गीता के 'ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव' (13। 4) में बहुत से लोग ब्रह्मसूत्र का शारीरक सूत्र या वेदांतदर्शन के सूत्र यही अर्थ करते हैं। क्योंकि ब्रह्मसूत्र शब्द एक प्रकार से वेदांतसूत्रों का नाम ही है। मगर शंकर ने अपने भाष्य में ऐसा न करके ब्रह्म के प्रतिपादक वचन का ही अर्थ किया है। क्योंकि वेदांतसूत्र के अर्थ करने में एक भारी दिक्कत है। ऐसा अर्थ करने पर गीता से पहले ही वेदांतसूत्रों का अस्तित्व उपनिषदों और वेदों की ही तरह मानना पड़ जाएगा। तभी तो इन सभी का उल्लेख गीता में संभव है। किंतु ऐसा मानने में अड़चन यह है कि ब्रह्मसूत्रों में ही कई जगह स्मृति शब्द से साफ ही गीता का उल्लेख आया है। खासकर 'अंशोनानाव्य-पदेशात्' (वेदां. 2। 3। 43) में जीव को परमात्मा का अंश लिख के उसमें प्रमाणस्वरूप गीता के 'ममैवांशो जीवलोके' (15। 7) का उल्लेख 'अपि च स्मर्यते' (2। 3। 45) सूत्र में स्मृति शब्द से किया है। यहाँ दूसरी स्मृति की संभावना हई नहीं, यह सभी मानते हैं। इसी प्रकार गीता में 'यत्र काले त्वनावृत्तिम' (8। 23-27) में जो उत्तरायण-दक्षिणायन का वर्णन है उसी का उल्लेख 'योगिन: प्रति च स्मर्यते' (4। 2। 21) में आया है। क्योंकि गीता में भी 'आवृत्तिं चैव योगिन:' (8। 23) में यही 'योगिन:' शब्द आया है। इस प्रकार जब गीता का स्पष्ट और असंदिग्ध उल्लेख ब्रह्म-सूत्रों में है; तो मानना पड़ेगा कि ब्रह्म-सूत्रों से पहले ही गीता थी। फिर गीता में ब्रह्म-सूत्रों का उल्लेख कैसे संभव एवं युक्तियुक्त हो सकता है? इसीलिए हमें ब्रह्म-सूत्र का वैसा अर्थ करना पड़ा है।
लेकिन कुछ लोग फिर भी इसे न मान के वेदांत सूत्र ही अर्थ कर डालते हैं। वे इस दिक्कत का सामना करने के लिए दो महाभारत और इसीलिए दो गीताएँ मानते हैं। उनके मत से पहले महाभारत न लिखा जा के भारत ही लिखा गया था। उसी में गीता भी थी। उसी के बाद वेदांत सूत्र बने और उनमें गीता को प्रमाण के रूप में उद्धृत किया गया। इसके बाद समय पाके भारत तखड़-पखड़ और छिन्न-भिन्न हो गया। इसीलिए व्यास ने उसे फिर से एकत्र किया और कुछ इधर-उधर से उसमें जोड़ा-जाड़ा भी। इसी से भारत का अब महाभारत हो गया। आखिर बड़ा होने का कोई कारण भी तो चाहिए और जब तक उसमें कुछ और न जुटता तब तक वह भारत ही न कहा जा के महाभारत क्यों कहा जाता? इस प्रकार तर्क-युक्ति के साथ वे महाभारत का पुनर्निर्माण मानते हैं। या यों कहिए कि भारत में ही संशोधन और संवर्धन करके उसे महाभारत बनाते हैं। गीता भी उसी में थी। इसलिए स्वभावत: उसमें भी जरामरा संशोधन हुआ और यह 'ऋषिभिर्बहुधा' श्लोक उसी संशोधन के फलस्वरूप पीछे से उसमें जुट गया। इस प्रकार यह महाभारत वेदांत-सूत्रों के बाद ही तैयार होने के कारण गीता में वेदांतसूत्रों का उल्लेख 'ब्रह्मसूत्र' शब्द से होने में कोई आपत्ति नहीं हो सकती है। यही है संक्षेप में उनके तर्कों और युक्तियों का निचोड़।
अब प्रश्न यह होता है कि यदि महाभारत को भारत का संशोधित एवं परिवर्द्धित रूप ही मानें और बड़ा होने से ही उसका नाम भी युक्ति-युक्त मानें, तो सामवेद के तांडय महाब्राह्म और पाणिनीय सूत्रों के पातंजल महाभाष्य के बारे में क्या कहा जाएगा? यह तो सभी संस्कृतज्ञ जानते हैं कि सामवेद के ब्राह्मण भाग को अन्य वेदों के ब्राह्मण भागों की तरह केवल तैत्तिरीय ब्राह्मण, वाजसनेय ब्राह्मण आदि जैसा न कह के तांडय महाब्राह्मण कहते हैं। इसी तरह व्याकरण के भाष्य को महाभाष्य ही कहते हैं। इतना बोलने से ही और भाष्यों को न समझ केवल पातंजल भाष्य ही समझा जाता है। तो क्या इसी दलील से यह भी माना जाए कि पहले छोटा-सा तांडय ब्राह्मण और छोटा पातंजल भाष्य बना था, पीछे उन्हीं दोनों का आकार बढ़ाया गया? लेकिन यह तो कोरी कल्पना ही होगी न? कहा जाता है कि आश्वलायन गृह्यसूत्र (3। 4। 4) में भारत और महाभारत दोनों ही का उल्लेख है। इसीलिए इन दो की कल्पना की गई है। मगर तांडय या पातंजल भाष्य के बारे में तो ऐसा कोई आधार नहीं है। यह भी बात है कि भारत एवं महाभारत दो तो मिलते नहीं। महाभारत ही तो मिलता है। और जब उसी में कुछ और जोड़ा गया है तो दो लिखने या कहने के मानी क्या? जब तक जुदे-जुदे पाए न जाएँ, दो कैसे कहे जा सकते हैं? आखिर गृह्यसूत्रों का समय उपनिषदों, ब्राह्मणों या वेदों से पुराना तो है नहीं। फलत: यदि उस समय भारत और महाभारत दोनों थे तो और ग्रंथों की तरह दोनों का पता तो चाहिए आज भी। नहीं तो गीता भी दो क्यों न मानी और लिखी जाए, लिखी जाती? सिर्फ एक सूत्र ग्रंथ में एक शब्द को लिखा या छपा देख के इतनी लंबी उड़ान उचित नहीं। लिखने और छपने में भूल से एक ही नाम, एक ही शब्द दो बार लिख या छप जाते हैं। ऐसा प्राय: देखा जाता है। हाँ, यदि विभिन्न समयों के लिखे और छपे दो-चार सूत्रग्रंथों में ऐसी चीज मिलती, तो शायद कुछ कहा जा सकता था।
यह भी तो जरा सोचें कि महात्मा और महेश्वर शब्द पहुँचे हुए बड़े लोगों या भगवान के लिए प्रयुक्त होते हैं। मगर इसका यह आशय नहीं होता कि खामख्वाह महात्माओं के पहले आत्मा शब्द से भी किसी को कहा जाता था, या भगवान को महेश्वर कहने के पहले जरूर ही औरों को ईश्वर कहते थे। भगवान की सत्ता तो सबसे पहले मानी जाती है। फिर उससे पहले कैसे कोई हुआ? 'मायिनं तु महेश्वरम्' (4। 10) में श्वेताश्वतर उपनिषद ने ब्रह्म को ही महेश्वर कहा है। मगर वहाँ ईश्वर का कोई मुकाबला है नहीं। क्योंकि उसी उपनिषद में और वेदों में भी महेश्वर को ही ईश्वर भी कहा है। आत्मा नाम से न तो किसी को कभी बोलते ही और न यह विशेषण ही किसी में लगाते हैं। स्वभावत: ही महान होने से ही महात्मा या महेश्वर कहने की परिपाटी पड़ गई है। इसी प्रकार तांडय, पातंजल भाष्य और महाभारत को भी स्वभावत: बहुत बड़े होने के कारण ही महाब्राह्मण, महाभाष्य और महाभारत कहने लग गए। यहाँ बाल की खाल खींचने की जरूरत हई नहीं। उसी में उसे कहीं भारत और कहीं महाभारत लिखा है।
जरा यह भी तो सोचें कि भारत में महज थोड़ा-बहुत जोड़ने से ही तो महाभारत होता नहीं। इसके लिए तो जरूर ही बहुत ज्यादा जोड़-जाड़ करना होगा। जहाँ अपेक्षाकृत महत्त्व दिखानी होती है तहाँ पहले से दूसरे में बहुत ज्यादा अंतर का होना अनिवार्य है। जाल और महाजाल इस बात के मोटे दृष्टांत हैं, समुद्र में डाले जाने वाले महाजाल के भीतर जाने कितने ही जाल आसानी से समा सकते हैं, आ सकते हैं। अन्य मारक-बीमारियों की अपेक्षा हैजा या प्लेग को हजार गुना मारक और खतरनाक समझ के ही इन्हें महामारी कहते हैं। ऐसी दशा में भारत की अपेक्षा महाभारत में बहुत ज्यादा - कई गुना - पदार्थ घुसने से ही उसे महाभारत कह सकते थे। फिर तो दोनों की पृथक सत्ता अनिवार्य है। यह असंभव है कि महाभारत के रहते भारत सर्वथा लुप्त हो जाए। वराहमिहिर के वृहज्जातक के रहते लघुजातक कहीं गायब नहीं हो गया। और न मंजूषा के रहते व्याकरण की लघुमंजूषा कहीं चली गई। वराहमिहिर की बृहत्संहिता के मुकाबिले में उनकी कोई लघुसंहिता या केवल संहिता नहीं मानी जाती। महान तथा बृहत का एक ही अर्थ है भी। सबसे बड़ी बात यह हो जाएगी कि गीता में भी तब बहुत ज्यादा परिवर्तन मानना होगा। यह नहीं हो सकता कि जो गीता भारत में थी वही जरा-मरा परिवर्तन के साथ महाभारत में आ गई!
परंतु गीता के बारे में ऐसा कह सकते नहीं। यह इतनी लोकप्रिय रही है कि इसमें एक शब्द का प्रक्षेप होना या मिलाना असंभव हो गया है। तेरहवें अध्यातय में एक श्लोक घुसेड़ने की कोशिश कभी किसी ने की जरूर। लेकिन वह सफल न हो सका। वैदिक मंत्रों, ब्राह्मणों या प्रधान उपनिषदों में जैसे कोई प्रक्षेप होना संभव न हुआ, वही हालत गीता की भी रही है। मालूम होता है, उन्हीं की तरह इसे भी लोग जबान पर ही रखते थे। इसकी भी 'श्रुति' जैसी ही दशा रही है। प्रत्युत इसमें तो और भी विशेषता है कि वेदों और उपनिषदों को प्राय: भूल जाने पर भी इसे लोग भूल न सके। आज भी वैसा ही मानते हैं, पढ़ते-लिखते हैं, कदर करते हैं। जैसा कि पहले करते थे। इसलिए यदि कभी किसी भी हालत में इसमें एक भी शब्द या श्लोक जोड़ा जाता तो खामख्वाह पकड़ा जाता, यह पक्की बात है। किंतु 'ऋषिभिर्बहुधा' श्लोक के बारे में ऐसी धारणा किसी की भी पाई नहीं जाती। यही कारण है कि सात या ज्यादा श्लोकों की छोटी-छोटी गीताओं के थोड़ा-बहुत प्रचार होने पर भी, ऐसी गीता नहीं पाई जाती जिसमें यह 'ऋषिभिर्बहुधा' या ऐसे ही कुछ श्लोक न हों। भारत को ही महाभारत माननेवाले भी तो नहीं बताते कि कितने श्लोक इसमें पीछे जुटे थे। इसलिए यह सिद्धांत मान्य नहीं हो सकता।
एक बात और। छांदोग्य के सातवें अध्यापय में कई बार इतिहास, पुराण आदि का उल्लेख है। इसी प्रकार बृहदारण्यक के दूसरे अध्या्य में भी इतिहास, पुराण, सूत्र, व्याख्यान आदि का उल्लेख चौथे ब्राह्मण में आया है। तो क्या इससे यह समझें कि सचमुच वेदांतसूत्रों की तरह इनसे पहले भी सूत्रग्रंथ और आज के इतिहासों और पुराणों की ही तरह पहले भी इतिहास पुराण थे? क्या पहले भाष्य और व्याख्यान भी ऐसे ही थे यह माना जाए? यह तो सभी मानते हैं कि पुराणों का समय बहुत इधर का है। सूत्रों का समय भी ब्राह्मण ग्रंथों के बाद का ही है। फिर यह कैसे माना जाए कि इस प्रकार आमतौर से सूत्रों और उनके व्याख्यानों का उल्लेख करने मात्र से वे भी ब्राह्मण ग्रंथों से पहले थे? खूबी तो यह है कि जब एक ही तरह का उल्लेख कई उपनिषदों में मिलता है तो मानना ही होगा कि वे सूत्र और व्याख्यान प्रसिद्ध होंगे और ज्यादा संख्या में होंगे। इतिहास-पुराण भी काफी होंगे। ऐसी दशा में इन शब्दों का रूढ़ अर्थ न मान के यौगिक ही मानने में गुजर है। जैसा कि इस श्लोक में हमने ब्रह्मसूत्र शब्द का अर्थ रूढ़ न करके यौगिक ही किया है। दूसरा उपाय हई नहीं। इसलिए हमने जो अर्थ इस श्लोक का लिखा है वह कोई एकाएक नई कल्पना नहीं है। किंतु ऐसी कल्पना पहले भी होती आई है। शंकर ने उसी का अनुसरण किया है। बेशक, यह विषय और भी अधिक विवेचन चाहता है। मगर वह यहाँ के लिए नहीं है। किंतु आगे होगा।
लेकिन दो एक ऐसी बातें और भी यहीं कह देना जरूरी है जिनके बारे में विशेष अंवेषण एवं जाँच-पड़ताल की जरूरत नहीं है। सबसे पहली बात यह है यह जानते हुए भी कि ब्रह्मसूत्रों ने गीता को ही प्रमाण-स्वरूप उद्धृत किया है, गीताकार के लिए यह कब संभव था कि उन्हीं ब्रह्म-सूत्रों को प्रमाण के रूप में स्वयं उद्धृत करते? यह तो बिलकुल ही अनहोनी बात है। व्यवहार में तो यह बात कभी देखने में आती नहीं। चाहे कितनी ही महत्त्वपूर्ण और बड़ी पोथी क्यों न हो। मगर ज्यों ही एक बार उसने किसी दूसरी को अपनी बातों के समर्थन में उद्धृत किया कि उसके सामने उसकी अपनी महत्त्व वैसी नहीं रह जाती। फलत: कोई भी समझदार आदमी इस दूसरी के समर्थन में पहली की किसी बात को प्रमाण-स्वरूप पेश नहीं करता, पेश करने की हिम्मत नहीं करता। फिर गीता जैसे महान ग्रंथ में ऐसी बात का होना कथमपि संभव होगा यह कौन माने?
दूसरी बात भी इसी से मिलती-जुलती ही है। जो लोग यह मानते हैं कि ज्ञानोत्तर कर्म करना गीता के मत से अनिवार्य है, जिनके मत से गीता की आवश्यकता ही इसीलिए हुई थी, वही यह भी मानते हैं कि उस समय 'ज्ञानोत्तर कर्म करना अथवा न करना, हर एक की इच्छा पर अवलंबित था, अर्थात वैकल्पिक समझा जाता था' (गीतारह. पृ. 554)। वे इसके संबंध में उन्हीं वेदांतसूत्रों या ब्रह्म-सूत्र (3। 4। 15) को प्रमाण के लिए उद्धृत भी करते हैं। ऐसी दशा में यह बात तो समझ में आ जाती है कि ब्रह्म-सूत्र गीता को अपने समर्थन में उद्धृत कर लें। लेकिन गीता में उन्हीं ब्रह्म-सूत्रों का हवाला कैसे दिया जा सकता है? क्योंकि ज्यों ही यह बात हुई कि गीता पढ़नेवालों की नजर में उन सूत्रों की महत्त्व आ जाएगी। फलत: ऐसे लोग वेदांतसूत्रों की उन बातों पर भी स्वभावत: आकृष्ट होंगे ही जिनमें ज्ञानोत्तर कर्म करना जरूरी नहीं माना गया है। परिणाम क्या होगा? यही न, कि गीता में भी वही चीज मानने की ओर उनकी प्रवृत्ति हो जाएगी? अतएव बड़ी मुसीबत और कठिनाई के बाद गीतारहस्य में जो यह सिद्ध करने की कोशिश की गई है कि ज्ञानोत्तर कर्म करते-करते ही मरना गीताधर्म और गीतोपदेश है, उसकी जड़ में ही इस प्रकार कुठाराघात हो जाएगा। जिस बात की पुष्टि के लिए यह चीज पेश की गई उसी को कमजोर करने लगेगी! और खुद गीता अपने ही सिद्धांत को दुर्बल करने का रास्ता इस तरह ब्रह्मसूत्र का नाम लेकर साफ कर दे, यह असंभव है।
एक तरफ तो यह कहा जाता है कि महाभारत का तथा उसी के भीतर आ जाने वाली गीता का भी निर्माण 'बुद्ध के जन्म के बाद - परंतु अवतारों में उनकी गणना होने के पहले ही' हुआ होगा। इसीलिए विष्णु के अवतारों में बुद्ध की गणना महाभारत में कहीं पाई नहीं जाती। गीतारहस्य में यह भी माना गया है कि यद्यपि महाभारत के युद्ध के समय भागवत धर्म का उदय हो गया था। तथापि उसकी प्रधान पोथी के रूप में इस गीता की रचना तत्काल न हो के प्राय: पाँच सौ वर्ष बाद हुई होगी। क्योंकि किसी भी सिद्धांत या धर्म के प्रतिपादक ग्रंथ फौरन न बन के पीछे बनते हैं। इसी से पाँच सौ साल इसके लिए मान लिया है। मगर ब्रह्मसूत्रों (2। 2। 18-26) का हवाला दे के उनने यह भी लिखा है कि 'आत्मा या ब्रह्म में से कोई भी नित्य वस्तु जगत के मूल में नहीं है। जो कुछ देख पड़ता है वह क्षणिक या शून्य है,' अथवा 'जो कुछ देख पड़ता है वह ज्ञान है, ज्ञान के अतिरिक्त जगत में कुछ भी नहीं है, इस निरीश्वर तथा अनात्मवादी बौद्ध मत को ही क्षणिकवाद, शून्यवाद और विज्ञानवाद कहते हैं' (गीता र. 580)। भला ये दोनों बातें कैसे संभव होंगी यदि ब्रह्मसूत्रों को गीता के पहले मान लें? क्योंकि बुद्धधर्म के भीतर इन अनेक मतों और पंथों के खड़े होने और उनके ग्रंथों के बनने में तो कई सौ साल लगे ही होंगे और बिना प्रामाणिक बात के केवल मौखिक बातों में तो खंडन ब्रह्मसूत्र जैसा ग्रंथ करता नहीं। इस तरह यदि बुद्ध के बाद पाँच सौ साल भी इन बातों के लिए मान लें तो ब्रह्मसूत्रों का समय सन् ईस्वी के आरंभ में ही माना जाएगा। फिर गीता ने उन्हें कैसे उद्धृत किया या हवाले में दिया?
एक ही बात और। 'सुमंतु जैमिनि वैशंपायन पैल सूत्र भाष्य भारत महाभारत धर्माचार्या:' (3। 4। 4) इसी आश्वलायन गृह्यसूत्र में भारत और महाभारत देख के कल्पना की गई है कि दोनों दो हैं। इस सूत्र मं' पहले जो सुमंतु आदि नाम आए हैं उन्हीं का संबंध भारत महाभारत से जोड़ते हुए उनने लिखा है कि 'इससे, अब यह भी मालूम हो जाता है, कि ऋषितर्पण में भारत महाभारत शब्दों के पहले सुमंतु आदि नाम क्यों रखे गए हैं' (गी. र. 524)। मगर हमें अफसोस है कि ऐसा लिखते समय यह बात उन्हें कैसे नहीं सूझी कि नाम तो चार ही ॠषियों के आए हैं, मगर ग्रंथ हो जाते हैं सूत्र, भाष्य, भारत, महाभारत और धर्म ये पाँच! हाँ, यदि यह मान लें कि भारत अलग न हो के भूल से महाभारत का ही 'भारत महाभारत' ऐसा लिखा गया है, तब ठीक हो सकता है। तभी चार ऋषियों के लिए क्रमश: चार ग्रंथ आ सकते हैं और उन्हीं के आचार्य उन्हें मान सकते हैं। यह तो गीतारहस्य के लेखक भी नहीं मानते कि सभी ने पाँचों ग्रंथ बनाए हैं। यह असंभव भी है। धर्म शब्द शेष ग्रंथों के साथ होने से ग्रंथ का ही वाचक माना जाना भी चाहिए।
इस प्रकार इस विस्तृत विवेचन ने गुणवाद और अद्वैतवाद के सभी पहलुओं पर संक्षेप में ही इतना प्रकाश डाल दिया है कि उनके संबंध की गीता की सभी बातों को समझने में आसानी हो जाएगी। इसके मुतल्लिक गीता की जो खास दृष्टि है - तत्वज्ञान एवं वास्तविक भक्ति में जो गीता की दृष्टि में कोई अंतर नहीं है, किंतु दोनों ही एक ही हैं - इस बात के निरूपण से इस चीज पर पूरा प्रकाश पड़ गया कि अद्वैतवाद और जगन्मिथ्यात्ववाद के विधानात्मक पहलू पर ही गीता का विशेष आग्रह क्यों है?