दोहा

पद पखारि जलु पान करि आपु सहित परिवार।
पितर पारु करि प्रभुहि पुनि मुदित गयउ लेइ पार ॥१०१॥

चौपाला

उतरि ठाड़ भए सुरसरि रेता । सीयराम गुह लखन समेता ॥
केवट उतरि दंडवत कीन्हा । प्रभुहि सकुच एहि नहिं कछु दीन्हा ॥
पिय हिय की सिय जाननिहारी । मनि मुदरी मन मुदित उतारी ॥
कहेउ कृपाल लेहि उतराई । केवट चरन गहे अकुलाई ॥
नाथ आजु मैं काह न पावा । मिटे दोष दुख दारिद दावा ॥
बहुत काल मैं कीन्हि मजूरी । आजु दीन्ह बिधि बनि भलि भूरी ॥
अब कछु नाथ न चाहिअ मोरें । दीनदयाल अनुग्रह तोरें ॥
फिरती बार मोहि जे देबा । सो प्रसादु मैं सिर धरि लेबा ॥

दोहा

बहुत कीन्ह प्रभु लखन सियँ नहिं कछु केवटु लेइ।
बिदा कीन्ह करुनायतन भगति बिमल बरु देइ ॥१०२॥

चौपाला

तब मज्जनु करि रघुकुलनाथा । पूजि पारथिव नायउ माथा ॥
सियँ सुरसरिहि कहेउ कर जोरी । मातु मनोरथ पुरउबि मोरी ॥
पति देवर संग कुसल बहोरी । आइ करौं जेहिं पूजा तोरी ॥
सुनि सिय बिनय प्रेम रस सानी । भइ तब बिमल बारि बर बानी ॥
सुनु रघुबीर प्रिया बैदेही । तव प्रभाउ जग बिदित न केही ॥
लोकप होहिं बिलोकत तोरें । तोहि सेवहिं सब सिधि कर जोरें ॥
तुम्ह जो हमहि बड़ि बिनय सुनाई । कृपा कीन्हि मोहि दीन्हि बड़ाई ॥
तदपि देबि मैं देबि असीसा । सफल होपन हित निज बागीसा ॥

दोहा

प्राननाथ देवर सहित कुसल कोसला आइ।
पूजहि सब मनकामना सुजसु रहिहि जग छाइ ॥१०३॥

चौपाला

गंग बचन सुनि मंगल मूला । मुदित सीय सुरसरि अनुकुला ॥
तब प्रभु गुहहि कहेउ घर जाहू । सुनत सूख मुखु भा उर दाहू ॥
दीन बचन गुह कह कर जोरी । बिनय सुनहु रघुकुलमनि मोरी ॥
नाथ साथ रहि पंथु देखाई । करि दिन चारि चरन सेवकाई ॥
जेहिं बन जाइ रहब रघुराई । परनकुटी मैं करबि सुहाई ॥
तब मोहि कहँ जसि देब रजाई । सोइ करिहउँ रघुबीर दोहाई ॥
सहज सनेह राम लखि तासु । संग लीन्ह गुह हृदय हुलासू ॥
पुनि गुहँ ग्याति बोलि सब लीन्हे । करि परितोषु बिदा तब कीन्हे ॥

दोहा

तब गनपति सिव सुमिरि प्रभु नाइ सुरसरिहि माथ । ì
सखा अनुज सिया सहित बन गवनु कीन्ह रधुनाथ ॥१०४॥

चौपाला

तेहि दिन भयउ बिटप तर बासू । लखन सखाँ सब कीन्ह सुपासू ॥
प्रात प्रातकृत करि रधुसाई । तीरथराजु दीख प्रभु जाई ॥
सचिव सत्य श्रध्दा प्रिय नारी । माधव सरिस मीतु हितकारी ॥
चारि पदारथ भरा भँडारु । पुन्य प्रदेस देस अति चारु ॥
छेत्र अगम गढ़ु गाढ़ सुहावा । सपनेहुँ नहिं प्रतिपच्छिन्ह पावा ॥
सेन सकल तीरथ बर बीरा । कलुष अनीक दलन रनधीरा ॥
संगमु सिंहासनु सुठि सोहा । छत्रु अखयबटु मुनि मनु मोहा ॥
चवँर जमुन अरु गंग तरंगा । देखि होहिं दुख दारिद भंगा ॥

दोहा

सेवहिं सुकृति साधु सुचि पावहिं सब मनकाम।
बंदी बेद पुरान गन कहहिं बिमल गुन ग्राम ॥१०५॥

चौपाला

को कहि सकइ प्रयाग प्रभाऊ । कलुष पुंज कुंजर मृगराऊ ॥
अस तीरथपति देखि सुहावा । सुख सागर रघुबर सुखु पावा ॥
कहि सिय लखनहि सखहि सुनाई । श्रीमुख तीरथराज बड़ाई ॥
करि प्रनामु देखत बन बागा । कहत महातम अति अनुरागा ॥
एहि बिधि आइ बिलोकी बेनी । सुमिरत सकल सुमंगल देनी ॥
मुदित नहाइ कीन्हि सिव सेवा । पुजि जथाबिधि तीरथ देवा ॥
तब प्रभु भरद्वाज पहिं आए । करत दंडवत मुनि उर लाए ॥
मुनि मन मोद न कछु कहि जाइ । ब्रह्मानंद रासि जनु पाई ॥

दोहा

दीन्हि असीस मुनीस उर अति अनंदु अस जानि।
लोचन गोचर सुकृत फल मनहुँ किए बिधि आनि ॥१०६॥

चौपाला

कुसल प्रस्न करि आसन दीन्हे । पूजि प्रेम परिपूरन कीन्हे ॥
कंद मूल फल अंकुर नीके । दिए आनि मुनि मनहुँ अमी के ॥
सीय लखन जन सहित सुहाए । अति रुचि राम मूल फल खाए ॥
भए बिगतश्रम रामु सुखारे । भरव्दाज मृदु बचन उचारे ॥
आजु सुफल तपु तीरथ त्यागू । आजु सुफल जप जोग बिरागू ॥
सफल सकल सुभ साधन साजू । राम तुम्हहि अवलोकत आजू ॥
लाभ अवधि सुख अवधि न दूजी । तुम्हारें दरस आस सब पूजी ॥
अब करि कृपा देहु बर एहू । निज पद सरसिज सहज सनेहू ॥

दोहा

करम बचन मन छाड़ि छलु जब लगि जनु न तुम्हार।
तब लगि सुखु सपनेहुँ नहीं किएँ कोटि उपचार ॥ १०७॥

चौपाला

सुनि मुनि बचन रामु सकुचाने । भाव भगति आनंद अघाने ॥
तब रघुबर मुनि सुजसु सुहावा । कोटि भाँति कहि सबहि सुनावा ॥
सो बड सो सब गुन गन गेहू । जेहि मुनीस तुम्ह आदर देहू ॥
मुनि रघुबीर परसपर नवहीं । बचन अगोचर सुखु अनुभवहीं ॥
यह सुधि पाइ प्रयाग निवासी । बटु तापस मुनि सिद्ध उदासी ॥
भरद्वाज आश्रम सब आए । देखन दसरथ सुअन सुहाए ॥
राम प्रनाम कीन्ह सब काहू । मुदित भए लहि लोयन लाहू ॥
देहिं असीस परम सुखु पाई । फिरे सराहत सुंदरताई ॥

दोहा

राम कीन्ह बिश्राम निसि प्रात प्रयाग नहाइ।
चले सहित सिय लखन जन मुददित मुनिहि सिरु नाइ ॥१०८॥

चौपाला

राम सप्रेम कहेउ मुनि पाहीं । नाथ कहिअ हम केहि मग जाहीं ॥
मुनि मन बिहसि राम सन कहहीं । सुगम सकल मग तुम्ह कहुँ अहहीं ॥
साथ लागि मुनि सिष्य बोलाए । सुनि मन मुदित पचासक आए ॥
सबन्हि राम पर प्रेम अपारा । सकल कहहि मगु दीख हमारा ॥
मुनि बटु चारि संग तब दीन्हे । जिन्ह बहु जनम सुकृत सब कीन्हे ॥
करि प्रनामु रिषि आयसु पाई । प्रमुदित हृदयँ चले रघुराई ॥
ग्राम निकट जब निकसहि जाई । देखहि दरसु नारि नर धाई ॥
होहि सनाथ जनम फलु पाई । फिरहि दुखित मनु संग पठाई ॥

दोहा

बिदा किए बटु बिनय करि फिरे पाइ मन काम।
उतरि नहाए जमुन जल जो सरीर सम स्याम ॥१०९॥

चौपाला

सुनत तीरवासी नर नारी । धाए निज निज काज बिसारी ॥
लखन राम सिय सुन्दरताई । देखि करहिं निज भाग्य बड़ाई ॥
अति लालसा बसहिं मन माहीं । नाउँ गाउँ बूझत सकुचाहीं ॥
जे तिन्ह महुँ बयबिरिध सयाने । तिन्ह करि जुगुति रामु पहिचाने ॥
सकल कथा तिन्ह सबहि सुनाई । बनहि चले पितु आयसु पाई ॥
सुनि सबिषाद सकल पछिताहीं । रानी रायँ कीन्ह भल नाहीं ॥
तेहि अवसर एक तापसु आवा । तेजपुंज लघुबयस सुहावा ॥
कवि अलखित गति बेषु बिरागी । मन क्रम बचन राम अनुरागी ॥

दोहा

सजल नयन तन पुलकि निज इष्टदेउ पहिचानि।
परेउ दंड जिमि धरनितल दसा न जाइ बखानि ॥११०॥

चौपाला

राम सप्रेम पुलकि उर लावा । परम रंक जनु पारसु पावा ॥
मनहुँ प्रेमु परमारथु दोऊ । मिलत धरे तन कह सबु कोऊ ॥
बहुरि लखन पायन्ह सोइ लागा । लीन्ह उठाइ उमगि अनुरागा ॥
पुनि सिय चरन धूरि धरि सीसा । जननि जानि सिसु दीन्हि असीसा ॥
कीन्ह निषाद दंडवत तेही । मिलेउ मुदित लखि राम सनेही ॥
पिअत नयन पुट रूपु पियूषा । मुदित सुअसनु पाइ जिमि भूखा ॥
ते पितु मातु कहहु सखि कैसे । जिन्ह पठए बन बालक ऐसे ॥
राम लखन सिय रूपु निहारी । होहिं सनेह बिकल नर नारी ॥

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