दोहा

मिलि सपेम रिपुसूदनहि केवटु भेंटेउ राम।
भूरि भायँ भेंटे भरत लछिमन करत प्रनाम ॥२४१॥

चौपाला

भेंटेउ लखन ललकि लघु भाई । बहुरि निषादु लीन्ह उर लाई ॥
पुनि मुनिगन दुहुँ भाइन्ह बंदे । अभिमत आसिष पाइ अनंदे ॥
सानुज भरत उमगि अनुरागा । धरि सिर सिय पद पदुम परागा ॥
पुनि पुनि करत प्रनाम उठाए । सिर कर कमल परसि बैठाए ॥
सीयँ असीस दीन्हि मन माहीं । मगन सनेहँ देह सुधि नाहीं ॥
सब बिधि सानुकूल लखि सीता । भे निसोच उर अपडर बीता ॥
कोउ किछु कहइ न कोउ किछु पूँछा । प्रेम भरा मन निज गति छूँछा ॥
तेहि अवसर केवटु धीरजु धरि । जोरि पानि बिनवत प्रनामु करि ॥

दोहा

नाथ साथ मुनिनाथ के मातु सकल पुर लोग।
सेवक सेनप सचिव सब आए बिकल बियोग ॥२४२॥

चौपाला

सीलसिंधु सुनि गुर आगवनू । सिय समीप राखे रिपुदवनू ॥
चले सबेग रामु तेहि काला । धीर धरम धुर दीनदयाला ॥
गुरहि देखि सानुज अनुरागे । दंड प्रनाम करन प्रभु लागे ॥
मुनिबर धाइ लिए उर लाई । प्रेम उमगि भेंटे दोउ भाई ॥
प्रेम पुलकि केवट कहि नामू । कीन्ह दूरि तें दंड प्रनामू ॥
रामसखा रिषि बरबस भेंटा । जनु महि लुठत सनेह समेटा ॥
रघुपति भगति सुमंगल मूला । नभ सराहि सुर बरिसहिं फूला ॥
एहि सम निपट नीच कोउ नाहीं । बड़ बसिष्ठ सम को जग माहीं ॥

दोहा

जेहि लखि लखनहु तें अधिक मिले मुदित मुनिराउ।
सो सीतापति भजन को प्रगट प्रताप प्रभाउ ॥२४३॥

चौपाला

आरत लोग राम सबु जाना । करुनाकर सुजान भगवाना ॥
जो जेहि भायँ रहा अभिलाषी । तेहि तेहि कै तसि तसि रुख राखी ॥
सानुज मिलि पल महु सब काहू । कीन्ह दूरि दुखु दारुन दाहू ॥
यह बड़ि बातँ राम कै नाहीं । जिमि घट कोटि एक रबि छाहीं ॥
मिलि केवटिहि उमगि अनुरागा । पुरजन सकल सराहहिं भागा ॥
देखीं राम दुखित महतारीं । जनु सुबेलि अवलीं हिम मारीं ॥
प्रथम राम भेंटी कैकेई । सरल सुभायँ भगति मति भेई ॥
पग परि कीन्ह प्रबोधु बहोरी । काल करम बिधि सिर धरि खोरी ॥

दोहा

भेटीं रघुबर मातु सब करि प्रबोधु परितोषु ॥
अंब ईस आधीन जगु काहु न देइअ दोषु ॥२४४॥

चौपाला

गुरतिय पद बंदे दुहु भाई । सहित बिप्रतिय जे सँग आई ॥
गंग गौरि सम सब सनमानीं ॥देहिं असीस मुदित मृदु बानी ॥
गहि पद लगे सुमित्रा अंका । जनु भेटीं संपति अति रंका ॥
पुनि जननि चरननि दोउ भ्राता । परे पेम ब्याकुल सब गाता ॥
अति अनुराग अंब उर लाए । नयन सनेह सलिल अन्हवाए ॥
तेहि अवसर कर हरष बिषादू । किमि कबि कहै मूक जिमि स्वादू ॥
मिलि जननहि सानुज रघुराऊ । गुर सन कहेउ कि धारिअ पाऊ ॥
पुरजन पाइ मुनीस नियोगू । जल थल तकि तकि उतरेउ लोगू ॥

दोहा

महिसुर मंत्री मातु गुर गने लोग लिए साथ ॥
पावन आश्रम गवनु किय भरत लखन रघुनाथ ॥२४५॥

चौपाला

सीय आइ मुनिबर पग लागी । उचित असीस लही मन मागी ॥
गुरपतिनिहि मुनितियन्ह समेता । मिली पेमु कहि जाइ न जेता ॥
बंदि बंदि पग सिय सबही के । आसिरबचन लहे प्रिय जी के ॥
सासु सकल जब सीयँ निहारीं । मूदे नयन सहमि सुकुमारीं ॥
परीं बधिक बस मनहुँ मरालीं । काह कीन्ह करतार कुचालीं ॥
तिन्ह सिय निरखि निपट दुखु पावा । सो सबु सहिअ जो दैउ सहावा ॥
जनकसुता तब उर धरि धीरा । नील नलिन लोयन भरि नीरा ॥
मिली सकल सासुन्ह सिय जाई । तेहि अवसर करुना महि छाई ॥

दोहा

लागि लागि पग सबनि सिय भेंटति अति अनुराग ॥
हृदयँ असीसहिं पेम बस रहिअहु भरी सोहाग ॥२४६॥

चौपाला

बिकल सनेहँ सीय सब रानीं । बैठन सबहि कहेउ गुर ग्यानीं ॥
कहि जग गति मायिक मुनिनाथा । कहे कछुक परमारथ गाथा ॥
नृप कर सुरपुर गवनु सुनावा । सुनि रघुनाथ दुसह दुखु पावा ॥
मरन हेतु निज नेहु बिचारी । भे अति बिकल धीर धुर धारी ॥
कुलिस कठोर सुनत कटु बानी । बिलपत लखन सीय सब रानी ॥
सोक बिकल अति सकल समाजू । मानहुँ राजु अकाजेउ आजू ॥
मुनिबर बहुरि राम समुझाए । सहित समाज सुसरित नहाए ॥
ब्रतु निरंबु तेहि दिन प्रभु कीन्हा । मुनिहु कहें जलु काहुँ न लीन्हा ॥

दोहा

भोरु भएँ रघुनंदनहि जो मुनि आयसु दीन्ह ॥
श्रद्धा भगति समेत प्रभु सो सबु सादरु कीन्ह ॥२४७॥

चौपाला

करि पितु क्रिया बेद जसि बरनी । भे पुनीत पातक तम तरनी ॥
जासु नाम पावक अघ तूला । सुमिरत सकल सुमंगल मूला ॥
सुद्ध सो भयउ साधु संमत अस । तीरथ आवाहन सुरसरि जस ॥
सुद्ध भएँ दुइ बासर बीते । बोले गुर सन राम पिरीते ॥
नाथ लोग सब निपट दुखारी । कंद मूल फल अंबु अहारी ॥
सानुज भरतु सचिव सब माता । देखि मोहि पल जिमि जुग जाता ॥
सब समेत पुर धारिअ पाऊ । आपु इहाँ अमरावति राऊ ॥
बहुत कहेउँ सब कियउँ ढिठाई । उचित होइ तस करिअ गोसाँई ॥

दोहा

धर्म सेतु करुनायतन कस न कहहु अस राम।
लोग दुखित दिन दुइ दरस देखि लहहुँ बिश्राम ॥२४८॥

चौपाला

राम बचन सुनि सभय समाजू । जनु जलनिधि महुँ बिकल जहाजू ॥
सुनि गुर गिरा सुमंगल मूला । भयउ मनहुँ मारुत अनुकुला ॥
पावन पयँ तिहुँ काल नहाहीं । जो बिलोकि अंघ ओघ नसाहीं ॥
मंगलमूरति लोचन भरि भरि । निरखहिं हरषि दंडवत करि करि ॥
राम सैल बन देखन जाहीं । जहँ सुख सकल सकल दुख नाहीं ॥
झरना झरिहिं सुधासम बारी । त्रिबिध तापहर त्रिबिध बयारी ॥
बिटप बेलि तृन अगनित जाती । फल प्रसून पल्लव बहु भाँती ॥
सुंदर सिला सुखद तरु छाहीं । जाइ बरनि बन छबि केहि पाहीं ॥

दोहा

सरनि सरोरुह जल बिहग कूजत गुंजत भृंग।
बैर बिगत बिहरत बिपिन मृग बिहंग बहुरंग ॥२४९॥

चौपाला

कोल किरात भिल्ल बनबासी । मधु सुचि सुंदर स्वादु सुधा सी ॥
भरि भरि परन पुटीं रचि रुरी । कंद मूल फल अंकुर जूरी ॥
सबहि देहिं करि बिनय प्रनामा । कहि कहि स्वाद भेद गुन नामा ॥
देहिं लोग बहु मोल न लेहीं । फेरत राम दोहाई देहीं ॥
कहहिं सनेह मगन मृदु बानी । मानत साधु पेम पहिचानी ॥
तुम्ह सुकृती हम नीच निषादा । पावा दरसनु राम प्रसादा ॥
हमहि अगम अति दरसु तुम्हारा । जस मरु धरनि देवधुनि धारा ॥
राम कृपाल निषाद नेवाजा । परिजन प्रजउ चहिअ जस राजा ॥

दोहा

यह जिँयँ जानि सँकोचु तजि करिअ छोहु लखि नेहु।
हमहि कृतारथ करन लगि फल तृन अंकुर लेहु ॥२५०॥

चौपाला

तुम्ह प्रिय पाहुने बन पगु धारे । सेवा जोगु न भाग हमारे ॥
देब काह हम तुम्हहि गोसाँई । ईधनु पात किरात मिताई ॥
यह हमारि अति बड़ि सेवकाई । लेहि न बासन बसन चोराई ॥
हम जड़ जीव जीव गन घाती । कुटिल कुचाली कुमति कुजाती ॥
पाप करत निसि बासर जाहीं । नहिं पट कटि नहि पेट अघाहीं ॥
सपोनेहुँ धरम बुद्धि कस काऊ । यह रघुनंदन दरस प्रभाऊ ॥
जब तें प्रभु पद पदुम निहारे । मिटे दुसह दुख दोष हमारे ॥
बचन सुनत पुरजन अनुरागे । तिन्ह के भाग सराहन लागे ॥

छंद

लागे सराहन भाग सब अनुराग बचन सुनावहीं।
बोलनि मिलनि सिय राम चरन सनेहु लखि सुखु पावहीं ॥
नर नारि निदरहिं नेहु निज सुनि कोल भिल्लनि की गिरा।
तुलसी कृपा रघुबंसमनि की लोह लै लौका तिरा ॥

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