सनत्कुमारने कहा - उन सभी ऋषियोंने ब्रह्माकी इस वाणीको सुनकर संसारके कल्याणार्थ पुनः उपाय पूछा ॥१॥ 
ब्रह्माने कहा - ( उत्तर दिया ) ( आओ ), हम सभी लोग हाथमें शूल धारण करनेवाले, त्रिनेत्रधारी भगवान् शंकरकी शरणमें चलें । तुम सब लोग उन्हीं देवदेवके प्रसादसे पहले - जैसे हो जाओगे । ब्रह्माके ऐसा कहनेपर वे लोग उनके साथ श्रेष्ठ पर्वत कैलासपर चले गये और वहाँ उन लोगोंने उमा ( पार्वती ) - के साथ बैठे हुए शंकरका दर्शन किया । उसके बाद संसारके पितामह ब्रह्माने देवोंके इष्टदेव, तीनों लोकोंके स्वामी वरदानी भगवान् शंकरकी स्तुति करनी आरम्भ की ॥ २ - ४॥ 
पिनाक धारण करनेवाले वरदानी अनन्त महादेव ! स्थाणुस्वरुप परमात्मदेव ! आपको मेरा नमस्कार है । भुवनोंके स्वामी भुवनेश्वर तारक भगवान् ! आपकी सदा नमस्कार है । पुरुषोत्तम ! आप ज्ञान देनेवाले अद्वितीय देव हैं । आप कमलगर्भ एवं पद्मेश हैं । आपको बारम्बार नमस्कार है । ( प्रचण्ड ) घोर - स्वरुप एवं शान्तिमूर्ति ! आपको नमस्कार है । विश्वके शासकदेव ! आपको नमस्कार है । सुरनायक ! आपको नमस्कार है । शूलपाणि शंकर ! आपको नमस्कार है । ( संसारके रचनेवाले ) विश्वभावन ! आपको मेरा नमस्कार है ॥५ - ८॥
ऋषियों और ब्रह्माने जब इस प्रकार शंकरकी स्तुति की तब महादेव शङ्करने कहा - भय मत करो; जाओ ( तुम लोगोंके कल्याणार्थ ) लिङ्ग फिर भी ( उत्पन्न ) हो जायगा । मेरे वचनका शीघ्र पालन करो । लिङ्गकी प्रतिष्ठा कर देनेपर निस्सन्देह मुझे अत्यन्त प्रसन्नता होगी । जो व्यक्ति भक्तिके साथ मेरे लिङ्गकी पूजा करेंगे उनके लिये कोई भी पदार्थ कभी दुल्रभ न होगा । जानकर किये गये समस्त पापोंकी भी शुद्धि लिङ्गकी पूजा करनेसे हो जाती हैं; इसमें किसी प्रकारका अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये ॥९ - १२॥ 
तुम लोगोंने लिङ्गको गिरा दिया है, इसलिये शीघ्र ही उसे उठाकर प्रसिद्ध महान् सांनिहत्य - सरोवरमें स्थापित करो । ब्राह्मणो ! ऐसा करनेसे तुम लोग अपने इच्छानुकूल मनोरथोंको प्राप्त करोगे । सारे संसारमें उस लिङ्गकी प्रसिद्धि स्थाणु नामसे होगी । देवताओंद्वारा ( भी ) वह पूज्य होगा । वह लिङ्ग स्थाण्वीश्वरमें स्थित रहनेके कारण स्थाण्वीश्वर नामसे स्मरण किया जायगा । जो स्थाण्वीश्वरको सदा स्मरण करेंगे, उनके सारे पाप कट जायँगे और वे पवित्र - देह होकर मोक्षकी प्राप्ति करेंगे । जब शंकरने ऐसा कहा तब ब्रह्माके सहित ऋषिलोग लिङ्गको उस दारुवनसे ले जानेका उद्योग करने लगे । किंतु ऋषियोंसहित वे सभी देवगण उसे हिलाने - डुलानेमें समर्थ न हो सके ॥१३ - १७॥ 
( फिर ) वे बहुत परिश्रम करके शरणमें गये । ब्रह्माने परिश्रमसे श्रान्त - क्लान्त ( संतप्त ) हुए उन लोगोंसे यह वचन कहा - देवताओ ! अत्यन्त कठोर परिश्रम करनेसे क्या लाभ ? तुमलोग इसे उठानेमें समर्थ नहीं हो । देवाधिदेव भगवान् शंकरने अपनी इच्छासे इस लिङ्गको गिराया है । अतः हे देवो ! हम सभी एक साथ उन्हीं भगवान् शंकरकी शरणमें चलें । महादेव सन्तुष्ट होकर अपने - आप ही ( लिङ्गको ) ले जायँगे । इस प्रकार ब्रह्माके कहनेपर सभी ऋषि और देवता ब्रह्माके साथ शंकरजीके दर्शनकी अभिलाषासे कैलासपर्वतपर पहुँचे ॥१८ - २१॥ 
वहाँ उन लोगोंने शंकरजीको नहीं देखा । तब वे चिन्तित हो गये । फिर उन्होंने ब्रह्माजीसे पूछा ( कि ब्रह्मन् ) वे महेश्वरदेव कहाँ हैं ? उसके बाद ब्रह्माने चिरकालतक ध्यान लगाया और देखा कि मुनियोंके अन्तः - करणसे स्तुत महेश्वर देव हाथीके आकारमें स्थित हैं । उसके पश्चात् वे ऋषि और ब्रह्माके सहित सभी देवता उस पावन महान् सरोवरपर गये जहाँ भगवान् शंकर स्वयं उपस्थित थे । वे लोग वहाँ इधर - उधर चारों ओर उन्हें ढूँढ़ने लगे, फिर भी शंकरजीका दर्शन न पा सके । ब्रह्माके साथ दर्शन न पानेके कारण सभी देवता चिन्तित हो गये । उसके बाद उन्होंने कमण्डलुसे सुशोभित देवीको अत्यन्त प्रसन्न देखा । उस समय प्रसन्न होती हुई देवी उनसे यह वचन बोलीं ॥ २२ - २६॥ 
महेश्वरको ढूँढ़ते हुए तुम लोग अत्यन्त श्रान्त हो गये हो । देवो ! तुम सब अमृतका पान करो । तब तुम सब शङ्करको जान सकोगे । भवानीद्वारा कही हुई इस वाणीको सुनकर वे देवता सुखपूर्वक बैठ गये और उन्होंने उस पवित्र अमृतको पी लिया । उसके बाद सुखपूर्वक बैठे हुए उन देवताओंने परमेश्वरीसे पूछा - देवि ! हाथीके रुपको धारण किये हुए भगवान् शंकर देव यहाँ किस स्थानपर आये हुए हैं ? देवताओंके इस प्रकार पूछनेपर देवीने सरोवरके बीचमें स्थित शंकरको उन्हें दिखला दिया । ऋषियोंके साथ सभी देवता उनका दर्शन पाकर हर्षित हो गये और ब्रह्माको आगे कर शंकरजीसे ये वचन बोले ॥ २७ - ३०॥
महेश्वर ! आपने तीनों लोकोंमें वन्दित जिस लिङ्गको छोड़ दिया है, उसे ले आनेमें दुसरे किसीकी शक्ति नहीं है, उसे कोई दूसरा उठा नहीं सकता । इस प्रकार ब्रह्मा आदि देवताओंने जब भगवान् शंकरसे कहा, तब देवदेव शिवजी ऋषियोंके साथ देवदास्त्रवनके आश्रममें चले गये । वहाँ जाकर हाथीका रुप धारण करनेवाले महादेव शिवने खेल - खेलमें ( लिङ्गको ) अपने सूँड़से पकड़कर उठा लिया । शंकरजी महर्षियोंके द्वारा स्तुति किये जाते हुए उस लिङ्गको लाकर सरोवरके पास पश्चिम दिशामें स्थापित कर दिया । उसके बाद सभी देवता एवं तपस्वी ऋषियोंने अपनेको सफल समझा और वे भगवान् शंकरकी स्तुति करने लगे ॥३१ - ३५॥ 
परमात्मन ! अनन्तयोने ! लोकसाक्षिन् ! परमेष्ठिन् ! भगवान् ! सर्वज्ञ ! क्षेत्रज्ञ ! हे पर और अवरके ज्ञाता ! ज्ञानज्ञेय ! सर्वेश्वर ! महाविरिञ्च ! महाविभूते ! महाक्षेत्रज्ञ ! महापुरुष ! हे सब भूतोंके निवास ! मनोनिवास ! आदिदेव ! महादेव ! सदाशिव ! ईशान ! दुर्विज्ञेय ! दुराध्य ! महाभूतेश्वर ! परमेश्वर ! महायोगेश्वर ! त्र्यम्बक ! महायोगीन् ! परब्रह्मन् ! परमज्योति ! ब्रह्मविद् ! उत्तम ! ओंकार ! वषट्कार ! स्वाहाकार ! स्वधाकार ! परमकारण ! सर्वगत ! सर्वदर्शिन् ! सर्वशक्ति ! सर्वदेव ! अज ! सहस्त्रार्चि ! पृषार्चि ! सुधामन् ! हरधाम ! अनन्तधाम ! संवर्त ! संकर्षण ! वडवानल, अग्नि और सोमस्वरुप ! पवित्र ! महापवित्र ! महामेघ ! महामायाधर ! महाकाम ! कामहन् ! हंस ! परमहंस ! महाराजिक ! महेश्वर ! महाकामुक ! महाहंस ! भवक्षयकर ! हे देवों और सिद्धोंसे पूजित ! हिरण्यवाह ! हिरण्यरेता ! हिरण्यनाभ ! हिरण्याग्रकेश ! मुञ्जकेशिन् ! सर्वलोकवरप्रद ! सर्वानुग्रहकर ! कमलेशय ! कुशेशय ! हदयोशय ! ज्ञानोदधे ! शम्ब्भो ! विभो ! महायज्ञा ! महायाज्ञिक ! सर्वज्ञमय ! सर्वयज्ञहदय ! सर्वयज्ञसांस्तुत ! निराश्रय ! समुद्रेशय ! अत्रिसम्भव ! भक्तानुककम्पिन् ! अभग्रयोग ! योगधर ! हे वासुकि और महाणिमसे द्युतिमान् शिव ! हरितनयन ! त्रिलोचन ! जटाधार ! नीलकण्ठ ! चन्द्रार्धधर ! माशीरार्धहर ! गजचर्चधर ! दुस्तरसंसारका महासंहार करनेवाले महाप्रलयंकर शिव ! हमारा आपको नमस्कार है । भक्तजनवत्सल शङ्कर ! आप हम सबपर प्रसन्न हों । 
इस प्रकार पितामह ब्रह्मा आदि श्रेष्ठ देवगणोंके साथ भक्तिपूर्वक स्तुति करनेपर उन माहात्माने हस्तिरुपका त्यागकर लिङ्गमें सन्निधान ( निवास ) कर लिया ॥३६॥ 
॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें चौवालीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥४४॥
 

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