ग़जल
मेरे जहन में रुकी रही यादें तेरी,
जब तक इस जिस्म में जान थी।
दर दर पर दुआ मांगी तेरे वास्ते,
पर करू क्या किस्मत मेरी खुदा से अनजान थी।
अरे अब तो टूटी दीवारे ही रह गई है इस मक़ान मे,
कोई क्या जाने कभी छत भी इसकी शान थी।
कभी फक्र किया करता था मेरी मोहब्बत और महबूबा पर,
क्या पता की ये महबूबा दो दिन की मेहमान थी।
यु तो मेने सब कुछ लुटा दिया था उस हुस्न मलिका पर ,
पर में करता क्या उसकी तो बेवफाई से पहचान थी।
यु तो हम उम्र भर जीते रहे इमान के साथ,
पर क्या पता हमें की ये दुनिया ही बईमान थी ।
यारो अपने अंदाज़ में हमने ज़िन्दगी जी ली
पर भूल गए की आखिरी मंजिल तो शमशान थी।
अब तो बेचैनी की बू आती है, इस फिजा से,
हमें क्या पता की वो अपने कद्रदानो से ही परेशान थी।
अरे आँखे मलता ही रह गया दिनेश ,
आंधी सी आई और पल भर में तुफान थी ।
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