बरसात और आजादी

पानी बरसता रहा
मै तरसता रहा ,
भीगने की चाह  में ।
चाह पूरी नहीं हुई 
कई अड़चने थी रह मे ।
हल्की फुहार
तेज होती गई
देख के गुलामी अपनी
आखे मेरी रोती रही ।
अपनी चाह तो 
पूरी करता है बादल बरसकर ।
लेकिन कई बंधन हैं
दुनिया के मुझ पर ।
टप - टप बरस के पानी
दिल के जख्मो को 
हरा करता रहा ।
बन्धनों से आजाद होने की
कोशिश में करता रहा ।
बरस के बरसात 
हुई बंद  ।
लेकिन में अभी भी हु
इस दुनिया में नजरबन्द ।।
     

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