देवोंके भी देव भगवान् विष्णुने कहा - उस तपतीके गर्भसे मनुष्योंमें श्रेष्ठ संवरणके द्वारा राजलक्षणोंवाला एक पुत्र उत्पन्न हुआ । वह जातकर्म आदि संस्कारोंसे संस्कृत होकर इस प्रकार बढ़ने लगा जैसे घीकी आहुति डालनेसे अग्नि बढ़ती है । देवगण ! मित्रावरुणके पुत्र वसिष्ठजीने उसका ( यथासमय ) चौल - संस्कार कराया । नवें वर्षमें उसका उपनयन - संस्कार हुआ । फिर वह ( श्रम - क्रमसे अध्ययन कर ) वेद तथा शास्त्रोंका पारगामी विद्वान् हो गया एवं चौबीस वर्षोंमें तो फिर वह सर्वज्ञसा हो गया । पुरुषश्रेष्ठ संवरणका वह पुत्र इस भूभागपर ' कुरु ' नामसे प्रसिद्ध हुआ । तब राजा ( उस ) कल्याणकारी अपने धार्मिक पुत्रको ( उपयुक्त अवस्थामें आये हुए ) देखकर किसी उत्तम कुलमें उसके विवाहका यत्न करने लगे ॥१ - ४॥ राजाने कुरुके लिये सुन्दर स्वरुपवाली सुदामाकी पुत्री सौदामिनीको चुना और सुदामा राजाने भी उसे कुरुको विधिवत् प्रदान कर दिया । उस राजकुमारीको पाकर वह ( कुरु ) धर्म और अर्थका ( यथावत् ) पालन करते हुए उस तन्वङ्गी अर्थात् कृशाङ्गीके साथ गार्हस्थ धर्ममें वैसे ही रहने लगा, जैसे पौलोमी ( शची ) - के साथ इन्द्र दाम्पत्य - जीवन व्यतीत करते ( हुए रहते ) हैं । उसके बाद बलवान् राजाने राज्य - भारके वहन करनेमें - राज्यकार्य संचालनमें - उसे समर्थ जानकर विधिपूर्वक युवराजपदपर अभिषिक्त कर दिया । तब पिताके द्वारा अपने राज्यपदपर अभिषिक्त होकर कुरु औरस पुत्रकी भाँति अपनी प्रजाका और पृथ्वीका पालन करने लगे ॥५ - ८॥ ( प्रजा और पृथ्वीके पालनमें लगे ) वे राजकुमार कुरु ' क्षेत्रपाल '  तथा ' पशुपाल '  भी हुए ! महाबली वे सर्वपालक एवं प्रजापालक भी हुए । फिर उन्होंने सोचा कि संसारमें यश ही सर्वश्रेष्ठ वस्तु है ( उसे प्राप्त करना चाहिये ); क्योंकि जबतक संसारमें कीर्ति भलीभाँति स्थित रहती है, तबतक मनुष्य देवताओंके साथ निवास करता है । इस प्रकार यथार्थताका विचार कर वे राजा यश - प्राप्तिके लिये समस्त पृथ्वीपर विचरण करने लगे । उसी सिलसिलेमें वे बलशाली राजा पवित्र द्वैतवन पहुँचे एवं पूर्ण सुसंतुष्ट होकर उसके भीतर प्रविष्ट हो गये ॥९ - १२॥ [ प्रविष्ट होनेके बाद राजाने ] वहाँपर पापनाशिनी उस पवित्र सरस्वती नदीको देखा, जो पर्कटि ( पाकड़ ) वृक्षसे उत्पन्न ब्रह्माकी पुत्री है । वह हरिजिह्वा, ब्रह्मपुत्री और सुदर्शन - जननी नामसे भी प्रसिद्ध है । वह सुविस्तृत ह्नद ( बड़ा ताल या झील ) - में स्थित है । उसके तटपर करोड़ों तीर्थ है । उसके जलको देखते ही राजाको उसमें स्त्रान करनेकी इच्छा हुई । उन्होंने स्त्रान किया और बड़े प्रसन्न हुए । फिर वे उत्तर दिशामें स्थित ब्रह्माकी समन्तपञ्चक वेदीपर गये । वह समन्तपञ्चक नामक धर्मस्थान चारों ओर पाँच - पाँच योजनतक फैला हुआ है ॥१३ - १६॥ देवताओंने पूछा - पुरुषोत्तम ! ब्रह्माकिई कितनी वेदियाँ हैं ? क्योंकि आपने इस सर्वपञ्चक वेदीको उत्तर वेदी ( अन्य दिशा - सापेक्ष शब्द ' उत्तर ' से विशिष्ट ) कहा है ॥१७॥ [ भगवान् विष्णु बोले ] - लोकोंके स्वामी ब्रह्माकी पाँच वेदियाँ धर्म - सेतुके सदृश हैं, जिनपर देवाधिदेव विश्वेश्वर श्रीशम्भुने यज्ञ किया था । प्रयाग मध्यवेदी है, गया पूर्ववेदी और अनन्त फलदायिनी जगन्नाथपुरी दक्षिणवेदी है । ( इसी प्रकार ) तीन कुण्डोंसे अलंकृत पुष्करक्षेत्र पश्चिम वेदी है और अव्यय समन्तपञ्चक उत्तर वेदी है । राजर्षि कुरुने सोचा कि इस ( समन्तपञ्चक ) क्षेत्रको महाफलदायी करुँगा ( बनाऊँगा ) और यहीं समस्त मनोरथों ( कामनाओं ) - की खेती करुँगा ॥१८ - २१॥ अपने मनमें इस प्रकार विचारकर वे राजाओंमें शिरोमणि कुरु रथसे उतर पड़े एवं उन्होंने अपनी कीर्तिके लिये अनुपम स्थानका निर्माण किया । उनस राजाने सुवर्णमय हल बनवाकर उसमें शङ्करके बैल एवं यमराजके पौण्ड्रक नामक भैंसेको नाँधकर स्वयं जोतनेके लिये तैयार हुए । इसपर इन्द्रने उनके पास जाकर कहा - राजन् ! आप यहाँ यह क्या करनेके लिये उद्यत हुए हैं ? राजा बोले - मैं यहाँ तप, सत्य, क्षमा, दया, शौच, दान, योग और ब्रह्मचर्य - इन अष्टाङ्गोंकी खेती कर रहा हूँ ॥२२ - २५॥ इसपर इन्द्र उनसे बोले - नरेश्वर ! आपने ( कृषिके लिये साधनभूत ) हल और बीज कहाँसे प्राप्त किये हैं ? यह कहते हुए उपहास कर इन्द्र वहाँसे शीघ्र ही चले गये । इन्द्रके चले जानेपर भी राजा प्रतिदिन हल लेकर चारों ओर सात कोसोंतक पृथ्वी जोतते रहे । तब मैंने ( विष्णुने ) उनसे जाकर कहा - कुरु ! तुम यह क्या कर रहे हो ? ( इसपर ) राजाने कहा - मैं ( पूर्वोक्त ) अष्टाङ्गमहाधर्मोंकी खेती कर रहा हूँ । फिर मैंने उनसे पूछा - राजन् ! बीज कहाँ है ? राजाने कहा - बीज मेरी शरीरमें हैं । मैंने उनसे कहा - उसे मुझे दे दो । मैं ( उसे ) बोऊँगा, तुम हल चलाओ । तब राजाने अपना दाहिना हाथ फैला दिया । फैलाये हुए हाथको देखकर मैंने चक्रसे शीघ्र ही उसके हजारों टुकड़े कर डाले और उन टुकड़ोंको तुम देवताओंको दे दिया । उसके बाद राजाने वाम बाहु दिया और उसे भी मैंने काट दिया । इसी प्रकार उसने दोनों ऊरुओंको दिया । उन दोनोंको भी मैंने काट दिया । तब उसने अपना मस्तक दिया, जिससे मैं उसके ऊपर प्रसन्न हो गया और कहा - तुम्हें मैं वर दूँगा । मेरे ऐसा कहनेपर कुरुने ( मुझसे ) वर माँगा - ॥२६ - ३२॥कुरुने कहा - जितने स्थानको मैंने जोता है, वह धर्मक्षेत्र हो जाय और यहाँ स्नान करनेवालों एवं मरनेवालोंको महापुण्यकी प्राप्ति हो । माधव ! विभो ! शङ्खचक्रगदाधारी हषीकेश ! यहाँ किये गये उपवास, स्नान, दान, जप, हवन, यज्ञ आदि तथा अन्य शुभ या अशुभ कर्म भी इस श्रेष्ठ क्षेत्रमें आपकी कृपासे अक्षय एवं महान् फल देनेवाले हों तथा हे पुण्डरीकाक्ष ! हे अच्युत ! मेरे नामके व्यञ्जक ( प्रकाशक ) इस कुरुक्षेत्रमें आप सभी देवताओं एवं शिवजीके साथ निवास करें । राजाके ऐसा कहनेपर मैंने उनसे कहा - बहुत अच्छा, ऐसा ही होगा । राजन् ! तुम पुनः दिव्य शरीरवाले हो जाओ तथा हे सुव्रत ! ( दृढ़तासे व्रतका सुष्टु पालन करनेवाले ) अन्तकालमें तुम मुझमें ही लीन हो जाओगे ॥३३ - ३७॥ [ भगवान् विष्णुने आगे कहा - ] निः संदेह तुम्हारी कीर्ति सदा रहनेवाली होगी । यहाँपर यज्ञ करनेवाले व्यक्ति ( यजमान ) यज्ञ करेंगे । फिर, उस क्षेत्रकी रक्षा करनेके लिये उन पुरुषोत्तम भगवानने राजाको चन्द्रनामक यक्ष, वासुकि नामक सर्प, शङ्कुकर्ण नामक राजा और महादेव नामक अग्निको दे दिया । ये सभी तथा इनके अन्य बली भृत्य एवं अनुयायी वहाँ आकर कुरुजाङ्गलकी सब ओरसे रक्षा करते हैं ॥३८ - ४१॥ आठ हजार धनुषधारी, जो पापियोंको यहाँसे हटाते रहते हैं, वे उग्र रुप धारणकर चराचरके दूसरे भूतगण ( पापियों ) - को स्नान नहीं करने देते । उसी ( कुरुजाङ्गल ) - के मध्य पाप दूर करनेवाला एवं अति पवित्र कल्याणकारी पृथूदक ( पोहोआ ) नामक तीर्थ है, जहाँ शुभ जलसे पूर्ण एक पवित्र नदी पूर्वकी ओर बहती है । इसे प्रपितामह ब्रह्माने सृष्टिके आदिमें पृथ्वी, जल, अग्नि, पवन और आकाशादि समस्त भूतोंके साथ ही रचा था, महाबहु ब्रह्माने पृथ्वीपर जिन महासमुद्रों, तीर्थों, नदियों, स्त्रोतों एवं सरोवरोंकी रचना की उन सभीके जल उसमें एकत्र प्राप्त हैं ॥४२ - ४५॥ 
[ यहाँसे कुरुक्षेत्र और उसके सरोवरका माहात्म्य कहते हैं - ] 
देवदेव भगवान् विष्णु बोले - पहले समयमें ब्राह्मणोंने सरस्वती और दृषद्वती ( घग्गर ) - के बीचमें स्थित कुरुक्षेत्रमें आसीन मुनिप्रवर वृद्ध लोमहर्षणसे वहाँ स्थित सरोवरकी महिमा पूछी और इस सरोवरके विस्तार, विशेषतः तीर्थों और देवताओंके माहात्म्य एवं वामनके प्रादुर्भावकी कथा कहनेकी प्रार्थना की । उनके इस वचनको सुनकर रोमाञ्चित होते हुए पौराणिक ऋषि लोमहर्षण उन्हें प्रणाम कर ( फिर ) इस प्रकार बोले - ॥४६ - ४८॥लोमहर्षणजी बोले - सबसे पहले उत्पन्न होनेवाले कमलासन ब्रह्मा, लक्ष्मीसे सहित विष्णु और महादेव रुद्रको सिर झुकाकर प्रणाम करके मैं महान् ब्रह्मसर तीर्थका वर्णन करता हूँ । ब्रह्माने पहले कहा था कि वह ' संनिहित ' सरोवर ' रन्तुक ' नामक स्थानसे लेकर ' औजस ' नामक स्थानतक तथा ' पावन ' से ' चतुर्मुख ' तक फैला हुआ है । ब्राह्मणश्रेष्ठो ! किंतु अब कलि और द्वापरके मध्यमें महात्मा व्यासने सरोवरका जो ( वर्तमान ) प्रमाण बतलाया है उसे आपलोग सुनें । ' विश्वेश्वर ' स्थानसे ' अस्थिपुर ' तक और ' वृद्धाकन्या ' से लेकर ' ओघवती ' नदीतक यह सरोवर स्थित है ॥४९ - ५२॥ब्राह्मणश्रेष्ठो ! मैंने वामनपुराणमें वर्णित जो प्रमाण सुना है, आप उस पवित्र एवं कल्याणकारी प्रमाणकी सुनें । विश्वेश्वर स्थानसे देववरतक एवं नृपावनसे सरस्वतीतक चतुर्दिक आधे योजन ( दो कोसों ) - मैं फैले इस संनिहित सरको समझना चाहिये । मोक्षकी इच्छासे आये हुए देवता एवं ऋषिगण इसका आश्रय लेकर सदा इसका सेवन करते हैं तथा अन्य लोग स्वर्गके निमित्त यहाँ रहते हैं । योगीश्वर ब्रह्माने सृष्टिकी इच्छासे एवं भगवान् श्रीविष्णुने जगतके पालनकी कामनासे इसका आश्रय लिया था ॥५३ - ५६॥( इसी प्रकार ) सरोवरके मध्यमें पैठकर महात्मा रुद्रने भी इस तीर्थका सेवन किया, जिससे महातेजस्वी ( उन ) हरको स्थाणुत्व ( स्थिरत्व ) प्राप्त हुआ । आदिमें यह ' ब्रह्मवेदी ' कहा गया था, किंतु आगे चलकर इसका नाम ' रामह्नद ' हुआ । उसके बाद राजर्षि कुरुद्वारा जोते जानेसे इसका नाम ' कुरुक्षेत्र ' पड़ा । तरन्तुक एवं अरन्तुक नामके स्थानोंका मध्य तथा रामह्नद एवं चतुर्मुखका मध्यभाग समन्तपञ्चक है, जो कुरुक्षेत्र कहा जाता है । इसे पितामहकी उत्तरवेदी भी कहते हैं ॥५७ - ५९॥
॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें बाईसवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥२२॥
 

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