दोहा

अजिन बसन फल असन महि सयन डासि कुस पात।
बसि तरु तर नित सहत हिम आतप बरषा बात ॥२११॥

चौपाला

एहि दुख दाहँ दहइ दिन छाती । भूख न बासर नीद न राती ॥
एहि कुरोग कर औषधु नाहीं । सोधेउँ सकल बिस्व मन माहीं ॥
मातु कुमत बढ़ई अघ मूला । तेहिं हमार हित कीन्ह बँसूला ॥
कलि कुकाठ कर कीन्ह कुजंत्रू । गाड़ि अवधि पढ़ि कठिन कुमंत्रु ॥
मोहि लगि यहु कुठाटु तेहिं ठाटा । घालेसि सब जगु बारहबाटा ॥
मिटइ कुजोगु राम फिरि आएँ । बसइ अवध नहिं आन उपाएँ ॥
भरत बचन सुनि मुनि सुखु पाई । सबहिं कीन्ह बहु भाँति बड़ाई ॥
तात करहु जनि सोचु बिसेषी । सब दुखु मिटहि राम पग देखी ॥

दोहा

करि प्रबोध मुनिबर कहेउ अतिथि पेमप्रिय होहु।
कंद मूल फल फूल हम देहिं लेहु करि छोहु ॥२१२॥

चौपाला

सुनि मुनि बचन भरत हिँय सोचू । भयउ कुअवसर कठिन सँकोचू ॥
जानि गरुइ गुर गिरा बहोरी । चरन बंदि बोले कर जोरी ॥
सिर धरि आयसु करिअ तुम्हारा । परम धरम यहु नाथ हमारा ॥
भरत बचन मुनिबर मन भाए । सुचि सेवक सिष निकट बोलाए ॥
चाहिए कीन्ह भरत पहुनाई । कंद मूल फल आनहु जाई ॥
भलेहीं नाथ कहि तिन्ह सिर नाए । प्रमुदित निज निज काज सिधाए ॥
मुनिहि सोच पाहुन बड़ नेवता । तसि पूजा चाहिअ जस देवता ॥
सुनि रिधि सिधि अनिमादिक आई । आयसु होइ सो करहिं गोसाई ॥

दोहा

राम बिरह ब्याकुल भरतु सानुज सहित समाज।
पहुनाई करि हरहु श्रम कहा मुदित मुनिराज ॥२१३॥

चौपाला

रिधि सिधि सिर धरि मुनिबर बानी । बड़भागिनि आपुहि अनुमानी ॥
कहहिं परसपर सिधि समुदाई । अतुलित अतिथि राम लघु भाई ॥
मुनि पद बंदि करिअ सोइ आजू । होइ सुखी सब राज समाजू ॥
अस कहि रचेउ रुचिर गृह नाना । जेहि बिलोकि बिलखाहिं बिमाना ॥
भोग बिभूति भूरि भरि राखे । देखत जिन्हहि अमर अभिलाषे ॥
दासीं दास साजु सब लीन्हें । जोगवत रहहिं मनहि मनु दीन्हें ॥
सब समाजु सजि सिधि पल माहीं । जे सुख सुरपुर सपनेहुँ नाहीं ॥
प्रथमहिं बास दिए सब केही । सुंदर सुखद जथा रुचि जेही ॥

दोहा

बहुरि सपरिजन भरत कहुँ रिषि अस आयसु दीन्ह।
बिधि बिसमय दायकु बिभव मुनिबर तपबल कीन्ह ॥२१४॥

चौपाला

मुनि प्रभाउ जब भरत बिलोका । सब लघु लगे लोकपति लोका ॥
सुख समाजु नहिं जाइ बखानी । देखत बिरति बिसारहीं ग्यानी ॥
आसन सयन सुबसन बिताना । बन बाटिका बिहग मृग नाना ॥
सुरभि फूल फल अमिअ समाना । बिमल जलासय बिबिध बिधाना।
असन पान सुच अमिअ अमी से । देखि लोग सकुचात जमी से ॥
सुर सुरभी सुरतरु सबही कें । लखि अभिलाषु सुरेस सची कें ॥
रितु बसंत बह त्रिबिध बयारी । सब कहँ सुलभ पदारथ चारी ॥
स्त्रक चंदन बनितादिक भोगा । देखि हरष बिसमय बस लोगा ॥

दोहा

संपत चकई भरतु चक मुनि आयस खेलवार ॥
तेहि निसि आश्रम पिंजराँ राखे भा भिनुसार ॥२१५॥

मासपारायण , उन्नीसवाँ विश्राम

चौपाला

कीन्ह निमज्जनु तीरथराजा । नाइ मुनिहि सिरु सहित समाजा ॥
रिषि आयसु असीस सिर राखी । करि दंडवत बिनय बहु भाषी ॥
पथ गति कुसल साथ सब लीन्हे । चले चित्रकूटहिं चितु दीन्हें ॥
रामसखा कर दीन्हें लागू । चलत देह धरि जनु अनुरागू ॥
नहिं पद त्रान सीस नहिं छाया । पेमु नेमु ब्रतु धरमु अमाया ॥
लखन राम सिय पंथ कहानी । पूँछत सखहि कहत मृदु बानी ॥
राम बास थल बिटप बिलोकें । उर अनुराग रहत नहिं रोकैं ॥
दैखि दसा सुर बरिसहिं फूला । भइ मृदु महि मगु मंगल मूला ॥

दोहा

किएँ जाहिं छाया जलद सुखद बहइ बर बात।
तस मगु भयउ न राम कहँ जस भा भरतहि जात ॥२१६॥

चौपाला

जड़ चेतन मग जीव घनेरे । जे चितए प्रभु जिन्ह प्रभु हेरे ॥
ते सब भए परम पद जोगू । भरत दरस मेटा भव रोगू ॥
यह बड़ि बात भरत कइ नाहीं । सुमिरत जिनहि रामु मन माहीं ॥
बारक राम कहत जग जेऊ । होत तरन तारन नर तेऊ ॥
भरतु राम प्रिय पुनि लघु भ्राता । कस न होइ मगु मंगलदाता ॥
सिद्ध साधु मुनिबर अस कहहीं । भरतहि निरखि हरषु हियँ लहहीं ॥
देखि प्रभाउ सुरेसहि सोचू । जगु भल भलेहि पोच कहुँ पोचू ॥
गुर सन कहेउ करिअ प्रभु सोई । रामहि भरतहि भेंट न होई ॥

दोहा

रामु सँकोची प्रेम बस भरत सपेम पयोधि।
बनी बात बेगरन चहति करिअ जतनु छलु सोधि ॥२१७॥

चौपाला

बचन सुनत सुरगुरु मुसकाने । सहसनयन बिनु लोचन जाने ॥
मायापति सेवक सन माया । करइ त उलटि परइ सुरराया ॥
तब किछु कीन्ह राम रुख जानी । अब कुचालि करि होइहि हानी ॥
सुनु सुरेस रघुनाथ सुभाऊ । निज अपराध रिसाहिं न काऊ ॥
जो अपराधु भगत कर करई । राम रोष पावक सो जरई ॥
लोकहुँ बेद बिदित इतिहासा । यह महिमा जानहिं दुरबासा ॥
भरत सरिस को राम सनेही । जगु जप राम रामु जप जेही ॥

दोहा

मनहुँ न आनिअ अमरपति रघुबर भगत अकाजु।
अजसु लोक परलोक दुख दिन दिन सोक समाजु ॥२१८॥

चौपाला

सुनु सुरेस उपदेसु हमारा । रामहि सेवकु परम पिआरा ॥
मानत सुखु सेवक सेवकाई । सेवक बैर बैरु अधिकाई ॥
जद्यपि सम नहिं राग न रोषू । गहहिं न पाप पूनु गुन दोषू ॥
करम प्रधान बिस्व करि राखा । जो जस करइ सो तस फलु चाखा ॥
तदपि करहिं सम बिषम बिहारा । भगत अभगत हृदय अनुसारा ॥
अगुन अलेप अमान एकरस । रामु सगुन भए भगत पेम बस ॥
राम सदा सेवक रुचि राखी । बेद पुरान साधु सुर साखी ॥
अस जियँ जानि तजहु कुटिलाई । करहु भरत पद प्रीति सुहाई ॥

दोहा

राम भगत परहित निरत पर दुख दुखी दयाल।
भगत सिरोमनि भरत तें जनि डरपहु सुरपाल ॥२१९॥

चौपाला

सत्यसंध प्रभु सुर हितकारी । भरत राम आयस अनुसारी ॥
स्वारथ बिबस बिकल तुम्ह होहू । भरत दोसु नहिं राउर मोहू ॥
सुनि सुरबर सुरगुर बर बानी । भा प्रमोदु मन मिटी गलानी ॥
बरषि प्रसून हरषि सुरराऊ । लगे सराहन भरत सुभाऊ ॥
एहि बिधि भरत चले मग जाहीं । दसा देखि मुनि सिद्ध सिहाहीं ॥
जबहिं रामु कहि लेहिं उसासा । उमगत पेमु मनहँ चहु पासा ॥
द्रवहिं बचन सुनि कुलिस पषाना । पुरजन पेमु न जाइ बखाना ॥
बीच बास करि जमुनहिं आए । निरखि नीरु लोचन जल छाए ॥

दोहा

रघुबर बरन बिलोकि बर बारि समेत समाज।
होत मगन बारिधि बिरह चढ़े बिबेक जहाज ॥२२०॥

चौपाला

जमुन तीर तेहि दिन करि बासू । भयउ समय सम सबहि सुपासू ॥
रातहिं घाट घाट की तरनी । आईं अगनित जाहिं न बरनी ॥
प्रात पार भए एकहि खेंवाँ । तोषे रामसखा की सेवाँ ॥
चले नहाइ नदिहि सिर नाई । साथ निषादनाथ दोउ भाई ॥
आगें मुनिबर बाहन आछें । राजसमाज जाइ सबु पाछें ॥
तेहिं पाछें दोउ बंधु पयादें । भूषन बसन बेष सुठि सादें ॥
सेवक सुह्रद सचिवसुत साथा । सुमिरत लखनु सीय रघुनाथा ॥
जहँ जहँ राम बास बिश्रामा । तहँ तहँ करहिं सप्रेम प्रनामा ॥

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