दोहा

बार बार कौसिक चरन सीसु नाइ कह राउ।
यह सबु सुखु मुनिराज तव कृपा कटाच्छ पसाउ ॥३३१॥

चौपाला
जनक सनेहु सीलु करतूती । नृपु सब भाँति सराह बिभूती ॥
दिन उठि बिदा अवधपति मागा । राखहिं जनकु सहित अनुरागा ॥
नित नूतन आदरु अधिकाई । दिन प्रति सहस भाँति पहुनाई ॥
नित नव नगर अनंद उछाहू । दसरथ गवनु सोहाइ न काहू ॥
बहुत दिवस बीते एहि भाँती । जनु सनेह रजु बँधे बराती ॥
कौसिक सतानंद तब जाई । कहा बिदेह नृपहि समुझाई ॥
अब दसरथ कहँ आयसु देहू । जद्यपि छाड़ि न सकहु सनेहू ॥
भलेहिं नाथ कहि सचिव बोलाए । कहि जय जीव सीस तिन्ह नाए ॥

दोहा

अवधनाथु चाहत चलन भीतर करहु जनाउ।
भए प्रेमबस सचिव सुनि बिप्र सभासद राउ ॥३३२॥

चौपाला
पुरबासी सुनि चलिहि बराता । बूझत बिकल परस्पर बाता ॥
सत्य गवनु सुनि सब बिलखाने । मनहुँ साँझ सरसिज सकुचाने ॥
जहँ जहँ आवत बसे बराती । तहँ तहँ सिद्ध चला बहु भाँती ॥
बिबिध भाँति मेवा पकवाना । भोजन साजु न जाइ बखाना ॥
भरि भरि बसहँ अपार कहारा । पठई जनक अनेक सुसारा ॥
तुरग लाख रथ सहस पचीसा । सकल सँवारे नख अरु सीसा ॥
मत्त सहस दस सिंधुर साजे । जिन्हहि देखि दिसिकुंजर लाजे ॥
कनक बसन मनि भरि भरि जाना । महिषीं धेनु बस्तु बिधि नाना ॥

दोहा

दाइज अमित न सकिअ कहि दीन्ह बिदेहँ बहोरि।
जो अवलोकत लोकपति लोक संपदा थोरि ॥३३३॥

चौपाला
सबु समाजु एहि भाँति बनाई । जनक अवधपुर दीन्ह पठाई ॥
चलिहि बरात सुनत सब रानीं । बिकल मीनगन जनु लघु पानीं ॥
पुनि पुनि सीय गोद करि लेहीं । देइ असीस सिखावनु देहीं ॥
होएहु संतत पियहि पिआरी । चिरु अहिबात असीस हमारी ॥
सासु ससुर गुर सेवा करेहू । पति रुख लखि आयसु अनुसरेहू ॥
अति सनेह बस सखीं सयानी । नारि धरम सिखवहिं मृदु बानी ॥
सादर सकल कुअँरि समुझाई । रानिन्ह बार बार उर लाई ॥
बहुरि बहुरि भेटहिं महतारीं । कहहिं बिरंचि रचीं कत नारीं ॥

दोहा

तेहि अवसर भाइन्ह सहित रामु भानु कुल केतु ।
चले जनक मंदिर मुदित बिदा करावन हेतु ॥३३४॥

चौपाला
चारिअ भाइ सुभायँ सुहाए । नगर नारि नर देखन धाए ॥
कोउ कह चलन चहत हहिं आजू । कीन्ह बिदेह बिदा कर साजू ॥
लेहु नयन भरि रूप निहारी । प्रिय पाहुने भूप सुत चारी ॥
को जानै केहि सुकृत सयानी । नयन अतिथि कीन्हे बिधि आनी ॥
मरनसीलु जिमि पाव पिऊषा । सुरतरु लहै जनम कर भूखा ॥
पाव नारकी हरिपदु जैसें । इन्ह कर दरसनु हम कहँ तैसे ॥
निरखि राम सोभा उर धरहू । निज मन फनि मूरति मनि करहू ॥
एहि बिधि सबहि नयन फलु देता । गए कुअँर सब राज निकेता ॥

दोहा

रूप सिंधु सब बंधु लखि हरषि उठा रनिवासु ।
करहि निछावरि आरती महा मुदित मन सासु ॥३३५॥

चौपाला
देखि राम छबि अति अनुरागीं । प्रेमबिबस पुनि पुनि पद लागीं ॥
रही न लाज प्रीति उर छाई । सहज सनेहु बरनि किमि जाई ॥
भाइन्ह सहित उबटि अन्हवाए । छरस असन अति हेतु जेवाँए ॥
बोले रामु सुअवसरु जानी । सील सनेह सकुचमय बानी ॥
राउ अवधपुर चहत सिधाए । बिदा होन हम इहाँ पठाए ॥
मातु मुदित मन आयसु देहू । बालक जानि करब नित नेहू ॥
सुनत बचन बिलखेउ रनिवासू । बोलि न सकहिं प्रेमबस सासू ॥
हृदयँ लगाइ कुअँरि सब लीन्ही । पतिन्ह सौंपि बिनती अति कीन्ही ॥

छंद

करि बिनय सिय रामहि समरपी जोरि कर पुनि पुनि कहै ।
बलि जाँउ तात सुजान तुम्ह कहुँ बिदित गति सब की अहै ॥
परिवार पुरजन मोहि राजहि प्रानप्रिय सिय जानिबी ।
तुलसीस सीलु सनेहु लखि निज किंकरी करि मानिबी ॥

सोरठा

तुम्ह परिपूरन काम जान सिरोमनि भावप्रिय ।
जन गुन गाहक राम दोष दलन करुनायतन ॥३३६॥

चौपाला

अस कहि रही चरन गहि रानी । प्रेम पंक जनु गिरा समानी ॥
सुनि सनेहसानी बर बानी । बहुबिधि राम सासु सनमानी ॥
राम बिदा मागत कर जोरी । कीन्ह प्रनामु बहोरि बहोरी ॥
पाइ असीस बहुरि सिरु नाई । भाइन्ह सहित चले रघुराई ॥
मंजु मधुर मूरति उर आनी । भई सनेह सिथिल सब रानी ॥
पुनि धीरजु धरि कुअँरि हँकारी । बार बार भेटहिं महतारीं ॥
पहुँचावहिं फिरि मिलहिं बहोरी । बढ़ी परस्पर प्रीति न थोरी ॥
पुनि पुनि मिलत सखिन्ह बिलगाई । बाल बच्छ जिमि धेनु लवाई ॥

दोहा

प्रेमबिबस नर नारि सब सखिन्ह सहित रनिवासु ।
मानहुँ कीन्ह बिदेहपुर करुनाँ बिरहँ निवासु ॥३३७॥

चौपाला
सुक सारिका जानकी ज्याए । कनक पिंजरन्हि राखि पढ़ाए ॥
ब्याकुल कहहिं कहाँ बैदेही । सुनि धीरजु परिहरइ न केही ॥
भए बिकल खग मृग एहि भाँति । मनुज दसा कैसें कहि जाती ॥
बंधु समेत जनकु तब आए । प्रेम उमगि लोचन जल छाए ॥
सीय बिलोकि धीरता भागी । रहे कहावत परम बिरागी ॥
लीन्हि राँय उर लाइ जानकी । मिटी महामरजाद ग्यान की ॥
समुझावत सब सचिव सयाने । कीन्ह बिचारु न अवसर जाने ॥
बारहिं बार सुता उर लाई । सजि सुंदर पालकीं मगाई ॥

दोहा

प्रेमबिबस परिवारु सबु जानि सुलगन नरेस।
कुँअरि चढ़ाई पालकिन्ह सुमिरे सिद्धि गनेस ॥३३८॥

चौपाला
बहुबिधि भूप सुता समुझाई । नारिधरमु कुलरीति सिखाई ॥
दासीं दास दिए बहुतेरे । सुचि सेवक जे प्रिय सिय केरे ॥
सीय चलत ब्याकुल पुरबासी । होहिं सगुन सुभ मंगल रासी ॥
भूसुर सचिव समेत समाजा । संग चले पहुँचावन राजा ॥
समय बिलोकि बाजने बाजे । रथ गज बाजि बरातिन्ह साजे ॥
दसरथ बिप्र बोलि सब लीन्हे । दान मान परिपूरन कीन्हे ॥
चरन सरोज धूरि धरि सीसा । मुदित महीपति पाइ असीसा ॥
सुमिरि गजाननु कीन्ह पयाना । मंगलमूल सगुन भए नाना ॥

दोहा

सुर प्रसून बरषहि हरषि करहिं अपछरा गान।
चले अवधपति अवधपुर मुदित बजाइ निसान ॥३३९॥

चौपाला
नृप करि बिनय महाजन फेरे । सादर सकल मागने टेरे ॥
भूषन बसन बाजि गज दीन्हे । प्रेम पोषि ठाढ़े सब कीन्हे ॥
बार बार बिरिदावलि भाषी । फिरे सकल रामहि उर राखी ॥
बहुरि बहुरि कोसलपति कहहीं । जनकु प्रेमबस फिरै न चहहीं ॥
पुनि कह भूपति बचन सुहाए । फिरिअ महीस दूरि बड़ि आए ॥
राउ बहोरि उतरि भए ठाढ़े । प्रेम प्रबाह बिलोचन बाढ़े ॥
तब बिदेह बोले कर जोरी । बचन सनेह सुधाँ जनु बोरी ॥
करौ कवन बिधि बिनय बनाई । महाराज मोहि दीन्हि बड़ाई ॥

दोहा

कोसलपति समधी सजन सनमाने सब भाँति।
मिलनि परसपर बिनय अति प्रीति न हृदयँ समाति ॥३४०॥

चौपाला
मुनि मंडलिहि जनक सिरु नावा । आसिरबादु सबहि सन पावा ॥
सादर पुनि भेंटे जामाता । रूप सील गुन निधि सब भ्राता ॥
जोरि पंकरुह पानि सुहाए । बोले बचन प्रेम जनु जाए ॥
राम करौ केहि भाँति प्रसंसा । मुनि महेस मन मानस हंसा ॥
करहिं जोग जोगी जेहि लागी । कोहु मोहु ममता मदु त्यागी ॥
ब्यापकु ब्रह्मु अलखु अबिनासी । चिदानंदु निरगुन गुनरासी ॥
मन समेत जेहि जान न बानी । तरकि न सकहिं सकल अनुमानी ॥
महिमा निगमु नेति कहि कहई । जो तिहुँ काल एकरस रहई ॥

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