पुलस्त्यजी बोले - इसके बाद महिषद्वारा पराजित देवता अपने - अपने स्थानको छोड़कर पितामहको आगे कर चक्रधारी लक्ष्मीपति विष्णुके दर्शनार्थ अपने वाहनों और आयुधोंको लेकर विष्णुलोक चले गये । वहाँ जाकर उन लोगोंने गरुड़वाहन विष्णु एवं शङ्कर - इन दोनों देवश्रेष्ठोंको एक साथ बैठे देखा । उन दोनों सिद्धि - साधकोंको देखनेके बाद उन लोगोंने उन्हें प्रमाणकर उनसे महिषासुरने अश्विनीकुमार, सूर्य, चन्द्र, वायु, अग्नि, ब्रह्मा, वरुण, इन्द्र आदि सभी देवताओंके अधिकारोंको छीनकर स्वर्गसे निकाल दिया है और अब हमलोग भूलोकमें रहनेको विवश हो गये हैं । हम शरणमें आये देवताओंकी यह बात सुनकर आप दोनों हमारे हितकी बात बतलायें; अन्यथा दानवद्वारा युद्धमें मारे जा रहे हमलोग अब रसातलमें चले जायँगे ॥१ - ४॥ 
शिवजीके साथ ही विष्णुभगवानने ( भी ) उनके इस प्रकारके वचनको सुना तथ दुःखसे व्याकुल चित्तवाले उन देवताओंको देखा तो उनका क्रोध कालाग्रिके समान प्रज्वलित हो गया । उसके बाद मधु नामक राक्षसको मारनेवाले विष्णु, शङ्कर, पितामह ( ब्रह्मा ) तथा इन्द्र आदि देवताओंके क्रोध करनेपर उन सबके मुखसे महान् तेज प्रकट हुआ । मुने ! फिर वह तेजोराशि कात्यायन ऋषिके अनुपम आश्रममें पर्वतश्रृङ्गके समान एकत्र हो गयी । उन महर्षिने भी उस तेजकी और अभिवृद्धि की । उन महर्षिद्वारा उत्पन्न किये गये तेजसे आवृत्त वह तेज हजारों सूर्योंके समान प्रदीप्त हो गया । उसके योगसे विशुद्ध शरीरवाली एवं चञ्चल तथा विशाल नेत्रोंवाली कात्यायनी देवी प्रकट हो गयीं ॥५ - ८॥ 
महादेवजीके तेजसे कात्यायनीका मुख बन गया और अग्निके तेजसे उनके तीन नेत्र प्रकट हो गये । इसी प्रकार यमके तेजसे केश तथा हरिके तेजसे उनकी अठ्ठारह भुजाएँ, चन्द्रमाके तेजसे उनके सटे हुए स्तनयुगल, इन्द्रके तेजसे मध्यभाग तथा वरुणके तेजसे ऊरु, जङ्घाएँ एवं नितम्बोंकी उत्पत्ति हुई । लोकपितामह ब्रह्माके तेजसे कमलकोशके समान उनके दोनों चरण, आदित्योंके तेजसे पैरोंकी अङ्गुलियाँ एवं वसुओंके तेजसे उनके हाथोंकी अङ्गुलियाँ उत्पन्न हुईं । प्रजापतियोंके तेजसे उनके दाँत, यक्षोंके तेजसे नाक, वायुके तेजसे दोनों कान, साध्यके तेजसे कामदेवके धनुषके समान उनकी दोनों भौंहें प्रकट हुई - ॥९ - १२॥
इस प्रकार महर्षियोंका उत्तमोत्तम तथा महान् तेज पृथ्वीपर ' कात्यायनी ' इस नामसे प्रसिद्ध हुआ, तब वे उसी नामसे विश्वमें प्रसिद्ध हुईं । वरदानी शङ्करजीने उन्हें त्रिशूल, मुरके मारनेवाले श्रीकृष्णने चक्र, वरुणने शङ्ख, अग्निने शक्ति, वायुने धनुष तथा सूर्यने अक्षय बाणोंवाले दो तूणीर ( तरकस ) प्रदान किये । इन्द्रने घण्टासहित वज्र, यमने दण्ड, कुबेरने गदा, ब्रह्माने कमण्डलुके साथ रुद्राक्षकी माला तथा कालने उन्हें ढालसहित प्रचण्ड खङ्ग प्रदान किया । चन्द्रमाने चँवरके साथ हार, समुद्रने माला, हिमालयने सिंह, विश्वकर्माने चूड़ामणि, कुण्डल, अर्धचन्द्र, कुठार तथा पर्याप्त ऐश्वर्य प्रदान किया ॥१३ - १६॥ 
गन्धर्वराजने उनके अनुरुप रजतका पूर्ण पान ( मद्य ) - पात्र, नागराजने भुजङ्गहार तथा ऋतुओंने कभी न कुम्हिलानेवाले पुष्पोंकी माला प्रदान की । उसके बाद श्रेष्ठ देवताओंके ऊपर अत्यन्त प्रसन्न होकर त्रिनेत्रा ( कात्यायनी ) - ने उच्च अट्टहास किया । इन्द्र, विष्णु, रुद्र, चन्द्रमा, वायु, अग्नि तथा सूर्य आदि श्रेष्ठ देव उनकी स्तुति करने लगे - योगसे विशुद्ध देहवाली देवोंसे पूजित देवीको नमस्कार है । वे निद्रारुपसे पृथ्वीमें व्याप्त हैं, वे ही तृष्णा, त्रपा, क्षुधा, भयदा, कान्ति, श्रद्धा, स्मृति, पुष्टि, क्षमा, छाया, शक्ति, लक्ष्मी, वृत्ति, दया, भ्रान्ति तथा माया हैं; ऐसी कल्याणमयी देवीको नमस्कार है ॥१७ - २०॥ 
फिर देववरोंके इस प्रकार प्रार्थना करनेपर वे देवी सिंहपर आरुढ़ होकर विन्ध्य नामके उस ऊँचे श्रृङ्गवाले महान् पर्वतपर गयीं, जिसे अगस्त्य मुनिने अति निम्न कर दिया था ॥२१॥ 
नारदजीने पूछा - शुद्धात्मन् ( पुलस्त्यजी ) ! आप यह बतलायें कि भगवान् अगस्त्यमहर्षिने उस पर्वतको किसके लिये एवं किस कारणसे निम्न श्रृङ्गवाला कर दिया ? ॥२२॥ 
पुलस्त्यजीने कहा - प्राचीनकालमें विन्ध्यपर्वतने ( अपने ऊँचे शिखरोंसे ) आकाशचारी सूर्यकी गतिको अवरुद्ध कर दिया था । तब सूर्यने महर्षि अगस्त्यके पास जाकर होमके अन्तमें यह वचन कहा - द्विज ! मैं बहुत दूरसे आपके पास आया हूँ । मुनिश्रेष्ठ ! आप मेरा उद्धार करें । मुझे अभीष्ट प्रदान करें, जिससे मैं निश्चिन्त होकर आकाशमें विचरण कर सकूँ । इस प्रकार सूर्यके नम्र वचनोंको सुनकर अगस्त्यजी बोले - मैं आपकी अभीष्ट वस्तु प्रदान करुँगा । मेरे पाससे कोई भी याचक विमुख होकर नहीं जाता । अगस्त्यजीकी अमृतमयी वाणी सुन करके सिरपर दोनों हाथ जोड़कर सूर्यने कहा - भगवन् ! यह पर्वतश्रेष्ठ विन्ध्य आज मेरा मार्ग रोक रहा है, अतः आप इसे नीचा करनेका प्रयत्न करें ॥२३ - २६॥
सूर्यकी बात सुनकर अगस्त्यजीने कहा - सूर्यदेव ! विन्ध्यको आप मेरे द्वारा नीचा किया हुआ ही समझें । यह पर्वत आपकी किरणोंसे पराजित हो जायगा । मेरे चरणोंके आश्रय लेनेपर आपको अब व्यथा कैसी ? वृद्ध शरीरवाले महर्षि अगस्त्यजी ऐसा कहकर विनम्रतापूर्वक भक्तिसे सूर्यकी स्तुति करनेके बाद दण्डकको छोड़कर विन्ध्यपर्वतके निकट चले गये । वहाँ जाकर मुनिने पर्वतसे कहा - पर्वतश्रेष्ठ विन्ध्य ! मैं अत्यन्त पवित्र महातीर्थको जा रहा हूँ । मैं वृद्ध होनेसे तुम्हारे ऊपर चढ़नेमें असमर्थ हूँ; अतः तुम तत्काल नीचा हो जाओ । मुनिश्रेष्ठ अगस्त्यके ऐसा कहनेपर विन्ध्य पर्वत निम्न शिखरवाला हो गया । तब महर्षिश्रेष्ठ ( अगस्त्यजी ) - ने विन्ध्यपर्वतपर चढ़कर विन्ध्य को पार कर लिय और तब उससे यह कहा - ॥२७ - ३०॥
मैं जबतक पवित्र तीर्थसे स्नान कर पुनः अपने महान् आश्रममें न लौटूँ, तबतक तुम्हें नहीं बढ़ना चाहिये; अन्यथा अवज्ञा करनेके कारण मैं तुम्हें घोर शाप दे दूँगा । ' मैं उचित समयपर फिर आऊँगा ' - ऐसा कहकर भगवान् अगस्त्य सहसा दक्षिण दिशाकी ओर चले गये तथा वहीं रह गये । मुनिने वहाँ विशुद्ध स्वर्णिम तोरणोंवाले अति रमणीय आश्रमकी रचना की एवं उसमें विदर्भपुत्री लोपामुद्राको रखकर स्वयं अपने आश्रमको चले गये । अत्यन्त प्रकाशमान मुनि ( शरदसे वसन्ततक ) विभिन्न ऋतुओंमें पर्व ( चतुर्दशी, अष्टमी, अमावास्या, पूर्णिमा तिथियों तथा रवि - संक्रान्ति, सूर्यग्रहण एवं चन्द्रग्रहण ) - के समय नित्य आकाशमें और शेष समय दण्डकवनमें अपने आश्रममें निवासकर तप करने लगे ॥३१ - ३४॥ 
विन्ध्यपर्वत भी आकाशमें महान् आश्रमको देखकर महर्षिके भयसे नहीं बढ़ा । वे नहीं लौटे हैं - ऐसा समझकर वह अपना शिखर नीचा किये हुए अब भी वैसे ही स्थित है । हे महर्षे ! इस प्रकार अगस्त्यने महान् पर्वतराज विन्ध्यको नीचा कर दिया । उसीके शिखरके ऊपर मुनियोंद्वारा संस्तुता दुर्गादेवी दानवोंके विनाशके लिये स्थित हुई और देवता, सिद्ध, महानाग, अप्सराओंके सहित विद्याधर एवं समस्त भूतगण इनके बदले कात्यायनीदेवीको प्रसन्न करते हुए निः शोक होकर उनके निकट रहने लगे ॥३५ - ३७॥
॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें अठारहवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥१८॥
 

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