दोहा

ग्यान निधान सुजान सुचि धरम धीर नरपाल।
तुम्ह बिनु असमंजस समन को समरथ एहि काल ॥२९१॥

चौपाला

सुनि मुनि बचन जनक अनुरागे । लखि गति ग्यानु बिरागु बिरागे ॥
सिथिल सनेहँ गुनत मन माहीं । आए इहाँ कीन्ह भल नाही ॥
रामहि रायँ कहेउ बन जाना । कीन्ह आपु प्रिय प्रेम प्रवाना ॥
हम अब बन तें बनहि पठाई । प्रमुदित फिरब बिबेक बड़ाई ॥
तापस मुनि महिसुर सुनि देखी । भए प्रेम बस बिकल बिसेषी ॥
समउ समुझि धरि धीरजु राजा । चले भरत पहिं सहित समाजा ॥
भरत आइ आगें भइ लीन्हे । अवसर सरिस सुआसन दीन्हे ॥
तात भरत कह तेरहुति राऊ । तुम्हहि बिदित रघुबीर सुभाऊ ॥

दोहा

राम सत्यब्रत धरम रत सब कर सीलु सनेहु ॥
संकट सहत सकोच बस कहिअ जो आयसु देहु ॥२९२॥

चौपाला

सुनि तन पुलकि नयन भरि बारी । बोले भरतु धीर धरि भारी ॥
प्रभु प्रिय पूज्य पिता सम आपू । कुलगुरु सम हित माय न बापू ॥
कौसिकादि मुनि सचिव समाजू । ग्यान अंबुनिधि आपुनु आजू ॥
सिसु सेवक आयसु अनुगामी । जानि मोहि सिख देइअ स्वामी ॥
एहिं समाज थल बूझब राउर । मौन मलिन मैं बोलब बाउर ॥
छोटे बदन कहउँ बड़ि बाता । छमब तात लखि बाम बिधाता ॥
आगम निगम प्रसिद्ध पुराना । सेवाधरमु कठिन जगु जाना ॥
स्वामि धरम स्वारथहि बिरोधू । बैरु अंध प्रेमहि न प्रबोधू ॥

दोहा

राखि राम रुख धरमु ब्रतु पराधीन मोहि जानि।
सब कें संमत सर्ब हित करिअ पेमु पहिचानि ॥२९३॥

चौपाला

भरत बचन सुनि देखि सुभाऊ । सहित समाज सराहत राऊ ॥
सुगम अगम मृदु मंजु कठोरे । अरथु अमित अति आखर थोरे ॥
ज्यौ मुख मुकुर मुकुरु निज पानी । गहि न जाइ अस अदभुत बानी ॥
भूप भरत मुनि सहित समाजू । गे जहँ बिबुध कुमुद द्विजराजू ॥
सुनि सुधि सोच बिकल सब लोगा । मनहुँ मीनगन नव जल जोगा ॥
देवँ प्रथम कुलगुर गति देखी । निरखि बिदेह सनेह बिसेषी ॥
राम भगतिमय भरतु निहारे । सुर स्वारथी हहरि हियँ हारे ॥
सब कोउ राम पेममय पेखा । भउ अलेख सोच बस लेखा ॥

दोहा

रामु सनेह सकोच बस कह ससोच सुरराज।
रचहु प्रपंचहि पंच मिलि नाहिं त भयउ अकाजु ॥२९४॥

चौपाला

सुरन्ह सुमिरि सारदा सराही । देबि देव सरनागत पाही ॥
फेरि भरत मति करि निज माया । पालु बिबुध कुल करि छल छाया ॥
बिबुध बिनय सुनि देबि सयानी । बोली सुर स्वारथ जड़ जानी ॥
मो सन कहहु भरत मति फेरू । लोचन सहस न सूझ सुमेरू ॥
बिधि हरि हर माया बड़ि भारी । सोउ न भरत मति सकइ निहारी ॥
सो मति मोहि कहत करु भोरी । चंदिनि कर कि चंडकर चोरी ॥
भरत हृदयँ सिय राम निवासू । तहँ कि तिमिर जहँ तरनि प्रकासू ॥
अस कहि सारद गइ बिधि लोका । बिबुध बिकल निसि मानहुँ कोका ॥

दोहा

सुर स्वारथी मलीन मन कीन्ह कुमंत्र कुठाटु ॥
रचि प्रपंच माया प्रबल भय भ्रम अरति उचाटु ॥२९५॥

चौपाला

करि कुचालि सोचत सुरराजू । भरत हाथ सबु काजु अकाजू ॥
गए जनकु रघुनाथ समीपा । सनमाने सब रबिकुल दीपा ॥
समय समाज धरम अबिरोधा । बोले तब रघुबंस पुरोधा ॥
जनक भरत संबादु सुनाई । भरत कहाउति कही सुहाई ॥
तात राम जस आयसु देहू । सो सबु करै मोर मत एहू ॥
सुनि रघुनाथ जोरि जुग पानी । बोले सत्य सरल मृदु बानी ॥
बिद्यमान आपुनि मिथिलेसू । मोर कहब सब भाँति भदेसू ॥
राउर राय रजायसु होई । राउरि सपथ सही सिर सोई ॥

दोहा

राम सपथ सुनि मुनि जनकु सकुचे सभा समेत।
सकल बिलोकत भरत मुखु बनइ न उतरु देत ॥२९६॥

चौपाला

सभा सकुच बस भरत निहारी । रामबंधु धरि धीरजु भारी ॥
कुसमउ देखि सनेहु सँभारा । बढ़त बिंधि जिमि घटज निवारा ॥
सोक कनकलोचन मति छोनी । हरी बिमल गुन गन जगजोनी ॥
भरत बिबेक बराहँ बिसाला । अनायास उधरी तेहि काला ॥
करि प्रनामु सब कहँ कर जोरे । रामु राउ गुर साधु निहोरे ॥
छमब आजु अति अनुचित मोरा । कहउँ बदन मृदु बचन कठोरा ॥
हियँ सुमिरी सारदा सुहाई । मानस तें मुख पंकज आई ॥
बिमल बिबेक धरम नय साली । भरत भारती मंजु मराली ॥

दोहा

निरखि बिबेक बिलोचनन्हि सिथिल सनेहँ समाजु।
करि प्रनामु बोले भरतु सुमिरि सीय रघुराजु ॥२९७॥

चौपाला

प्रभु पितु मातु सुह्रद गुर स्वामी । पूज्य परम हित अतंरजामी ॥
सरल सुसाहिबु सील निधानू । प्रनतपाल सर्बग्य सुजानू ॥
समरथ सरनागत हितकारी । गुनगाहकु अवगुन अघ हारी ॥
स्वामि गोसाँइहि सरिस गोसाई । मोहि समान मैं साइँ दोहाई ॥
प्रभु पितु बचन मोह बस पेली । आयउँ इहाँ समाजु सकेली ॥
जग भल पोच ऊँच अरु नीचू । अमिअ अमरपद माहुरु मीचू ॥
राम रजाइ मेट मन माहीं । देखा सुना कतहुँ कोउ नाहीं ॥
सो मैं सब बिधि कीन्हि ढिठाई । प्रभु मानी सनेह सेवकाई ॥

दोहा

कृपाँ भलाई आपनी नाथ कीन्ह भल मोर।
दूषन भे भूषन सरिस सुजसु चारु चहु ओर ॥२९८॥

चौपाला

राउरि रीति सुबानि बड़ाई । जगत बिदित निगमागम गाई ॥
कूर कुटिल खल कुमति कलंकी । नीच निसील निरीस निसंकी ॥
तेउ सुनि सरन सामुहें आए । सकृत प्रनामु किहें अपनाए ॥
देखि दोष कबहुँ न उर आने । सुनि गुन साधु समाज बखाने ॥
को साहिब सेवकहि नेवाजी । आपु समाज साज सब साजी ॥
निज करतूति न समुझिअ सपनें । सेवक सकुच सोचु उर अपनें ॥
सो गोसाइँ नहि दूसर कोपी । भुजा उठाइ कहउँ पन रोपी ॥
पसु नाचत सुक पाठ प्रबीना । गुन गति नट पाठक आधीना ॥

दोहा

यों सुधारि सनमानि जन किए साधु सिरमोर।
को कृपाल बिनु पालिहै बिरिदावलि बरजोर ॥२९९॥

चौपाला

सोक सनेहँ कि बाल सुभाएँ । आयउँ लाइ रजायसु बाएँ ॥
तबहुँ कृपाल हेरि निज ओरा । सबहि भाँति भल मानेउ मोरा ॥
देखेउँ पाय सुमंगल मूला । जानेउँ स्वामि सहज अनुकूला ॥
बड़ें समाज बिलोकेउँ भागू । बड़ीं चूक साहिब अनुरागू ॥
कृपा अनुग्रह अंगु अघाई । कीन्हि कृपानिधि सब अधिकाई ॥
राखा मोर दुलार गोसाईं । अपनें सील सुभायँ भलाईं ॥
नाथ निपट मैं कीन्हि ढिठाई । स्वामि समाज सकोच बिहाई ॥
अबिनय बिनय जथारुचि बानी । छमिहि देउ अति आरति जानी ॥

दोहा

सुह्रद सुजान सुसाहिबहि बहुत कहब बड़ि खोरि।
आयसु देइअ देव अब सबइ सुधारी मोरि ॥३००॥

चौपाला

प्रभु पद पदुम पराग दोहाई । सत्य सुकृत सुख सीवँ सुहाई ॥
सो करि कहउँ हिए अपने की । रुचि जागत सोवत सपने की ॥
सहज सनेहँ स्वामि सेवकाई । स्वारथ छल फल चारि बिहाई ॥
अग्या सम न सुसाहिब सेवा । सो प्रसादु जन पावै देवा ॥
अस कहि प्रेम बिबस भए भारी । पुलक सरीर बिलोचन बारी ॥
प्रभु पद कमल गहे अकुलाई । समउ सनेहु न सो कहि जाई ॥
कृपासिंधु सनमानि सुबानी । बैठाए समीप गहि पानी ॥
भरत बिनय सुनि देखि सुभाऊ । सिथिल सनेहँ सभा रघुराऊ ॥

छंद

रघुराउ सिथिल सनेहँ साधु समाज मुनि मिथिला धनी।
मन महुँ सराहत भरत भायप भगति की महिमा घनी ॥
भरतहि प्रसंसत बिबुध बरषत सुमन मानस मलिन से।
तुलसी बिकल सब लोग सुनि सकुचे निसागम नलिन से ॥

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