यही कारण है कि ब्रह्म में माया का संबंध अनादि मानते हैं। इस संबंध का ऐसा श्रीगणेश यदि कभी माना जाए तो यह सवाल हो सकता है कि ऐसा क्यों हुआ? मगर इसका श्रीगणेश, इसकी इब्तदा, इसका आरंभ (beginning) तो मानते ही नहीं। इसे तो अनादि कहते हैं। अनादि का तो मतलब ही है कि जिसकी आदि, जिसका श्रीगणेश हुआ न हो। फिर तो सारी शंकाओं की बुनियाद ही चली गई। संसार में अनादि चीजें तो हईं। यह कोई नई या निराली कल्पना केवल माया के ही बारे में तो है नहीं। यदि किसी से पूछा जाए कि आम का वृक्ष पहले-पहल हुआ या उसकी गुठली हुई? पहले वृक्ष हुआ या बीज? तो क्या उत्तर मिलेगा? दो में एक भी नहीं कह के यही कहना पड़ेगा कि बीज और वृक्ष की परंपरा अनादि है। अक्ल में तो यह बात आती नहीं कि पहले बीज कहें या वृक्ष; क्योंकि वृक्ष कहने पर फौरन सवाल होगा कि वह तो बीज से ही होता है। इसलिए उससे पहले बीज जरूर रहा होगा। और अगर पहले बीज ही मानें, तो फौरन ही वृक्ष की बात आ जाएगी। क्योंकि बीज तो वृक्ष से ही होता है। कब, क्या हुआ यह देखनेवाले हम तो थे नहीं। हमें तो अभी जो चीजें हैं उन्हीं को देख के इनके पहले क्या था यही ढूँढ़ना है और यही बात हम करते भी हैं। मगर ऐसा करने में कहीं ठिकाना नहीं लगता और पीछे बढ़ते ही चले जाते हैं। यही तो है अनादिता की बात। इसी प्रकार जगत और ब्रह्म के संबंध में माया की कल्पना करने में भी हमें अनादिता की शरण लेनी ही पड़ती है। हमारे लिए कोई चारा है नहीं। दूसरी चीज मानने या दूसरा रास्ता पकड़ने में हम आफत में पड़ जाएँगे और निकल न सकेंगे। हमें तो वर्तमान को देख के पीछे की बातें सोचनी हैं, उनकी कल्पना करनी है, जिससे वर्तमान काम चल सके, निभ सके। जो चाहें मान सकते नहीं। यही तो हमारी परेशानी है, यही तो हमारी सीमा (Limitation) है। किया क्या जाए? इसीलिए मीमांसादर्शन के श्लोकवार्त्तिक में कुमारिल को कहना पड़ा कि हम तो सिर्फ इतना ही कर सकते हैं कि दुनिया की वर्तमान व्यवस्था के बारे में यदि कोई शक-शुबहा हो तो तर्कदलील से उसे दूर करके अड़चन हटा दें। हम ऐसा तो हर्गिज कर नहीं सकते कि बेसिर-पैर की बातें मान के वर्तमान व्यवस्था के प्रतिकूल जाएँ - 'सिद्धानुगममात्रं हि कर्त्तुं युक्तं परीक्षकै:। न सर्वलोकसिद्धस्य लक्षणेन निवर्त्तनम' (1। 1। 4। 133)।