पुलस्त्यजी बोले - देवर्षे ! उसके बाद अपने उत्तम नगरमें जाकर सुकेशीने सभी राक्षसोंको बुलाकर उनसे धर्मकी बात बतलायी । ( सुकेशिने कहा - ) अहिंसा, सत्य, चोरीका सर्वथा त्याग, पवित्रता, इन्द्रियसंयम, दान, दया, क्षमा, ब्रह्मचर्य, अहंकारका न करना, प्रिय, सत्य और मधुर वाणी बोलना, सदा सत्कार्योंमें अनुराग रखना एवं सदाचारका पालन करना - ये सब धर्म परलोकमें सुख देनेवाले हैं । मुनियोंने इस प्रकारके आदिकालके पुरातन धर्मको मुझे बतलाया है । मैं तुम लोगोंको आज्ञा देता हूँ कि तुम लोग बिना किसी हिचकके इन सभी धर्मोंका आचरण करो ॥१ - ४॥ 
पुलस्त्यजीने कहा - उसके बाद सुकेशीके वचनसे सभी राक्षस प्रसन्न - चित्त होकर ( अहिंसा आदि ) तेरह अङ्गवाले धर्मका आचरण करने लगे । इससे राक्षसोंकी सभी प्रकारकी अच्छी उन्नति हुई । वे पुत्र - पौत्र तथा अर्थ - धर्म - सदाचार आदिसे सम्पन्न हो गये । उन महान् राक्षसोंके तेजके सामने सूर्य, नक्षत्र और चन्द्रमाकी गति और कान्ति क्षीण - सी दीखने लगी । ब्रह्मन् ! उसके बाद निशाचरोंकी नगरी तीनों लोकोंमें दिनमें चन्द्रमाके समान और रातमें सूर्यके समान चमकने लगी ॥५ - ८॥ 
( फलतः ) अब आकाशमें सूर्यकी गतिका ( चलनेका ) पता नहीं लगता था । लोग उस श्रेष्ठ नगरको नगरके तेजके कारण आकाशमें चन्द्रमा समझने विकसित नहीं होते थे । पर वे रात्रिमें सुकेशीके पुरको सूर्य समझकर विभूति प्रदान करनेकी इच्छासे विकसित होने लगे । इसी प्रकार उल्लू भी दिनको रात समझकर बाहर निकल आये और कौए दिनमें आये जानकर उन उल्लुओंको मारने लगे । स्नान करनेवाले लोग भी रात्रिको दिन समझकर गलेतक खुले बदन होकर स्नान करने लगे एवं जप करते हुए जलमें खड़े रहे ॥९ - १२॥ 
उस समय सुकेशीके नगरके ( सूर्यवत् ) दर्शन होनेसे चकवा - चकई रात्रिको ही दिन मानकर परस्पर अलग नहीं होते थे । वे उच्चस्वरसे कहते - निश्चय ही किसी पत्नीसे विहीन चक्रवाक पक्षीने एकान्तमें नदीतटपर फुत्कार करके जीवन त्याग दिया है । इसीसे दयार्द्र सूर्य अपनी तेज किरणोंसे जगतको तपाते हुए किसी प्रकार अस्त नहीं हो रहे हैं । दूसरे कहते हैं - ' निश्चय ही कोई चक्रवाक मर गया है और पतिके शोकमें उसकी दुःखिनी कान्ताने भारी तप किया है । इसीलिये निश्चय ही उसकी तपस्यासे प्रसन्न हुए एवं चन्द्रमाको जीत लेनेवाले भगवान् सूर्य अस्त नहीं हो रहे हैं ' ॥१३ - १७॥ 
महामुने ! उन दिनों यज्ञशालाओंमें ऋत्विजोंके साथ यजमान लोग रात्रिमें भी यज्ञकर्म करनेमें लगे रहते थे । विष्णुके भक्तलोग भक्तिपूर्वक सदा विष्णुकी पूजा करते रहते एवं दूसरे लोग सूर्य, चन्द्र, ब्रह्मा और शिवकी आराधनामें लगे रहते थे । कामी लोग यह मानने लगे कि चन्द्रमाने रात्रिको निरन्तरके लिये अपनी ज्योत्स्नामयी बना दिया, अच्छा हुआ ॥१८ - २०॥ 
दूसरे लोग कहने लगे कि हम लोगोंने श्रावण आदि चार महीनोंमें शुद्धभावसे अति सुगन्धित पवित्र पुष्पोंद्वारा महालक्ष्मीके साथ सुदर्शनचक्रको धारण करनेवाले भगवान् विष्णुकी पूजा की है । इसी अवधिमें सर्वकामदा अशून्यशयना द्वितीया तिथि होती है । उसीसे प्रसन्न होकर भगवानने अशून्य तथा महाभोगोंसे परिपूर्ण उत्तम शयन प्रदान किया है । दूसरे कहते कि देवी रोहिणीने चन्द्रमाका क्षय देखकर निश्चय ही रुद्रकी आराधना करनेकी अभिलाषासे परम पवित्र अक्षय आष्टमी तिथिमें वेदोक्त विधिसे कठिन तपस्या की है, जिससे सन्तुष्ट होकर भगवान् शंकरने उसे अपनी इच्छासे वर दिया है ॥२१ - २५॥ 
दूसरे लोग कहते - चन्द्रमाने निश्चय ही अखण्डव्रतका आचरण करके भगवान् हरिको आराधित किया है । उससे आकाशमें चन्द्रमा अखण्डरुपसे प्रकाशित हो रहा है । दूसरोंने कहा - चन्द्रमाने अत्याधिक तेजवाले श्रीविष्णुके चरणयुगलकी विधिवत् पूजा करके अपनी रक्षा की है । उससे, तेजस्वी चन्द्रमा सूर्यपर विजय प्राप्त करके हमें आनन्द देते हुए दिनमें सूर्यकी भाँति दीप्तिमान् हो रहे हैं । अन्य अनेक प्रकारके कारणोंसे सचमुच यह लक्षित हो रहा है कि चन्द्रमाके द्वारा पराजित हुए सूर्य पूर्ववत् दीप्तिवाले नहीं दीख रहे हैं ॥२६ - २९॥ 
इधर ये सुन्दर कमल खिले हैं और उनपर भैंरि गुंजार कर रहे हैं । भ्रमर - समूहसे आवृत्त ये सुन्दर कमल विकसित दिखलायी पड़ रहे हैं; अतः निश्चय ही सूर्योदय हुआ है । और इधर ये कुमुदवृन्द खिले हुए हैं; अतः लगता है कि प्रतापवान् चन्द्रमा उदित हुआ है । नारदजी ! इस प्रकार वार्ता करनेवालोंकें वाक्योंको सुनकर सूर्य सोचने लगे कि ये लोग इस प्रकार शुभाशुभ वचन क्यों बोल रहे हैं ? भगवान् दिवाकर ऐसा विचारकर ध्यानमग्न हो गये और उन्होंने देखा कि समस्त त्रैलोक्य चारों ओरसे राक्षसोंद्वारा ग्रस्त हो गया है ॥३० - ३३॥ 
तब योगी भगवान् भास्कर राक्षसोंकी वृद्धि तथा तेजकी असनीयताको जानकर स्वयं चिन्तन करने लगे । उन्हें यह ज्ञात हुआ कि सभी राक्षस सदाचार - परायण, पवित्र, देवता और ब्राह्मणोंकी पूजामें अनुरक्त तथा धार्मिक हैं । उसके बाद राक्षसोंको नष्ट करनेवाले तथा अन्धकाररुपी हाथीके लिये तेज किरणरुपी नखवाले सिंहके समान सूर्य उनके विनाशके विषयमें चिन्तन करने लगे । अन्तमें सूर्यको राक्षसोंके अपने धर्मसे गिरनेका मूल कारण मालूम हुआ, जो समस्त धर्मोंका विनाशक है ॥३४ - ३७॥
तब क्रोधसे अभिभूत सूर्यने शत्रुओंके भेदन करनेवाली अपनी किरणोंद्वारा भलीभाँति उस राक्षसको देखा । उस समय सुर्यद्वारा क्रोधभरी दृष्टिसे देखे जानेके का रण वह नगर नष्ट हुए पुण्यवाले ग्रहके समान आकाशसे नीचे गिर पड़ा । अपने नगरको गिरते देखकर शालकटंकट ( सुकेशी ) - ने ऊँचे स्वरसे चीखनेके स्वरमें ' नमो भवाय शर्वाय ' यह कहा । उसकी उस चीखको सुनकर गगनमें विचरण करनेवाले सभी चारण चिल्लाने लगे - हाय हाय ! हाय हाय ! यह शिव - भक्त तो नीचे गिर रहा हैं ॥३८ - ४१॥ 
सर्वत्र व्याप्त और अविनाशी नित्य शंकरने चारणोंके उस वचनको सुना और फिर सोचने लगे - यह नगर किसके द्वारा पृथ्वीपर गिराया जा रहा है । उन्होंने यह जान लिया कि देवोंके पति सहस्त्रकिरणमाली सूर्यद्वारा राक्षसोंका यह पुर गिराया गया है । इससे त्रिलोचन शंकर क्रुद्ध हो गये और उन्होंने भगवान् सूर्यको देखा । त्रिनेत्रधारी शंकरके देखते ही वे सूर्य आकाशसे नीचे आ गिरे । आकाशसे नीचे वायुमण्डलमार्गमें वे इस प्रकार गिरे जैसे यन्त्रके द्वारा कोई पत्थर फेंका गया हो ॥४२ - ४५॥ 
फिर पलाश - पुष्पके समान आभावाले सूर्य वायुमण्डलसे अलग होकर किंनरों एवं चारणोंसे भरे अन्तरिक्षसे नीचे गिर गये । उस समय आकाशसे नीचे गिरते हुए सूर्य चारणोंसे घिरे हुए ऐसे लग रहे थे, जैसे तालवृक्षसे गिरनेवाला अधपका तालफल कपियोंसे घिरा हो । तब मुनियोंने किरणमाली भगवान् सूर्यदेवके समीप आकर उनस्से कहा कि यदि तुम कल्याण चाहते हो तो विष्णुके क्षेत्रमें गिरो । गिरते हुए ही सूर्यने ( ऐसा सुनकर ) उन तपस्वियोंसे पूछा - विष्णुभगवानका वह पवित्र क्षेत्र कौन - सा है ? आप लोग उसे मुझे शीघ्र बतलायें ॥४६ - ४९॥ 
इसपर मुनियोंने सूर्यसे बतलाया - सूर्यदेव ! आप महाफल देनेवाले उस क्षेत्रका विवरण सुनिये । इस समय वह क्षेत्र वासुदेवका क्षेत्र हैं, किंतु भविष्यमें वह शंकरका क्षेत्र होगा । योगशायीसे प्रारम्भ कर केशवदर्शनतकका क्षेत्र हरिका पवित्र क्षेत्र हैं, इसका नाम वाराणसीपुरी है । उसे सुनकर शिवजीकी नेत्राग्निसे संतप्त होते हुए भगवान् सूर्य वरुणा और असी इन दोनों नदियों के बीचमें गिरे । उसके बाद शरीरके जलते रहनेसे व्याकुल हुए सूर्य असी नदीमें स्नान करनेके बाद वरुणा नदीमें इच्छानुकूल स्नान किये ॥५० - ५३॥ 
इस प्रकार शंकरके तीसरे नेत्रकी अग्निसे ओर अलातचक्र ( लुकाठीके मण्डल ) - के समान चक्कर काटने लगे । मुने ! इस बीच ऋषि, यक्ष, राक्षस, नाग, विद्याक्षर, पक्षी, अप्सराएँ और भास्करके रथमें जितने भूत - प्रेत आदि थे, वे सभी इसे ज्ञापित करनेके लिये ब्रह्मलोकमें गये । तब सुरपति इन्द्र, ब्रह्मा देवताओंके साथ सूर्यकी शान्तिके लिये महेश्वरके आवास - स्थान मन्दर पर्वतपर गये । वहाँ जाकर तथा देवेश शूलपाणि भगवान् शिवका दर्शन करनेके बाद भगवान् ब्रह्माजी भास्करके लिये उन्हें ( शिवजीको ) प्रसन्न कर उन्हें ( सूर्यको ) वाराणसीमें लाये ॥५४ - ५८॥ 
फिर भगवान् शंकरने सूर्य भगवानको हाथमें लेकर उनका नाम ' लोल ' रख दिया और उन्हें पुनः उनके रथपर स्थापित कर दिया । दिनकरके अपने रथमें आरुढ़ हो जानेपर ब्रह्मा सुकेशीके पास गये एवं उसे भी पुनः बान्धवों और नगरसहित आकाशमें पूर्ववत् स्थापित कर दिया । सुकेशीको पुनः आकाशमें स्थापित करनेके बाद ब्रह्माजी शंकरका आलिङ्घन एवं केशवदेवको प्रणाम कर अपने वैराज नामक लोकमें चले गये । नारदजी ! प्राचीन समयमें इस प्रकार सूर्यने सुकेशीके नगरको पृथ्वीपर गिराया एवं महादेवने भगवान् सूर्यको अपने तृतीय नेत्रकी अग्निसे दग्ध न कर केवल भूमितलपर गिरा ही दिया था । फिर शंकरने सूर्यको प्रतिभासित होनेके लिये भूमितलसे आकाशमें स्थित किया और ब्रह्माने निशाचरराजको उसके पुर और दिया ॥५९ - ६३॥
॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें पन्द्रहवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥१५॥
 

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