लोमहर्षणने कहा - ( ऋषियो ! ) सप्तसारस्वतके बाद श्रद्धासे युक्त होकर ' औशनस ' तीर्थमें जाना चाहिये, जहाँ शुक्र सिद्धि प्राप्तकर ग्रहत्वको प्राप्त हो गये । उस तीर्थमें स्त्रानकर मनुष्य अनेक जन्मोंमें किये हुए पातकोंसे छूटकर परब्रह्मको प्राप्त करता है, जहाँसे पुनः ( जन्म - मरणके चक्करमें ) लौटना नहीं पड़ता । ( वह तीर्थ ऐसा है ) जहाँ तीर्थ - दर्शनकी महिमासे भारी सिरसे जकड़े हुए रहोदर नामके एक मुनि उससे मुक्त हो गये थे ॥१ - ३॥ 
ऋषियोंने कहा ( पूछा ) - रहोदर मुनि सिरसे ग्रस्त कैसे हो गये थे ? और वे उससे मुक्त कैसे हुए ? हम लोग उस तीर्थके माहात्म्यको आदरके साथ सुनना चाहते हैं ( जिसकी महिमास्से ऐसा हुआ । ) ॥४॥
लोमहर्षणजी बोले - द्विजश्रेष्ठो ! प्राचीन कालमें दण्डकारण्यमें रहते हुए रघुवंशी महात्मा रामचन्द्रने बहुत - से राक्षसोंको मारा था । वहाँ एक दुष्टात्मा राक्षसका सिर तीक्ष्णधारवाले क्षुर नामक बाणसे कटकर उस करते हुए रहोदर मुनिकी जंघामें उनकी हड्डीको तोड़कर उससे चिपट गया । महाप्राज्ञ वे ब्राह्मणदेव ( जंघेकी टूटी हड्डीमें ) उस मस्तकके लग जानेके कारण तीर्थों और देवालयोंमें नहीं जा पाते थे ॥५ - ८॥ 
वे महामुनि दुर्गन्धपूर्ण पीब आदि बहनेके कारण तथा वेदनासे अत्यन्त दुःखी रहते थे । पृथ्वीके जिन - जिन तीर्थोंमें वे गये, वहाँ - वहाँ उन्होंने पवित्रात्मा ऋषियोंसे ( अपना दुःख ) कहा ! ऋषियोंने उन विप्रसे कहा - ब्राह्मणदेव ! आप औशनस ( तीर्थ ) - में जाइये । ( लोमहर्षणने कहा - ) द्विजो ! उनका यह वचन सुनकर रहोदर मुनि वहाँसे औशनसतीर्थमें गये । वहाँ उन्होंने तीर्थ - जलका स्पर्श किया । उनके द्वारा ( जलका ) स्पर्श होते ही वह मस्तक उनसे ( जाँघ ) - को छोड़कर जलमें गिर गया । उसके बाद वे मुनि पापसे रहित निर्मल रजोगुणसे रहित अतएव पवित्रात्मा होकर प्रसन्नतापूर्वक ( अपने ) आश्रममें गये और उन्होंने ( ऋषियोंसे ) सारी आपबीती कह सुनायी । फिर तो उन आये हुए सभी ऋषियोंने औशनसतीर्थके इस उत्तम माहात्म्यको सुनकर उसका नाक ' कपालमोचन ' रख दिया ॥९ - १३॥ 
वहीं ( कपालमोचन तीर्थमें ही ) महामुनि विश्वामित्रका बहुत बड़ा तीर्थ है, जहाँ विश्वामित्रने ब्राह्मणत्वको प्राप्त किया था । उस श्रेष्ठ तीर्थमें स्त्रान करनेसे मनुष्यको निश्चय रुपसे ब्राह्मणत्वकी प्राप्ति होती है और वह ब्राह्मण विशुद्धात्मा होकर ब्रह्मके परम पदको प्राप्त करता है । कपालमोचनके बाद पृथुदक नामके तीर्थमें जाय और नियमपूर्वक नियत मात्रामें आहार करे । वहाँ रुषङ्गु नामके ब्रह्मर्षिने सिद्धि पायी थी । सदा गङ्गद्वारमें स्थित रहते हुए पूर्वजन्मके वृत्तान्तको स्मरण रखनेवाले रुषङ्गुने ( अपना ) अन्तकाल आया देखकर ( अपने ) पुत्रोंसे कहा कि यहाँ ( मैं ) अपना कल्याण नहीं देख रहा हूँ । मुझे पृथुदक ( तीर्थ ) - में ले चलो । रुषङ्गुके उस भावको जानकर वे तपोधन ( पुत्र ) उन तपके धनीको सरस्वतीके तीर्थमें ले गये ॥१४ - १८॥
उन पुत्रोंद्वारा लाये गये उन ऋषिश्रेष्ठने सरस्वतीमें स्त्रान करनेके पश्चात् उस तीर्थके सब गुणोंका स्मरण कर यह कहा था - ' सरस्वतीके उत्तरकी ओर स्थित पृथूदक नामके तीर्थमें अपने शरीरका त्याग करनेवाला जपपरायण मनुष्य निश्चय ही देवत्वको प्राप्त होता है । ' वहीं ब्रह्माद्वारा निर्मित ' ब्रह्मयोनितीर्थ ' है, जहाँ सरस्वतीके किनारे अवस्थित पृथूदकमें स्थित होकर ब्रह्मा चारों वर्णोंकी सृष्टिके लिये आत्मज्ञानमें लीन हुए थे । सृष्टिके विषयमें अव्यक्तजन्मा ब्रह्माके चिन्तन करनेपर उनके मुखसे ब्राह्मण, भुजाओंसे क्षत्रिय, दोनों ऊरुओंसे वैश्य और दोनों पैरोंसे शूद्र उत्पन्न हुए ॥१९ - २३॥ 
उसके बाद उन्होंने चारों वर्णोंको विभिन्न आश्रमोंमें स्थित हुआ देखा । इस प्रकार ब्रह्मयोनि नामक तीर्थकी प्रतिष्ठा हुई थी । मुक्तिकी कामना करनेवाला व्यक्ति वहाँ स्त्रान करनेसे पुनर्जन्म नहीं देखता । वहीं अवकीर्ण नामक एक विख्यात तीर्थ भी है, जहाँपर दाल्भ्य ( दल्भ या दल्भि गोत्रमें उत्पन्न ) वक नामक ऋषिने क्रोधी धृतराष्ट्रको उसके वाहनोंके साथ हवन कर दिया था, तब कहीं राजाको ( अपने किये कर्मका ) ज्ञान हुआ था ॥२४ - २६॥ 
ऋषियोंने पूछा - अवकीर्ण नामक तीर्थ कैसे प्रतिष्ठित हुआ एवं राजा धृतराष्ट्रने उन ( वक दाल्भ्य मुनि ) - को क्यों प्रसन्न किया था ? ॥२७॥
लोमहर्षणने कहा - प्राचीन कालमें नैमिषारण्यनिवासी जो ऋषि दक्षिणा पानेके लिये ( राजा धृतराष्ट्रके यहाँ ) गये थे, उनमेंसे दल्भिवंशीय वक्र ऋषिने धृतराष्ट्रसे ( धनकी ) याचना की । उन्होंने ( धृतराष्ट्रने ) भी निन्दापूर्ण ग्राम्य और असत्य बात कही । उसके बाद वे ( वक दाल्भ्य ) अत्यन्त क्रुद्ध होकर पृथूदकमें स्थित अवकीर्ण नामक तीर्थमें जा करके मांस काट - काटकर धृतराष्ट्रके राष्ट्रके नाम हवन करने लगे । तब यज्ञमें राष्ट्रका हवन्ज प्रारम्भ होनेपर राजाके दुष्कर्मके कारण राष्ट्रका क्षय होने लगा ॥२८ - ३१॥
( राष्ट्रको क्षीण होते देख ) उसने विचार किया और वह इसे ब्राह्मणका विकर्म जानकर ( उस ब्राह्मणको ) प्रसन्न करनेके लिये समस्त रत्नोंको लेकर पुरोहितके साथ अवकीर्ण - तीर्थमें गया ( और उस ) राजाने उन्हें प्रसन्न कर लिया । प्रसन्न होकर उन्होंने राजासे कहा - ( राजन् ! ) विद्वान् मनुष्यको ब्राह्मणका अपमान नहीं करना चाहिये । अपमानित हुआ ब्राह्मण मनुष्यके कुलके तीन पुरुषों ( पीढ़ियों ) - का विनाश कर देता है । ऐसा कहकर उन्होंने पुनः राजाको राज्य एवं यशके साथ सम्पन कर दिया और वे उस राजाके हितकारी हो गये ॥३२ - ३५॥ 
उस ( अवकीर्ण ) तीर्थमें जो जितेन्द्रिय मनुष्य श्रद्धापूर्वक स्त्रान करता है, वह नित्य मनोऽभिलषित फल प्राप्त करता है । वहाँ ' यायात ' ( ययातिका तीर्थ ) नामसे सुविख्यात तीर्थ है, जहाँ यज्ञ करनेवालेके लिये नदीने मधु बहाया था । उसमें भक्तिपूर्वक स्त्रान करनेसे मनुष्य समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है एवं उसे अश्वमेधयज्ञका फल प्राप्त होता है । द्विजो ! वहीं ' मधुस्रव ' नामक पवित्र तीर्थ है । उसमें मनुष्यको भक्तिपूर्वक स्त्रान कर मधुसे पितरोंका तर्पण करना चाहिये । वहींपर ' वसिष्ठोद्वाह ' नामक सुन्दर महान् तीर्थ है, वहाँ भक्तिपूर्वक स्त्रान करनेवाला व्यक्ति महर्षि वसिष्ठके लोकको प्राप्त करता है ॥३६ - ४०॥
॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें उन्तालीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥३९॥
 

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