अरजनाने कहा - पृथिवीपते ! आपके अधिक कहनेसे क्या लाभ ? ( थोड़ेमें समझ लीजिये कि पिताके ) शापसे आपकी और अपनी रक्षा करती हुई ( ही ) मैं अपनेको आपके लिये समर्पित नहीं करुँगी ॥१॥
प्रह्लादने कहा - कामसे अंधे हुए उस मूर्खने इस प्रकार विवाद ( निषेध ) करती हुई श्रेष्ठ भार्गव कुलमें प्रसूत उस कन्याको हठात् अपावन ( ध्वस्तशील ) कर दिया । मदसे अंधा बना हुआ वह चरित्रसे च्युत हो करके उस आश्रममे बाहर निकलकर अपने नगर चला गया । उसके बाद रजसे लपटायी वह कृशाङ्गी शुक्रपुत्री अरजा भी आश्रमसे बाहर निकलकर नीचे मुख लटकाये बैठ गयी । राहुसे पीड़ित चन्द्र - प्रिया रोहिणीके समान वह अपने पिताका चिन्तन करती हुई बारम्बार ( बिलखबिलखकर ) रोने लगी ॥२ - ५॥
उसके बाद जब बहुत तिथिवाला समय बीत गया और यज्ञ समाप्त हो गया तब शुक्रमुनि पातालसे अपने आश्रममें आये । दैत्य ! उन्होंने आश्रमसे बाहर आकाशमें सन्ध्याके समय लालिमासे रञ्जित मेघमालाकी तरह धूलसे लिपटी हुई अपनी पुत्रीको देखा । उसे देखकर उन्होंने पूछा - पुत्रि ! किसने तुम्हारा धर्षण ( अपमान ) किया है ? क्रोधभरे साँपसे कौन खेल कर रहा है ? पवित्र आचरणवाली तुम्हें शीलसे च्युत कर कौन दुर्बुद्धि पापी आज ही यमपुरी जानेवाला है ? उसके बाद अपने पिताको देखकर बारम्बार काँपती, रोती एवं लजाती हुई अरजाने धीरे - धीरे कहा ॥६ - १०॥ 
बार - बार बरजनेपर भी आपके शिष्य दण्डने रोती हुई मुझ अनाथाको बलपूर्वक निन्दनीया बना दिया है - हमारा शीलभ्रंश कर दिया है । कन्याकी इस बातको सुनकर शुक्राचार्यकी आँखें क्रोधसे अत्यन्त लाल हो गयीं । उन्होंने आचमन करके शुद्ध होकर यह ( शाप ) वचन कहा - यत; उस उद्दण्डने मुझसे प्राप्त उत्तम उभय एवं गौरवको तिरस्कृतकर अरजाको धर्मसे च्युत किया है, अतः वह सात रात्रियों ( दिनों ) - में उपलवृष्टिके कारण राष्ट्र, सेना, भृत्य एवं वाहनोंसहित विनष्ट हो जायगा - हो जाय ॥११ - १४॥ 
उन मुनिश्रेष्ठने ऐसा कहकर दण्डको शाप देनेके बाद अपनी पुत्रीसे कहा - पुत्रि ! कल्याणि ! पापसे छुटकारा पानेके लिये तुम तपस्या करती हुई यहीं रहो । भगवान् शुक्र इक्ष्वाकुनन्दन दण्डको इस प्रकार शाप देकर शिष्यके साथ दानवोंके निवास - स्थान पाताललोकमें चले गये । उसके बाद दण्ड भी बहुत बड़ी उपलवृष्टिके कारण सात रात्रियोंके भीतर ही अपने राष्ट्र, सेना और वाहनोंके साथ नष्ट हो गया । यही कारण है कि देवताओंने दण्डकारण्यको छोड़ दिया और शम्भुने उसे राक्षसोंका स्थान बना दिया ॥१५ - १८॥ 
इस प्रकार ( जैसा कि ऊपर वर्णित है ) परनारियाँ ( अपनेको अपवित्र करनेवाले ) पुण्यात्माओंको भी जलाकर राख ( नष्ट ) कर देती हैं, फिर साधारण मनुष्य तो बहुत बड़ा तिरस्कार प्राप्त करते हैं । अतः अन्धक ! आपको ऐसी दुर्बुद्धि नहीं करनी चाहिये । साधारण स्त्री भी जला सकती है तो पार्वतीका क्या कहना । दैत्येश्वर ! सुर या असुर कोई भी महादेवको नहीं जीत सकता । जब रणमें अत्याधिक ओजसे सम्पन्न शंकरको देखा भी नहीं जा सकता तब उनसे युद्ध करना कैसे सम्भव है ॥१९ - २१॥ 
पुलस्त्यजी बोले - ऐसा वचन कहनेपर क्रुद्ध एवं लाल - लाल आँखें किये हुए महातेजस्वी अन्धकासुरने लंबी साँस लेते हुए प्रह्लादसे कहा - असुर ! क्या शरीरपर राख लपेटे, ( किंतु, लोक ) धर्मसे रहित अकेला वह त्रिनयन लड़ाईके मैदानमें मुझसे युद्ध कर सकता है ? जो अन्धक इद्र या ( अन्य ) देवताओंसे कभी नहीं डरता वह बैलकी सवारी करनेवाले तथा स्त्रीका मुख निहारनेवाले त्रिनेत्र ( शंकर ) - से कैस्से डर सकता है ? नारद ! उसके उस कठोर वचनको सुनकर प्रह्लादने कहा - आप यह उचित नहीं कह रहे हैं । आपका कहना धर्म एवं अर्थके विपरीत हैं ॥२२ - २५॥ 
अन्धक ! अग्नि और जुगनू, सिंह और सियार, गजेन्द्र और मशक तथा सोने और पत्थरमें जितना अन्तर कहा जाता है, उतना ही अन्तर आप और शङ्करकी तुलनामें है । वीर ! आपको मैंने रोका है और ( अब भी ) बार - बार रोक रहा हूँ । आप देवर्षि असितका वचन सुनें - जो व्यक्ति धर्मनिष्ठ, अभिमान और क्रोधको जीतनेवाला, विद्यासे विनम्र, किसीको दुःख न देनेवाला, अपनी पत्नीमें सन्तुष्ट तथा परस्त्रीका त्याग करनेवाला होता है, उसे संसारमें कोई भय नहीं होता ॥२६ - २९॥ 
जो व्यक्ति धर्मसे हीन, कलहसे प्रेम रखनेवाला, सदा दूसरोंको दुःख देनेवाला, वेद - शास्त्र ( - के अध्ययन ) - से रहित, दूसरेके धन और दूसरेकी स्त्रीकी इच्छा रखनेवाला तथा भिन्न वर्णके साथ सम्बन्ध करनेवाला होता है, वह इस लोक और परलोकमें सुख नहीं पा सकता । भगवान् सूर्य धर्मसे युक्त थे, महर्षि वारुणिने ( वसिष्ठने ) क्रोध छोड़ दिया था, सूर्यपुत्र मनु विद्यावान् थे और अगस्त्य ऋषि अपनी पत्नीमें सन्तुष्ट थे । मैंने कुलके क्रमानुसार इन पुण्य करनेवालोंका उल्लेख किया है । शाप और वर देनेमें समर्थ ये सभी तेजस्वीलोग देवताओं और सिद्धोंके पूज्य हुए । अङ्गपुत्र ( वेन ) अधार्मिक और शक्तिशाली तथा नित्य कलहप्रिय था । दुरात्मा नमुचि परसंतापी एवं राजा नहुष परस्त्रीपर अधिकार प्राप्त करना चाहता था ॥३० - ३३॥
दितिका पुत्र हिरण्याक्ष परधनका लालची था । उसका छोटा भाई दुर्बुद्धि एवं मूर्ख था तथा पराक्रमी यदु भिन्न जातिके साथ सम्बन्ध करनेवाला था । ये सभी पूर्वकालमें दुर्नीतिके कारण नष्ट हो गये । इसलिये धर्मको नहीं छोड़ना चाहिये; क्योंकि धर्म ही उत्तम गति है । धर्मसे हीन मनुष्य महान् रौरव नरकमें जाते हैं । पूर्वजोंने धर्मको ही परलोकको पार करनेवाला बताया है तथा अधर्मको इस लोक और परलोकमें पतनका हेतु बताया है । धर्मनिष्ठ व्यक्तियोंको परस्त्रीका सेवन करना सदैव वर्जनीय बताया है यतः परस्त्रियाँ इक्कीस नरकोंमें ले जाती हैं । अन्धक ! सभी वर्णोंके लिये यह निश्चित धर्म है ॥३४ - ३७॥
जो मनुष्य दूसरेके धन और दुसरेकी स्त्रीमें कामना करता है, वह बहुत वर्षोंके लिये भयंकर रौरव नरकमें चला जाता है । राक्षसराज ! प्राचीन समयमें महात्मा देवर्षि असितने गरुड़ तथा अरुणसे धर्मकी यह व्यवस्था कही थी । इसलिये विद्वान् व्यक्ति दूसरी स्त्रियोंको दूरसे ही परित्याग कर दे; क्योंकि परस्त्रियाँ नीच बुद्धिवाले मनुष्योंको तिरस्कृत करा देती हैं ॥३८ - ४०॥ 
पुलस्त्यजी बोले - इस प्रकारका वचन कहनेपर अन्धकने प्रह्लादसे कहा कि आप अकेले धर्मनिष्ठ हैं । मैं धर्मका व्यवहार नहीं करता । प्रह्लादसे इस प्रकार कहकर अन्धकने शम्बरसे कहा - शम्बर ! तुम मन्दर पर्वतपर जाओ और शंकरसे कहो - भिक्षुक ! तुम गुफामें रहनेवाले होकर और सबके समान मन्दर पर्वतका उपभोग क्यों कर रहे हो ? मुझे बतलाओ कि तुमको इसे किसने दे दिया है ? इन्द्र आदि देवता मेरा शासन मानते हैं । तुम मेरा अपमान करके इस मन्दर पर्वतपर कैसे रह रहे हो ? ॥४१ - ४४॥ 
यदि यह पर्वतराज तुम्हें अभीष्ट है तो मेरे कहनेके अनुसार कार्य करो । तुम्हारी जो यह स्त्री है, उसे मुझे शीघ्र दे दो । उसके ऐसा कहनेपर शम्बर शीघ्रतासे उस मन्दर पर्वतपर गया, जहाँ पिनाकपाणि शंकर देवीके साथ निवास कर रहे थे । दनुपुत्रने वहाँ जाकर अन्धकके वचनको ज्यों - का - त्यों कहा । शङ्करने पर्वतनन्दिनीके सुनते हुए उसे उत्तर दिया । बुद्धिमान् इन्द्रने मुझे यह मन्दर पर्वत दिया है । इसलिये वृत्रासुरके वैरी इन्द्रकी आज्ञाके बिना मैं इसे नहीं छोड़ सकता ॥४५ - ४८॥ 
दानवने जो यह कहा कि गिरिनन्दिनीको मुझे दे दो, तो ये अपनी इच्छासे जा सकती हैं । मैं इन्हें नहीं रोक सकता । मुनिसत्तम ! उसके बाद गिरिपुत्री पार्वतीने शम्बरसे कहा - वीर ! तुम जाकर विद्वान् अन्धकसे मेरी बात कहो - संग्राममें मैं तो पताका हूँ । आप और शंकर खेलेनेवाले हैं । प्राणोंका द्यूत फैलाकर ( हार - जीतका दाँव लगाकर ) जो जीतेगा वह मुझे प्राप्त करेगा ! ऐसा कहनेपर बुद्धिमान शम्बर अन्धकके पास गया एवं उसने शंकर तथा गौरीकी कही हुई बातें ( ज्यों - की - त्यों ) उससे कह दीं ॥४९ - ५२॥
उसे सुनकर दानवपतिकी आँखें क्रोधसे जलने लगीं । लंबी साँस लेते हुए दुर्योधनको बुलाकर उसने कहा - महाबाहो ! शीघ्र जाओ एवं मारु या संग्रामके समयमें बजनेवाले जुझाऊ नगाड़ेको ( मस्तीसे ) जोर - जोरसे ऐसे पीटो जैसे दुराचारिणीको कोई ( उसके अपराधके कारण उसका अभिभावक आदि निर्भयतासे ) ताड़ित करता है । उसके बाद अन्धकसे आदेश प्राप्त कर दुर्योधन अत्यन्त बलपूर्वक जी जानसे वेगपूर्वक बजायी जाती हुई वह भेरी सहसा भयंकर ध्वनिमें घरघराने लगी, जिस प्रकार सुरभी घरघराती है ॥५३ - ५६॥
उसकी उस ध्वनिको सुनकर सभी बड़े असुर ‘ यह क्या है ? ’ - ऐसा कहते हुए शीघ्रतासे सभामें आ गये । पराक्रमी सेनापतिने उन सभीसे उचित और सत्य वचन कहा । युद्धकी इच्छा करनेवाले बलवानोंमें श्रेष्ठ वे सभी वीर तैयार हो गये । हाथी, ऊँट, घोड़ों और रथोंसहित वे सभी अन्धकके साथ बाहर निकले । पाँच नल्व - अर्थात् चार सौ ( ४०० ) हाथके प्रमाणवालोए रथपर चढ़कर अन्धक त्रिलोचन शंकरको जीतनेका निश्चय कर बाहर निकला । जम्भ, कुजम्भ, हुण्ड, तुहुण्ड, शम्बर, बलि, बाण, कार्तस्वर, हस्ती, सूर्यशत्रु, महोदर, अयः शंकु, शिबि, शाल्व, वृषपर्वा, विरोचन, हयग्रीव, कालनेमि, संह्लाद, कालनाशन, शरभ, शलभ, पराक्रमी विप्रचिति, दुर्योधन, पाक, विपाक, काल एवं शम्बर - ये सभी तथा अन्य अनेक महापराक्रमशाली एवं महाबलवान् राक्षस भाँति - भाँतिके आयुधोंको लेकर प्रबल इच्छासे संग्राममें लड़नेके लिये चल पड़े । इस प्रकार काल - पाशसे बँधा हुआ वह अल्पमति दनुसैन्यपति दुष्टात्मा अन्धक शंकरसे युद्ध करनेके विचारसे महान् पर्वत मन्दरपर गया ॥५७ - ६४॥
॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें छाछठवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥६६॥
 

Please join our telegram group for more such stories and updates.telegram channel