दोहा

सुनिअ सुधा देखिअहिं गरल सब करतूति कराल।
जहँ तहँ काक उलूक बक मानस सकृत मराल ॥२८१॥

चौपाला

सुनि ससोच कह देबि सुमित्रा । बिधि गति बड़ि बिपरीत बिचित्रा ॥
जो सृजि पालइ हरइ बहोरी । बाल केलि सम बिधि मति भोरी ॥
कौसल्या कह दोसु न काहू । करम बिबस दुख सुख छति लाहू ॥
कठिन करम गति जान बिधाता । जो सुभ असुभ सकल फल दाता ॥
ईस रजाइ सीस सबही कें । उतपति थिति लय बिषहु अमी कें ॥
देबि मोह बस सोचिअ बादी । बिधि प्रपंचु अस अचल अनादी ॥
भूपति जिअब मरब उर आनी । सोचिअ सखि लखि निज हित हानी ॥
सीय मातु कह सत्य सुबानी । सुकृती अवधि अवधपति रानी ॥

दोहा

लखनु राम सिय जाहुँ बन भल परिनाम न पोचु।
गहबरि हियँ कह कौसिला मोहि भरत कर सोचु ॥२८२॥

चौपाला

ईस प्रसाद असीस तुम्हारी । सुत सुतबधू देवसरि बारी ॥
राम सपथ मैं कीन्ह न काऊ । सो करि कहउँ सखी सति भाऊ ॥
भरत सील गुन बिनय बड़ाई । भायप भगति भरोस भलाई ॥
कहत सारदहु कर मति हीचे । सागर सीप कि जाहिं उलीचे ॥
जानउँ सदा भरत कुलदीपा । बार बार मोहि कहेउ महीपा ॥
कसें कनकु मनि पारिखि पाएँ । पुरुष परिखिअहिं समयँ सुभाएँ।
अनुचित आजु कहब अस मोरा । सोक सनेहँ सयानप थोरा ॥
सुनि सुरसरि सम पावनि बानी । भईं सनेह बिकल सब रानी ॥

दोहा

कौसल्या कह धीर धरि सुनहु देबि मिथिलेसि।
को बिबेकनिधि बल्लभहि तुम्हहि सकइ उपदेसि ॥२८३॥

चौपाला

रानि राय सन अवसरु पाई । अपनी भाँति कहब समुझाई ॥
रखिअहिं लखनु भरतु गबनहिं बन । जौं यह मत मानै महीप मन ॥
तौ भल जतनु करब सुबिचारी । मोरें सौचु भरत कर भारी ॥
गूढ़ सनेह भरत मन माही । रहें नीक मोहि लागत नाहीं ॥
लखि सुभाउ सुनि सरल सुबानी । सब भइ मगन करुन रस रानी ॥
नभ प्रसून झरि धन्य धन्य धुनि । सिथिल सनेहँ सिद्ध जोगी मुनि ॥
सबु रनिवासु बिथकि लखि रहेऊ । तब धरि धीर सुमित्राँ कहेऊ ॥
देबि दंड जुग जामिनि बीती । राम मातु सुनी उठी सप्रीती ॥

दोहा

बेगि पाउ धारिअ थलहि कह सनेहँ सतिभाय।
हमरें तौ अब ईस गति के मिथिलेस सहाय ॥२८४॥

चौपाला

लखि सनेह सुनि बचन बिनीता । जनकप्रिया गह पाय पुनीता ॥
देबि उचित असि बिनय तुम्हारी । दसरथ घरिनि राम महतारी ॥
प्रभु अपने नीचहु आदरहीं । अगिनि धूम गिरि सिर तिनु धरहीं ॥
सेवकु राउ करम मन बानी । सदा सहाय महेसु भवानी ॥
रउरे अंग जोगु जग को है । दीप सहाय कि दिनकर सोहै ॥
रामु जाइ बनु करि सुर काजू । अचल अवधपुर करिहहिं राजू ॥
अमर नाग नर राम बाहुबल । सुख बसिहहिं अपनें अपने थल ॥
यह सब जागबलिक कहि राखा । देबि न होइ मुधा मुनि भाषा ॥

दोहा

अस कहि पग परि पेम अति सिय हित बिनय सुनाइ ॥
सिय समेत सियमातु तब चली सुआयसु पाइ ॥२८५॥

चौपाला

प्रिय परिजनहि मिली बैदेही । जो जेहि जोगु भाँति तेहि तेही ॥
तापस बेष जानकी देखी । भा सबु बिकल बिषाद बिसेषी ॥
जनक राम गुर आयसु पाई । चले थलहि सिय देखी आई ॥
लीन्हि लाइ उर जनक जानकी । पाहुन पावन पेम प्रान की ॥
उर उमगेउ अंबुधि अनुरागू । भयउ भूप मनु मनहुँ पयागू ॥
सिय सनेह बटु बाढ़त जोहा । ता पर राम पेम सिसु सोहा ॥
चिरजीवी मुनि ग्यान बिकल जनु । बूड़त लहेउ बाल अवलंबनु ॥
मोह मगन मति नहिं बिदेह की । महिमा सिय रघुबर सनेह की ॥

दोहा

सिय पितु मातु सनेह बस बिकल न सकी सँभारि।
धरनिसुताँ धीरजु धरेउ समउ सुधरमु बिचारि ॥२८६॥

चौपाला

तापस बेष जनक सिय देखी । भयउ पेमु परितोषु बिसेषी ॥
पुत्रि पवित्र किए कुल दोऊ । सुजस धवल जगु कह सबु कोऊ ॥
जिति सुरसरि कीरति सरि तोरी । गवनु कीन्ह बिधि अंड करोरी ॥
गंग अवनि थल तीनि बड़ेरे । एहिं किए साधु समाज घनेरे ॥
पितु कह सत्य सनेहँ सुबानी । सीय सकुच महुँ मनहुँ समानी ॥
पुनि पितु मातु लीन्ह उर लाई । सिख आसिष हित दीन्हि सुहाई ॥
कहति न सीय सकुचि मन माहीं । इहाँ बसब रजनीं भल नाहीं ॥
लखि रुख रानि जनायउ राऊ । हृदयँ सराहत सीलु सुभाऊ ॥

दोहा

बार बार मिलि भेंट सिय बिदा कीन्ह सनमानि।
कही समय सिर भरत गति रानि सुबानि सयानि ॥२८७॥

चौपाला

सुनि भूपाल भरत ब्यवहारू । सोन सुगंध सुधा ससि सारू ॥
मूदे सजल नयन पुलके तन । सुजसु सराहन लगे मुदित मन ॥
सावधान सुनु सुमुखि सुलोचनि । भरत कथा भव बंध बिमोचनि ॥
धरम राजनय ब्रह्मबिचारू । इहाँ जथामति मोर प्रचारू ॥
सो मति मोरि भरत महिमाही । कहै काह छलि छुअति न छाँही ॥
बिधि गनपति अहिपति सिव सारद । कबि कोबिद बुध बुद्धि बिसारद ॥
भरत चरित कीरति करतूती । धरम सील गुन बिमल बिभूती ॥
समुझत सुनत सुखद सब काहू । सुचि सुरसरि रुचि निदर सुधाहू ॥

दोहा

निरवधि गुन निरुपम पुरुषु भरतु भरत सम जानि।
कहिअ सुमेरु कि सेर सम कबिकुल मति सकुचानि ॥२८८॥

चौपाला

अगम सबहि बरनत बरबरनी । जिमि जलहीन मीन गमु धरनी ॥
भरत अमित महिमा सुनु रानी । जानहिं रामु न सकहिं बखानी ॥
बरनि सप्रेम भरत अनुभाऊ । तिय जिय की रुचि लखि कह राऊ ॥
बहुरहिं लखनु भरतु बन जाहीं । सब कर भल सब के मन माहीं ॥
देबि परंतु भरत रघुबर की । प्रीति प्रतीति जाइ नहिं तरकी ॥
भरतु अवधि सनेह ममता की । जद्यपि रामु सीम समता की ॥
परमारथ स्वारथ सुख सारे । भरत न सपनेहुँ मनहुँ निहारे ॥
साधन सिद्ध राम पग नेहू ॥मोहि लखि परत भरत मत एहू ॥

दोहा

भोरेहुँ भरत न पेलिहहिं मनसहुँ राम रजाइ।
करिअ न सोचु सनेह बस कहेउ भूप बिलखाइ ॥२८९॥

चौपाला

राम भरत गुन गनत सप्रीती । निसि दंपतिहि पलक सम बीती ॥
राज समाज प्रात जुग जागे । न्हाइ न्हाइ सुर पूजन लागे ॥
गे नहाइ गुर पहीं रघुराई । बंदि चरन बोले रुख पाई ॥
नाथ भरतु पुरजन महतारी । सोक बिकल बनबास दुखारी ॥
सहित समाज राउ मिथिलेसू । बहुत दिवस भए सहत कलेसू ॥
उचित होइ सोइ कीजिअ नाथा । हित सबही कर रौरें हाथा ॥
अस कहि अति सकुचे रघुराऊ । मुनि पुलके लखि सीलु सुभाऊ ॥
तुम्ह बिनु राम सकल सुख साजा । नरक सरिस दुहु राज समाजा ॥

दोहा

प्रान प्रान के जीव के जिव सुख के सुख राम।
तुम्ह तजि तात सोहात गृह जिन्हहि तिन्हहिं बिधि बाम ॥२९०॥

चौपाला

सो सुखु करमु धरमु जरि जाऊ । जहँ न राम पद पंकज भाऊ ॥
जोगु कुजोगु ग्यानु अग्यानू । जहँ नहिं राम पेम परधानू ॥
तुम्ह बिनु दुखी सुखी तुम्ह तेहीं । तुम्ह जानहु जिय जो जेहि केहीं ॥
राउर आयसु सिर सबही कें । बिदित कृपालहि गति सब नीकें ॥
आपु आश्रमहि धारिअ पाऊ । भयउ सनेह सिथिल मुनिराऊ ॥
करि प्रनाम तब रामु सिधाए । रिषि धरि धीर जनक पहिं आए ॥
राम बचन गुरु नृपहि सुनाए । सील सनेह सुभायँ सुहाए ॥
महाराज अब कीजिअ सोई । सब कर धरम सहित हित होई।

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