अब अद्वैतवाद की कुछ बातें भी जान लेने की हैं। गीता का क्या खयाल इस संबंध में है यही बात समझनी है। हालाँकि जब वेदांत के ही अनुकूल चलना गीता के बारे में कह चुके, तो एक प्रकार से उसका अर्थ तो मालूम भी हो गया। फिर भी गीता के वचनों को उद्धृत करके ही यह बात कहने में मजा भी आएगा और लोग मान भी सकेंगे। अद्वैतवाद का अभिप्राय क्या है, वह भी तो कुछ न कुछ कहना ही होगा। क्योंकि सभी लोग आम तौर से क्या जानने गए कि यह क्या बला है?

हमने पहले यह कहा है कि गौतम और कणाद तथा अर्वाचीन दार्शनिक डाल्टन के परमाणुवाद और तन्मूलक आरंभवाद की जगह सांख्य, योग एवं वेदांत तथा अर्वाचीन दार्शनिक डारविन की तरह गीता भी गुणवान तथा तन्मूलक परिणामवाद या विकासवाद को ही मानती है। इस पर प्रश्न हो सकता है कि क्या वेदांत और सांख्य का परिणामवाद एक ही है? या दोनों में कुछ अंतर है? कहने का आशय यह है कि जब दोनों के मौलिक सिद्धांत दो हैं। तो सृष्टि के संबंध में भी दोनों में कुछ तो अंतर होगा ही। और जब वेदांत का मंतव्य अद्वैतवाद है तब वह परिणाम वाद को पूरा-पूरा कैसे मान सकता है? क्योंकि ऐसा होने पर तो गुणों को मान के अनेक पदार्थ स्वीकार करने ही होंगे। फिर एक ही चेतन पदार्थ - आत्मा या ब्रह्म - को स्वीकार करने का वेदांत का सिद्धांत कैसे रह सकेगा? यदि सभी गुणों को और उनसे होने वाले पदार्थों को प्रकृति से जुदा न भी मानें - क्योंकि सभी तो प्रकृति के ही प्रसार या परिणाम ही माने जाते हैं - और इस प्रकार जड़ पदार्थों की एकता या अद्वैत (Monism) मान भी लें, जिसे जड़ाद्वैत (Material monism) कहते हैं; साथ ही आत्मा एवं ब्रह्म की एकता के द्वारा चेतनाद्वैत (Spiritual monism) भी मान लें, तो भी जड़ और चेतन ये दो तो रही जाएँगे। फिर तो द्वित्व या द्वैत - दो - होने से द्वैतवाद ही होगा, न कि अद्वैतवाद। वह तो तभी होगा जब द्वित्व - दो चीज - न हो। अद्वैत का तो अर्थ ही है द्वैत या दो का न होना।

असल में वेदांत का अद्वैतवाद परिणाम और विवर्त्तवाद को मानता है। अद्वैतवाद को विकासवाद या परिणामवाद से विरोध नहीं है, यदि उसकी जड़ में विवर्त्तवाद हो। इसका मतलब यह है कि अद्वैतवादी मानते हैं कि यह दृश्य जगत ब्रह्म या परमात्मा, जिसे ही आत्मा भी कहते हैं, में आरोपित है, कल्पित है; यह कोई वास्तविक वस्तु है नहीं। इसकी कल्पना, इसका आरोप ब्रह्म में उसी तरह किया गया है जैसे रस्सी में साँप की कल्पना अँधरे में हो जाती है। या यों कहिए कि नींद की दशा में मनुष्य अपना ही सिर कटता देखता है, या कलकत्ता, दिल्ली आदि की सफर करता है। यह आरोप ही तो है, कल्पना ही तो है। इसी को अभास भी कहते हैं। किसी पदार्थ में एक दूसरे पदार्थ की झूठी कल्पना करने को ही अभास कहते हैं। रस्सी में साँप तो है नहीं। मगर उसी की कल्पना अँधरे में करते और डर के भागते हैं। सोने के समय अपना सिर तो कटता नहीं फिर भी कटता नजर आता है। बिस्तर पर घर में पड़े हैं। फिर कलकत्ता या दिल्ली कैसे चले गए? मगर साफ ही मालूम होता है कि वहाँ गए हैं भर पेट खा के पलंग पर सोए हैं। मगर सपना देखते हैं कि भूखों दर-दर मारे फिरते हैं! सुंदर वस्त्र पहने सोए हैं। मगर नंगे या चिथड़े लपेटे जाने कहाँ-कहाँ भटकते मालूम होते हैं! यही अध्यास है। इसी को आरोप, कल्पना आदि नाम देते हैं। इसे भ्रम या भ्रांति भी कहते हैं। मिथ्या ज्ञान और मिथ्या कल्पना भी इसको ही कहा है। अद्वैतवादी कहते हैं कि ब्रह्म में इस समूचे संसार का - स्वर्ग-नरकादि सभी के साथ - अभास है, आरोप है। जैसे सपने में सिर कटना, भूखों चिथड़े लपेटे मारे फिरना आदि सभी बातें मिथ्या हैं, झूठी हैं; ठीक वैसे ही यह समूचे संसार-का नजारा झूठा ही ब्रह्म में दीख रहा है। इसमें तथ्य का लेश भी नहीं है। यह सरासर झूठा है। असत्य है। केवल ब्रह्म या आत्मा ही सत्य है। ब्रह्म और आत्मा तो एक ही के दो नाम हैं - 'ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैवनापर:।'

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