दोहा

कैकयनंदिनि मंदमति कठिन कुटिलपनु कीन्ह।
जेहीं रघुनंदन जानकिहि सुख अवसर दुखु दीन्ह ॥९१॥

चौपाला

भइ दिनकर कुल बिटप कुठारी । कुमति कीन्ह सब बिस्व दुखारी ॥
भयउ बिषादु निषादहि भारी । राम सीय महि सयन निहारी ॥
बोले लखन मधुर मृदु बानी । ग्यान बिराग भगति रस सानी ॥
काहु न कोउ सुख दुख कर दाता । निज कृत करम भोग सबु भ्राता ॥
जोग बियोग भोग भल मंदा । हित अनहित मध्यम भ्रम फंदा ॥
जनमु मरनु जहँ लगि जग जालू । संपती बिपति करमु अरु कालू ॥
धरनि धामु धनु पुर परिवारू । सरगु नरकु जहँ लगि ब्यवहारू ॥
देखिअ सुनिअ गुनिअ मन माहीं । मोह मूल परमारथु नाहीं ॥

दोहा

सपनें होइ भिखारि नृप रंकु नाकपति होइ।
जागें लाभु न हानि कछु तिमि प्रपंच जियँ जोइ ॥९२॥

चौपाला

अस बिचारि नहिं कीजअ रोसू । काहुहि बादि न देइअ दोसू ॥
मोह निसाँ सबु सोवनिहारा । देखिअ सपन अनेक प्रकारा ॥
एहिं जग जामिनि जागहिं जोगी । परमारथी प्रपंच बियोगी ॥
जानिअ तबहिं जीव जग जागा । जब जब बिषय बिलास बिरागा ॥
होइ बिबेकु मोह भ्रम भागा । तब रघुनाथ चरन अनुरागा ॥
सखा परम परमारथु एहू । मन क्रम बचन राम पद नेहू ॥
राम ब्रह्म परमारथ रूपा । अबिगत अलख अनादि अनूपा ॥
सकल बिकार रहित गतभेदा । कहि नित नेति निरूपहिं बेदा।

दोहा

भगत भूमि भूसुर सुरभि सुर हित लागि कृपाल।
करत चरित धरि मनुज तनु सुनत मिटहि जग जाल ॥९३॥

मासपारायण , पंद्रहवा विश्राम

चौपाला

सखा समुझि अस परिहरि मोहु । सिय रघुबीर चरन रत होहू ॥
कहत राम गुन भा भिनुसारा । जागे जग मंगल सुखदारा ॥
सकल सोच करि राम नहावा । सुचि सुजान बट छीर मगावा ॥
अनुज सहित सिर जटा बनाए । देखि सुमंत्र नयन जल छाए ॥
हृदयँ दाहु अति बदन मलीना । कह कर जोरि बचन अति दीना ॥
नाथ कहेउ अस कोसलनाथा । लै रथु जाहु राम कें साथा ॥
बनु देखाइ सुरसरि अन्हवाई । आनेहु फेरि बेगि दोउ भाई ॥
लखनु रामु सिय आनेहु फेरी । संसय सकल सँकोच निबेरी ॥

दोहा

नृप अस कहेउ गोसाईँ जस कहइ करौं बलि सोइ।
करि बिनती पायन्ह परेउ दीन्ह बाल जिमि रोइ ॥९४॥

चौपाला

तात कृपा करि कीजिअ सोई । जातें अवध अनाथ न होई ॥
मंत्रहि राम उठाइ प्रबोधा । तात धरम मतु तुम्ह सबु सोधा ॥
सिबि दधीचि हरिचंद नरेसा । सहे धरम हित कोटि कलेसा ॥
रंतिदेव बलि भूप सुजाना । धरमु धरेउ सहि संकट नाना ॥
धरमु न दूसर सत्य समाना । आगम निगम पुरान बखाना ॥
मैं सोइ धरमु सुलभ करि पावा । तजें तिहूँ पुर अपजसु छावा ॥
संभावित कहुँ अपजस लाहू । मरन कोटि सम दारुन दाहू ॥
तुम्ह सन तात बहुत का कहऊँ । दिएँ उतरु फिरि पातकु लहऊँ ॥

दोहा

पितु पद गहि कहि कोटि नति बिनय करब कर जोरि।
चिंता कवनिहु बात कै तात करिअ जनि मोरि ॥९५॥

चौपाला

तुम्ह पुनि पितु सम अति हित मोरें । बिनती करउँ तात कर जोरें ॥
सब बिधि सोइ करतब्य तुम्हारें । दुख न पाव पितु सोच हमारें ॥
सुनि रघुनाथ सचिव संबादू । भयउ सपरिजन बिकल निषादू ॥
पुनि कछु लखन कही कटु बानी । प्रभु बरजे बड़ अनुचित जानी ॥
सकुचि राम निज सपथ देवाई । लखन सँदेसु कहिअ जनि जाई ॥
कह सुमंत्रु पुनि भूप सँदेसू । सहि न सकिहि सिय बिपिन कलेसू ॥
जेहि बिधि अवध आव फिरि सीया । सोइ रघुबरहि तुम्हहि करनीया ॥
नतरु निपट अवलंब बिहीना । मैं न जिअब जिमि जल बिनु मीना ॥

दोहा

मइकें ससरें सकल सुख जबहिं जहाँ मनु मान ॥
तँह तब रहिहि सुखेन सिय जब लगि बिपति बिहान ॥९६॥

चौपाला

बिनती भूप कीन्ह जेहि भाँती । आरति प्रीति न सो कहि जाती ॥
पितु सँदेसु सुनि कृपानिधाना । सियहि दीन्ह सिख कोटि बिधाना ॥
सासु ससुर गुर प्रिय परिवारू । फिरतु त सब कर मिटै खभारू ॥
सुनि पति बचन कहति बैदेही । सुनहु प्रानपति परम सनेही ॥
प्रभु करुनामय परम बिबेकी । तनु तजि रहति छाँह किमि छेंकी ॥
प्रभा जाइ कहँ भानु बिहाई । कहँ चंद्रिका चंदु तजि जाई ॥
पतिहि प्रेममय बिनय सुनाई । कहति सचिव सन गिरा सुहाई ॥
तुम्ह पितु ससुर सरिस हितकारी । उतरु देउँ फिरि अनुचित भारी ॥

दोहा

आरति बस सनमुख भइउँ बिलगु न मानब तात।
आरजसुत पद कमल बिनु बादि जहाँ लगि नात ॥९७॥

चौपाला

पितु बैभव बिलास मैं डीठा । नृप मनि मुकुट मिलित पद पीठा ॥
सुखनिधान अस पितु गृह मोरें । पिय बिहीन मन भाव न भोरें ॥
ससुर चक्कवइ कोसलराऊ । भुवन चारिदस प्रगट प्रभाऊ ॥
आगें होइ जेहि सुरपति लेई । अरध सिंघासन आसनु देई ॥
ससुरु एतादृस अवध निवासू । प्रिय परिवारु मातु सम सासू ॥
बिनु रघुपति पद पदुम परागा । मोहि केउ सपनेहुँ सुखद न लागा ॥
अगम पंथ बनभूमि पहारा । करि केहरि सर सरित अपारा ॥
कोल किरात कुरंग बिहंगा । मोहि सब सुखद प्रानपति संगा ॥

दोहा

सासु ससुर सन मोरि हुँति बिनय करबि परि पायँ ॥
मोर सोचु जनि करिअ कछु मैं बन सुखी सुभायँ ॥९८॥

चौपाला

प्राननाथ प्रिय देवर साथा । बीर धुरीन धरें धनु भाथा ॥
नहिं मग श्रमु भ्रमु दुख मन मोरें । मोहि लगि सोचु करिअ जनि भोरें ॥
सुनि सुमंत्रु सिय सीतलि बानी । भयउ बिकल जनु फनि मनि हानी ॥
नयन सूझ नहिं सुनइ न काना । कहि न सकइ कछु अति अकुलाना ॥
राम प्रबोधु कीन्ह बहु भाँति । तदपि होति नहिं सीतलि छाती ॥
जतन अनेक साथ हित कीन्हे । उचित उतर रघुनंदन दीन्हे ॥
मेटि जाइ नहिं राम रजाई । कठिन करम गति कछु न बसाई ॥
राम लखन सिय पद सिरु नाई । फिरेउ बनिक जिमि मूर गवाँई ॥

दोहा

रथ हाँकेउ हय राम तन हेरि हेरि हिहिनाहिं।
देखि निषाद बिषादबस धुनहिं सीस पछिताहिं ॥९९॥

चौपाला

जासु बियोग बिकल पसु ऐसे । प्रजा मातु पितु जिइहहिं कैसें ॥
बरबस राम सुमंत्रु पठाए । सुरसरि तीर आपु तब आए ॥
मागी नाव न केवटु आना । कहइ तुम्हार मरमु मैं जाना ॥
चरन कमल रज कहुँ सबु कहई । मानुष करनि मूरि कछु अहई ॥
छुअत सिला भइ नारि सुहाई । पाहन तें न काठ कठिनाई ॥
तरनिउ मुनि घरिनि होइ जाई । बाट परइ मोरि नाव उड़ाई ॥
एहिं प्रतिपालउँ सबु परिवारू । नहिं जानउँ कछु अउर कबारू ॥
जौ प्रभु पार अवसि गा चहहू । मोहि पद पदुम पखारन कहहू ॥

छंद

पद कमल धोइ चढ़ाइ नाव न नाथ उतराई चहौं।
मोहि राम राउरि आन दसरथ सपथ सब साची कहौं ॥
बरु तीर मारहुँ लखनु पै जब लगि न पाय पखारिहौं।
तब लगि न तुलसीदास नाथ कृपाल पारु उतारिहौं ॥

सोरठा

सुनि केबट के बैन प्रेम लपेटे अटपटे।
बिहसे करुनाऐन चितइ जानकी लखन तन ॥१००॥

चौपाला

कृपासिंधु बोले मुसुकाई । सोइ करु जेंहि तव नाव न जाई ॥
वेगि आनु जल पाय पखारू । होत बिलंबु उतारहि पारू ॥
जासु नाम सुमरत एक बारा । उतरहिं नर भवसिंधु अपारा ॥
सोइ कृपालु केवटहि निहोरा । जेहिं जगु किय तिहु पगहु ते थोरा ॥
पद नख निरखि देवसरि हरषी । सुनि प्रभु बचन मोहँ मति करषी ॥
केवट राम रजायसु पावा । पानि कठवता भरि लेइ आवा ॥
अति आनंद उमगि अनुरागा । चरन सरोज पखारन लागा ॥
बरषि सुमन सुर सकल सिहाहीं । एहि सम पुन्यपुंज कोउ नाहीं ॥

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