दोहा

सुनहु भरत भावी प्रबल बिलखि कहेउ मुनिनाथ।
हानि लाभु जीवन मरनु जसु अपजसु बिधि हाथ ॥१७१॥

चौपाला

अस बिचारि केहि देइअ दोसू । ब्यरथ काहि पर कीजिअ रोसू ॥
तात बिचारु केहि करहु मन माहीं । सोच जोगु दसरथु नृपु नाहीं ॥
सोचिअ बिप्र जो बेद बिहीना । तजि निज धरमु बिषय लयलीना ॥
सोचिअ नृपति जो नीति न जाना । जेहि न प्रजा प्रिय प्रान समाना ॥
सोचिअ बयसु कृपन धनवानू । जो न अतिथि सिव भगति सुजानू ॥
सोचिअ सूद्रु बिप्र अवमानी । मुखर मानप्रिय ग्यान गुमानी ॥
सोचिअ पुनि पति बंचक नारी । कुटिल कलहप्रिय इच्छाचारी ॥
सोचिअ बटु निज ब्रतु परिहरई । जो नहिं गुर आयसु अनुसरई ॥

दोहा

सोचिअ गृही जो मोह बस करइ करम पथ त्याग।
सोचिअ जति प्रंपच रत बिगत बिबेक बिराग ॥१७२॥

चौपाला

बैखानस सोइ सोचै जोगु । तपु बिहाइ जेहि भावइ भोगू ॥
सोचिअ पिसुन अकारन क्रोधी । जननि जनक गुर बंधु बिरोधी ॥
सब बिधि सोचिअ पर अपकारी । निज तनु पोषक निरदय भारी ॥
सोचनीय सबहि बिधि सोई । जो न छाड़ि छलु हरि जन होई ॥
सोचनीय नहिं कोसलराऊ । भुवन चारिदस प्रगट प्रभाऊ ॥
भयउ न अहइ न अब होनिहारा । भूप भरत जस पिता तुम्हारा ॥
बिधि हरि हरु सुरपति दिसिनाथा । बरनहिं सब दसरथ गुन गाथा ॥

दोहा

कहहु तात केहि भाँति कोउ करिहि बड़ाई तासु।
राम लखन तुम्ह सत्रुहन सरिस सुअन सुचि जासु ॥१७३॥

चौपाला

सब प्रकार भूपति बड़भागी । बादि बिषादु करिअ तेहि लागी ॥
यहु सुनि समुझि सोचु परिहरहू । सिर धरि राज रजायसु करहू ॥
राँय राजपदु तुम्ह कहुँ दीन्हा । पिता बचनु फुर चाहिअ कीन्हा ॥
तजे रामु जेहिं बचनहि लागी । तनु परिहरेउ राम बिरहागी ॥
नृपहि बचन प्रिय नहिं प्रिय प्राना । करहु तात पितु बचन प्रवाना ॥
करहु सीस धरि भूप रजाई । हइ तुम्ह कहँ सब भाँति भलाई ॥
परसुराम पितु अग्या राखी । मारी मातु लोक सब साखी ॥
तनय जजातिहि जौबनु दयऊ । पितु अग्याँ अघ अजसु न भयऊ ॥

दोहा

अनुचित उचित बिचारु तजि जे पालहिं पितु बैन।
ते भाजन सुख सुजस के बसहिं अमरपति ऐन ॥१७४॥

चौपाला

अवसि नरेस बचन फुर करहू । पालहु प्रजा सोकु परिहरहू ॥
सुरपुर नृप पाइहि परितोषू । तुम्ह कहुँ सुकृत सुजसु नहिं दोषू ॥
बेद बिदित संमत सबही का । जेहि पितु देइ सो पावइ टीका ॥
करहु राजु परिहरहु गलानी । मानहु मोर बचन हित जानी ॥
सुनि सुखु लहब राम बैदेहीं । अनुचित कहब न पंडित केहीं ॥
कौसल्यादि सकल महतारीं । तेउ प्रजा सुख होहिं सुखारीं ॥
परम तुम्हार राम कर जानिहि । सो सब बिधि तुम्ह सन भल मानिहि ॥
सौंपेहु राजु राम कै आएँ । सेवा करेहु सनेह सुहाएँ ॥

दोहा

कीजिअ गुर आयसु अवसि कहहिं सचिव कर जोरि।
रघुपति आएँ उचित जस तस तब करब बहोरि ॥१७५॥

चौपाला

कौसल्या धरि धीरजु कहई । पूत पथ्य गुर आयसु अहई ॥
सो आदरिअ करिअ हित मानी । तजिअ बिषादु काल गति जानी ॥
बन रघुपति सुरपति नरनाहू । तुम्ह एहि भाँति तात कदराहू ॥
परिजन प्रजा सचिव सब अंबा । तुम्हही सुत सब कहँ अवलंबा ॥
लखि बिधि बाम कालु कठिनाई । धीरजु धरहु मातु बलि जाई ॥
सिर धरि गुर आयसु अनुसरहू । प्रजा पालि परिजन दुखु हरहू ॥
गुर के बचन सचिव अभिनंदनु । सुने भरत हिय हित जनु चंदनु ॥
सुनी बहोरि मातु मृदु बानी । सील सनेह सरल रस सानी ॥

छंद

सानी सरल रस मातु बानी सुनि भरत ब्याकुल भए।
लोचन सरोरुह स्त्रवत सींचत बिरह उर अंकुर नए ॥
सो दसा देखत समय तेहि बिसरी सबहि सुधि देह की।
तुलसी सराहत सकल सादर सीवँ सहज सनेह की ॥

सोरठा

भरतु कमल कर जोरि धीर धुरंधर धीर धरि।
बचन अमिअँ जनु बोरि देत उचित उत्तर सबहि ॥१७६॥

मासपारायण , अठारहवाँ विश्राम
चौपाला

मोहि उपदेसु दीन्ह गुर नीका । प्रजा सचिव संमत सबही का ॥
मातु उचित धरि आयसु दीन्हा । अवसि सीस धरि चाहउँ कीन्हा ॥
गुर पितु मातु स्वामि हित बानी । सुनि मन मुदित करिअ भलि जानी ॥
उचित कि अनुचित किएँ बिचारू । धरमु जाइ सिर पातक भारू ॥
तुम्ह तौ देहु सरल सिख सोई । जो आचरत मोर भल होई ॥
जद्यपि यह समुझत हउँ नीकें । तदपि होत परितोषु न जी कें ॥
अब तुम्ह बिनय मोरि सुनि लेहू । मोहि अनुहरत सिखावनु देहू ॥
ऊतरु देउँ छमब अपराधू । दुखित दोष गुन गनहिं न साधू ॥

दोहा

 

पितु सुरपुर सिय रामु बन करन कहहु मोहि राजु।
एहि तें जानहु मोर हित कै आपन बड़ काजु ॥१७७॥

चौपाला

हित हमार सियपति सेवकाई । सो हरि लीन्ह मातु कुटिलाई ॥
मैं अनुमानि दीख मन माहीं । आन उपायँ मोर हित नाहीं ॥
सोक समाजु राजु केहि लेखें । लखन राम सिय बिनु पद देखें ॥
बादि बसन बिनु भूषन भारू । बादि बिरति बिनु ब्रह्म बिचारू ॥
सरुज सरीर बादि बहु भोगा । बिनु हरिभगति जायँ जप जोगा ॥
जायँ जीव बिनु देह सुहाई । बादि मोर सबु बिनु रघुराई ॥
जाउँ राम पहिं आयसु देहू । एकहिं आँक मोर हित एहू ॥
मोहि नृप करि भल आपन चहहू । सोउ सनेह जड़ता बस कहहू ॥

दोहा

कैकेई सुअ कुटिलमति राम बिमुख गतलाज।
तुम्ह चाहत सुखु मोहबस मोहि से अधम कें राज ॥१७८॥

चौपाला

कहउँ साँचु सब सुनि पतिआहू । चाहिअ धरमसील नरनाहू ॥
मोहि राजु हठि देइहहु जबहीं । रसा रसातल जाइहि तबहीं ॥
मोहि समान को पाप निवासू । जेहि लगि सीय राम बनबासू ॥
रायँ राम कहुँ काननु दीन्हा । बिछुरत गमनु अमरपुर कीन्हा ॥
मैं सठु सब अनरथ कर हेतू । बैठ बात सब सुनउँ सचेतू ॥
बिनु रघुबीर बिलोकि अबासू । रहे प्रान सहि जग उपहासू ॥
राम पुनीत बिषय रस रूखे । लोलुप भूमि भोग के भूखे ॥
कहँ लगि कहौं हृदय कठिनाई । निदरि कुलिसु जेहिं लही बड़ाई ॥

दोहा

कारन तें कारजु कठिन होइ दोसु नहि मोर।
कुलिस अस्थि तें उपल तें लोह कराल कठोर ॥१७९॥

चौपाला

कैकेई भव तनु अनुरागे । पाँवर प्रान अघाइ अभागे ॥
जौं प्रिय बिरहँ प्रान प्रिय लागे । देखब सुनब बहुत अब आगे ॥
लखन राम सिय कहुँ बनु दीन्हा । पठइ अमरपुर पति हित कीन्हा ॥
लीन्ह बिधवपन अपजसु आपू । दीन्हेउ प्रजहि सोकु संतापू ॥
मोहि दीन्ह सुखु सुजसु सुराजू । कीन्ह कैकेईं सब कर काजू ॥
एहि तें मोर काह अब नीका । तेहि पर देन कहहु तुम्ह टीका ॥
कैकई जठर जनमि जग माहीं । यह मोहि कहँ कछु अनुचित नाहीं ॥
मोरि बात सब बिधिहिं बनाई । प्रजा पाँच कत करहु सहाई ॥

दोहा

ग्रह ग्रहीत पुनि बात बस तेहि पुनि बीछी मार।
तेहि पिआइअ बारुनी कहहु काह उपचार ॥१८०॥

चौपाला

कैकइ सुअन जोगु जग जोई । चतुर बिरंचि दीन्ह मोहि सोई ॥
दसरथ तनय राम लघु भाई । दीन्हि मोहि बिधि बादि बड़ाई ॥
तुम्ह सब कहहु कढ़ावन टीका । राय रजायसु सब कहँ नीका ॥
उतरु देउँ केहि बिधि केहि केही । कहहु सुखेन जथा रुचि जेही ॥
मोहि कुमातु समेत बिहाई । कहहु कहिहि के कीन्ह भलाई ॥
मो बिनु को सचराचर माहीं । जेहि सिय रामु प्रानप्रिय नाहीं ॥
परम हानि सब कहँ बड़ लाहू । अदिनु मोर नहि दूषन काहू ॥
संसय सील प्रेम बस अहहू । सबुइ उचित सब जो कछु कहहू ॥

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