गीता के पढ़नेवालों को प्राय: अनेक बातों की पुनरुक्ति मिलती है और कभी-कभी तो तबीअत ऊब जाती है कि यह क्या पिष्टपेषण हो रहा। मगर कई कारणों से यह बात अनिवार्य थी। एक तो गहन विषयों का विवेचन ठहरा। यदि एक ही बार कह के छोड़ दिया जाए तो क्या यह संभव है कि सुनने वाले के दिमाग में वह बातें बैठ जाएगी? हमने तो ताजी से ताजी अंग्रेजी की किताबों में देखा है कि कठिन बातों को लेकर उन्हें बीसियों बार दुहराते हैं। यह दूसरी बात है कि अनेक ढंग से वही बातें कहके ही दुहराते हैं। गीता में भी एक ही बात प्रकारांतर और शब्दांतर में ही कही गई है, यह तो निर्विवाद है। अतएव गीता के उपदेश - गीताधर्म - की गहनता का खयाल करके पुनरावृत्ति उचित ही मानी जानी चाहिए।

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