोहा
बीच बीच बर बास करि मग लोगन्ह सुख देत।
अवध समीप पुनीत दिन पहुँची आइ जनेत ॥३४३॥
चौपाला
हने निसान पनव बर बाजे । भेरि संख धुनि हय गय गाजे ॥
झाँझि बिरव डिंडमीं सुहाई । सरस राग बाजहिं सहनाई ॥
पुर जन आवत अकनि बराता । मुदित सकल पुलकावलि गाता ॥
निज निज सुंदर सदन सँवारे । हाट बाट चौहट पुर द्वारे ॥
गलीं सकल अरगजाँ सिंचाई । जहँ तहँ चौकें चारु पुराई ॥
बना बजारु न जाइ बखाना । तोरन केतु पताक बिताना ॥
सफल पूगफल कदलि रसाला । रोपे बकुल कदंब तमाला ॥
लगे सुभग तरु परसत धरनी । मनिमय आलबाल कल करनी ॥
दोहा
बिबिध भाँति मंगल कलस गृह गृह रचे सँवारि ।
सुर ब्रह्मादि सिहाहिं सब रघुबर पुरी निहारि ॥३४४॥
चौपाला
भूप भवन तेहि अवसर सोहा । रचना देखि मदन मनु मोहा ॥
मंगल सगुन मनोहरताई । रिधि सिधि सुख संपदा सुहाई ॥
जनु उछाह सब सहज सुहाए । तनु धरि धरि दसरथ दसरथ गृहँ छाए ॥
देखन हेतु राम बैदेही । कहहु लालसा होहि न केही ॥
जुथ जूथ मिलि चलीं सुआसिनि । निज छबि निदरहिं मदन बिलासनि ॥
सकल सुमंगल सजें आरती । गावहिं जनु बहु बेष भारती ॥
भूपति भवन कोलाहलु होई । जाइ न बरनि समउ सुखु सोई ॥
कौसल्यादि राम महतारीं । प्रेम बिबस तन दसा बिसारीं ॥
दोहा
दिए दान बिप्रन्ह बिपुल पूजि गनेस पुरारी।
प्रमुदित परम दरिद्र जनु पाइ पदारथ चारि ॥३४५॥
चौपाला
मोद प्रमोद बिबस सब माता । चलहिं न चरन सिथिल भए गाता ॥
राम दरस हित अति अनुरागीं । परिछनि साजु सजन सब लागीं ॥
बिबिध बिधान बाजने बाजे । मंगल मुदित सुमित्राँ साजे ॥
हरद दूब दधि पल्लव फूला । पान पूगफल मंगल मूला ॥
अच्छत अंकुर लोचन लाजा । मंजुल मंजरि तुलसि बिराजा ॥
छुहे पुरट घट सहज सुहाए । मदन सकुन जनु नीड़ बनाए ॥
सगुन सुंगध न जाहिं बखानी । मंगल सकल सजहिं सब रानी ॥
रचीं आरतीं बहुत बिधाना । मुदित करहिं कल मंगल गाना ॥
दोहा
कनक थार भरि मंगलन्हि कमल करन्हि लिएँ मात ।
चलीं मुदित परिछनि करन पुलक पल्लवित गात ॥३४६॥
चौपाला
धूप धूम नभु मेचक भयऊ । सावन घन घमंडु जनु ठयऊ ॥
सुरतरु सुमन माल सुर बरषहिं । मनहुँ बलाक अवलि मनु करषहिं ॥
मंजुल मनिमय बंदनिवारे । मनहुँ पाकरिपु चाप सँवारे ॥
प्रगटहिं दुरहिं अटन्ह पर भामिनि । चारु चपल जनु दमकहिं दामिनि ॥
दुंदुभि धुनि घन गरजनि घोरा । जाचक चातक दादुर मोरा ॥
सुर सुगन्ध सुचि बरषहिं बारी । सुखी सकल ससि पुर नर नारी ॥
समउ जानी गुर आयसु दीन्हा । पुर प्रबेसु रघुकुलमनि कीन्हा ॥
सुमिरि संभु गिरजा गनराजा । मुदित महीपति सहित समाजा ॥
दोहा
होहिं सगुन बरषहिं सुमन सुर दुंदुभीं बजाइ।
बिबुध बधू नाचहिं मुदित मंजुल मंगल गाइ ॥३४७॥
चौपाला
मागध सूत बंदि नट नागर । गावहिं जसु तिहु लोक उजागर ॥
जय धुनि बिमल बेद बर बानी । दस दिसि सुनिअ सुमंगल सानी ॥
बिपुल बाजने बाजन लागे । नभ सुर नगर लोग अनुरागे ॥
बने बराती बरनि न जाहीं । महा मुदित मन सुख न समाहीं ॥
पुरबासिन्ह तब राय जोहारे । देखत रामहि भए सुखारे ॥
करहिं निछावरि मनिगन चीरा । बारि बिलोचन पुलक सरीरा ॥
आरति करहिं मुदित पुर नारी । हरषहिं निरखि कुँअर बर चारी ॥
सिबिका सुभग ओहार उघारी । देखि दुलहिनिन्ह होहिं सुखारी ॥
दोहा
एहि बिधि सबही देत सुखु आए राजदुआर।
मुदित मातु परुछनि करहिं बधुन्ह समेत कुमार ॥३४८॥
चौपाला
करहिं आरती बारहिं बारा । प्रेमु प्रमोदु कहै को पारा ॥
भूषन मनि पट नाना जाती । करही निछावरि अगनित भाँती ॥
बधुन्ह समेत देखि सुत चारी । परमानंद मगन महतारी ॥
पुनि पुनि सीय राम छबि देखी । मुदित सफल जग जीवन लेखी ॥
सखीं सीय मुख पुनि पुनि चाही । गान करहिं निज सुकृत सराही ॥
बरषहिं सुमन छनहिं छन देवा । नाचहिं गावहिं लावहिं सेवा ॥
देखि मनोहर चारिउ जोरीं । सारद उपमा सकल ढँढोरीं ॥
देत न बनहिं निपट लघु लागी । एकटक रहीं रूप अनुरागीं ॥
दोहा
निगम नीति कुल रीति करि अरघ पाँवड़े देत।
बधुन्ह सहित सुत परिछि सब चलीं लवाइ निकेत ॥३४९॥
चौपाला
चारि सिंघासन सहज सुहाए । जनु मनोज निज हाथ बनाए ॥
तिन्ह पर कुअँरि कुअँर बैठारे । सादर पाय पुनित पखारे ॥
धूप दीप नैबेद बेद बिधि । पूजे बर दुलहिनि मंगलनिधि ॥
बारहिं बार आरती करहीं । ब्यजन चारु चामर सिर ढरहीं ॥
बस्तु अनेक निछावर होहीं । भरीं प्रमोद मातु सब सोहीं ॥
पावा परम तत्व जनु जोगीं । अमृत लहेउ जनु संतत रोगीं ॥
जनम रंक जनु पारस पावा । अंधहि लोचन लाभु सुहावा ॥
मूक बदन जनु सारद छाई । मानहुँ समर सूर जय पाई ॥
दोहा
एहि सुख ते सत कोटि गुन पावहिं मातु अनंदु ॥
भाइन्ह सहित बिआहि घर आए रघुकुलचंदु ॥३५०क॥
लोक रीत जननी करहिं बर दुलहिनि सकुचाहिं।
मोदु बिनोदु बिलोकि बड़ रामु मनहिं मुसकाहिं ॥३५०ख॥
चौपाला
सबहिं बंदि मागहिं बरदाना । भाइन्ह सहित राम कल्याना ॥
अंतरहित सुर आसिष देहीं । मुदित मातु अंचल भरि लेंहीं ॥
भूपति बोलि बराती लीन्हे । जान बसन मनि भूषन दीन्हे ॥
आयसु पाइ राखि उर रामहि । मुदित गए सब निज निज धामहि ॥
पुर नर नारि सकल पहिराए । घर घर बाजन लगे बधाए ॥
जाचक जन जाचहि जोइ जोई । प्रमुदित राउ देहिं सोइ सोई ॥
सेवक सकल बजनिआ नाना । पूरन किए दान सनमाना ॥