मार्क्सै तो भौतिकवादी इसी मानी में है कि इस संसार के छोटे-बड़े सभी कामों में वह किसी भी भगवान या दैवी-शक्ति का हाथ नहीं देखता। उसने तो इसके सभी कामों के बाकायदा चलाने की ताकत इसी दुनिया में, यहीं के पदार्थों में देख ली है। हम चाहे सो भी जाएँ। मगर वह ताकत, जिसे वह निरी भौतिक ताकत समझता है, बराबर जगी रहती और अपना काम करती जाती है। उसे तो जरा भी विराम नहीं है, जरा साँस लेने की फुरसत नहीं है। इसी ताकत का नाम उसने द्वन्द्ववाद रखा है। इसे ताकत कहिए, या भौतिक प्रक्रिया (Material Process) कहिए। यही सब कुछ करती है। मार्क्सइ इस दुनिया के निर्माण-संबंधी दार्शनिक विचारों में इससे आगे नहीं जाता, नहीं जा सकता है। उसके मत में इससे आगे जाने की जरूरत हई नहीं। हमारा काम तो इतने से ही बखूबी चल जाता है, चल जाएगा। बल्कि वह तो यहाँ तक कहता है कि आगे जाने में खतरा है और सारा गुड़ गोबर हो जाएगा - हमारे काम ही चौपट हो जाएँगे। यही है संक्षेप में मार्क्सह का द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद या भौतिक द्वन्द्ववाद (Dialectical Materialism)।

इस सिद्धांत के अनुसार संसार के पदार्थों में बराबर संघर्ष (द्वन्द्व) चलता रहता है, जिसे हलचल, संग्राम, युद्ध या जीवन संग्राम (Struggle for Existence) भी कहते हैं। इससे कमजोर पक्ष हारता और जबर्दस्त जीतता है; दुर्बल खत्म हो जाते, मिट जाते और प्रबल जम जाते हैं। इसे ही डार्विन का विकासवाद भी कहते हैं। इस दुनिया में जो लोग साधन संपन्न, कुशल और चौकन्ने हैं वही रह पाते और आगे बढ़ते हैं। विपरीत इसके जो ढीले, आगा-पीछा करने वाले, असहाय, भोंदू हैं वे मिट जाते हैं। इस निरंतर चलने वाले (सतत) संग्राम के फलस्वरूप ही संसार की प्रगति होती है। यह तो बात मानी हुई है। चाहे ढीले-ढाले और आगा-पीछा वाले खत्म भले ही हो जाएँ और उनके विरोधी भले ही आगे बढ़ जाएँ। मगर इसी के साथ समूचा संसार आगे बढ़ जाता है और इसी में पीछे पड़ जाने वालों या शोषितों के उद्धार की आशा है, गुंजाइश है। यदि केवल विरोधी ही आगे बढ़ते और उन्हीं के साथ बाकी दुनिया नहीं बढ़ती, तो यह बात नहीं होती। परंतु उन्हीं के साथ शोषित जनता भी बढ़ती जाती है। किसानों और मजदूरों को तरह-तरह की चालाकी, जाल तथा उपायों से दबा के पूँजीवादी आगे बढ़े हैं सही। मगर उनकी ही प्रगति के साथ कलकारखाने, उत्पादन के साधन और ज्ञान-विज्ञान भी खूब ही प्रगति कर गए हैं। इन सबों की प्रगति के करते ही पूँजीवादियों की दिक्कतें भी बढ़ गई हैं, उनकी चिंता और परेशानी भी बढ़ गई है। फलत: वे डरने लगे हैं कि कहीं शोषित जनता हमें एकाएक दबा न ले। रूस में तो ऐसा हो भी चुका है। दूसरी जगह भी यह होके ही रहेगा। इसीलिए पूँजीवादियों की घबराहट बढ़ती ही जा रही है। यदि उनके वश की बात होती तो वे उत्पादन वगैरह के साधनों की ऐसी भयंकर प्रगति होने नहीं देते। मगर क्या करें? बेबस हैं। रेशम का कीड़ा अपने ही बनाए कोये में बंद होके मरने पर है!

मार्क्सेवाद शोषितों और पीड़ितों को बताता है कि आँखें खोलो और इस द्वन्द्ववाद में विश्वास करो। इस अटल सत्य को मानो कि तुम्हारा उद्धार इस भौतिक और सांसारिक संघर्षों के चलते ही अवश्यंभावी है। इसमें कोई भी बाहरी हाथ नहीं है। यदि बाहरी हाथ होता तो तुमसे लाख गुना काइयाँ और चलते-पुर्जे, जमींदार-मालदार उस बाहरी हाथ को अपने काबू में करके संसार की ऐसी प्रगति होने ही नहीं देते, जिससे आज उन पर आफत आ बनी है। फिर तुम किस खेत की मूली हो कि उस बाहरी हाथ को अपने पक्ष में करोगे? यदि कोई भगवान ऐसा करने वाला होता तो मालदार सोने और संगमरमर के मंदिर में उसे पधराके और मेवा-मिश्री खिला के - भोग लगा के - जरूर अपने कब्जे में कर लेता। तुम्हारे सत्तूे की क्या बिसात? इसलिए ये खाम खयाल छोड़ के भौतिक द्वन्द्ववाद पर ही विश्वास करो।

मार्क्सह यहीं पर यह भी कहता है कि देखो, पूँजीवादी और जमींदार - तुम्हारे शोषक - बड़े काइयाँ हैं। उनने तुम्हारे लिए अनेक जाल फैलाए हैं। भगवान और धर्म का कोई भी ताल्लुक इस भौतिक कारबार से नहीं होने पर भी उनने इन्हें खड़ा करी तो दिया। यह देखो, इन्हीं के नाम पर तुम्हें ठगते आ रहे हैं, ठगने चले हैं! और ये पंडित, मौलवी, पादरी, पुरोहित, साधु-फकीर? क्या ये भी ठगते हैं? हाँ, हाँ, जरूर ठगते हैं। ये सबके सब मालदार-जमींदारों के दलाल हैं। इसीलिए तो खाते तुम्हारा और गुण गाते हैं उनका। बड़ी चालाकी से जाल बिछा है। सजग रहो। दूर की कौड़ी लाई गई है। ये गुरु, पीर, पंडित वगैरह तुम्हें धोखा दे रहे हैं और अंत तक धोखा देंगे। इनकी बातों में हर्गिज न पड़ो। तुम जो अपने उद्धार के लिए कटिबद्ध हो रहे हो और द्वन्द्ववाद के चलते जो तुम्हारे उद्धार का सामान प्रस्तुत हो गया है उसी से घबरा के मालदारों ने ये जाल खड़े किए हैं; ताकि भाग्य और भगवान के फेर में पड़ के तुम अपने यत्न में शिथिल हो जाओ, उससे मुँह मोड़ लो और मालदार-जमींदारों के घर घी के चिराग जलें। फिर तो इन गुरु-पुरोहितों और पादरी-मौलवियों को वे लोग भरपूर विदाई देंगे!

मार्क्सि और भी कहता है कि द्वन्द्ववाद और कुछ नहीं, केवल वर्गसंघर्ष है। एक वर्ग दूसरे को कल, बल, छल से दबा के, मिटा के खुद आगे बढ़ना चाहता है। मठ, मंदिर, तीर्थ, हज्ज, पोथी, पुराण इसी वर्गसंघर्ष की सफलता के साधन हैं। मालदार-जमींदार तुम्हारे वेतन में एक पैसा नहीं बढ़ाते, तुम्हारी दवा का प्रबंध नहीं करते और न लगान में ही कमी करते हैं। मगर मंदिरों और तीर्थों में लाखों रुपये फूँकते हैं! क्यों? वही पैसे तुम्हें क्यों नहीं देते? कल-कारखाने तुम्हीं चलाते हो न? खेतीबारी करके उनके लिए गेहूँ-मलाई तुम्हीं उपजाते हो न? या कि ये मठ, मंदिर और तीर्थ वगैरह? फिर तुम्हें पैसे न देके उन्हें वे लोग क्यों देते हैं? सोचो। तुम्हें देने से तुम्हारी हिम्मत बढ़ेगी और आगे फिर भी माँगें पेश करोगे और ये माँगें जब वे पूरा न करेंगे तो उन्हें मिटाने चलोगे। मगर मंदिरों और तीर्थों के पैसे तो उन्हें सूद-दर-सूद सहित वापस मिलेंगे। क्योंकि पंडे, पुजारी, साधु-फकीर वगैरह तुम्हें भाग्य और भगवान के नाम पर भड़कायेंगे, गुमराह करेंगे और संघर्ष से विमुख करेंगे! समझा न? यही चाल है। इसमें हर्गिज न पड़ो और लड़ो। यदि तुम्हारा विश्वास हो कि ये साधु-फकीर वगैरह तुम्हारे ही साथी हैं, तो चलो खुल के वर्गसंघर्ष करो और उन्हें भी मदद के लिए बुलाओ। उनसे कह दो कि आइए, मदद कीजिए। अभी तो हमारे पास कुछ है नहीं, तो भी आप लोगों को भरसक अच्छा ही खिलाते-पिलाते हैं। मगर इस संघर्ष में जीत होने पर तो खूब माल चखाएँगे और सुनहले वस्त्र पहनायेंगे, संगमरमर के महल बनवा देंगे। मठ-मंदिर भी वैसे ही सजा देंगे। मगर देखोगे कि वे हर्गिज तुम्हारा साथ न देंगे; हालाँकि उन्हें इसी में लाभ है। साथ दें भी कैसे? वे तो मालदारों के दलाल ठहरे न? वे मजबूर हैं, बँधे हैं। अपना फायदा सोचें या मालिकों का?

इस प्रकार भौतिक बातों में अध्यांत्मवाद और ईश्वर का अड़ंगा खड़ा करके साधु-फकीर और मंदिर-तीर्थवाले संत-महंत मालदारों का पक्ष करते और उनके विरुद्ध शोषितों के द्वारा चलाई जानवाली हक की लड़ाई या वर्गसंघर्ष में बाधक होते हैं, यही बात मार्क्सतवाद के जरिए शोषितों के दिल-दिमाग में बैठा दी जाती है। वे इसे बखूबी समझ के वर्गसंघर्ष से धर्म या ईश्वर के नाम पर नहीं मुड़ते। किंतु उसे अविराम चलाते जाते हैं। इसी वजह से पहले कहा गया है कि हड़ताल के समय नास्तिक-आस्तिक वाली दलबंदी मजदूरों में हर्गिज रहने न दी जाए, होने न दी जाए। पुरोहित या पादरी तो जरूर चाहेगा कि यह दलबंदी जारी रहे। मगर मार्क्सावादी हर्गिज इसे बरदाश्त नहीं करेगा। उसका तो असली लक्ष्य यह लड़ाई ही है। इसी के लिए यह आस्तिक-नास्तिक का झगड़ा भी पहले करता था; ताकि रास्ता साफ हो। मगर जब यह युद्ध चल पड़ा, तो उस झगड़े का क्या काम? उससे तो अब इसमें उलटे बाधा हो सकती है। इसीलिए उसे तिलांजलि दे देता है।

हमने इस लंबे विवेचन से साफ देख लिया कि भौतिक संघर्ष और वर्गयुद्ध में बाधक होने के कारण ही मार्क्सबवाद में धर्म और ईश्वर का विरोध किया गया है। जब और कोई उपाय नहीं चला तो जमींदार-मालदारों ने इसी आखिरी ब्रह्मास्त्र से ही काम लेना शुरू जो कर दिया था। वह आज भी यही करते हैं। यही है धर्म और ईश्वर के विरोध का भौतिक दृष्टि से और द्वन्द्ववाद की दृष्टि से प्रयोग, या यों कहिए कि भौतिक द्वन्द्ववाद की दृष्टि से प्रयोग। इससे स्पष्ट है कि यदि इनके करते वर्गसंघर्ष में कोई भी बाधा न हो तो मार्क्सदवाद इन्हें छुए भी नहीं। इनके साथ कम से कम क्षणिक संधि तो करी ले। बहुत पहले तो यह बात न थी - वर्गसंघर्ष में ये धर्मादि बाधक न थे, या यों कहिए कि वर्गसंघर्ष का यह रूप पहले था ही नहीं। तो फिर वे बाधक होते भी कैसे? इधर कुछ सदियों से ही यह बात हुई है। इसीलिए मार्क्सथवाद में 'वर्तमान' धर्म (Modern Religion) और धर्मसंस्थाओं की ही बात कही गई है और इन्हीं को मालदारों का हथकंडा बता के विरोध किया गया है। मार्क्सम के मत से जब सभी चीजें बदलती हैं तो धर्म भी आज बदला हुआ ही यदि मान लिया जाए तो हर्ज ही क्या? जो भी धर्म वर्गसंघर्ष का जरा भी बाधक हो यदि वह इसी बदले हुए के भीतर ही माना जाए तो इसमें उज्र क्या होगा?

यदि मार्क्सघवाद की दृष्टि धर्म और ईश्वर के संबंध में भौतिक द्वन्द्ववाद की न हो के कोरी सैद्धांतिक होती, तो यह बात नहीं होती। सिद्धांत की दृष्टि का तो यही मतलब है कि बिना किसी प्रयोजन और खयाल के ही हम असलियत एवं वस्तुस्थिति का पता लगाना चाहते हैं। जैसा कि नए-नए ग्रहों का पता लगाते हैं। इसमें कोई खास प्रयोजन तो है नहीं। यह काम तो सृष्टि की असलियत की जानकारी के ही लिए किया जाता है। यह भी नहीं जानते कि इन अनंत ग्रहों और उपग्रहों की कौन-सी जरूरत इस सृष्टि के काम में है। फिर भी इनका और इनकी गति आदि का पता भी लगाते ही हैं। इसके बारे में वाद-विवाद चलता है और पोथी-पोथे भी लिखे जाते हैं। यही है सैद्धांतिक दृष्टि। यदि इस दृष्टि से धर्म और ईश्वर का विरोध मार्क्सइ को इष्ट होता है तो फिर भौतिक द्वन्द्ववाद की बात इस सिलसिले में छेड़ने का प्रश्न ही कहाँ होता ? यह दृष्टि तो ईश्वर के विरोध का प्रयोजन बताती है। अर्थात मार्क्सड किसी खास प्रयोजन से ही उसका विरोध करता है न कि ईश्वर सचमुच हई नहीं, केवल इस सैद्धांतिक दृष्टि से। बल्कि इस सैद्धांतिक दृष्टि का तो वह पक्का विरोधी है। इसमें तो वह अराजकतावाद और अवसरवाद की गंध पाता है। इसीलिए इसका सख्त विरोध भी करता है। क्योंकि ये दोनों वाद मार्क्सगवाद के विरोधी तथा वर्गसंघर्ष के घातक हैं। इससे तो यह भी सिद्ध हो जाता है कि वस्तुत: धर्म या ईश्वर हई नहीं, यह बात मार्क्से या मार्क्सोवाद की नहीं है, इस पचड़े में वह नहीं पड़ता। भौतिक द्वन्द्ववाद की दृष्टि के इस लंबे विचार ने, हमें विश्वास है, मार्क्सदवाद के इस पहलू को काफी साफ कर दिया है।

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