ऋषियोंने पूछा - ( लोमहर्षणजी ! ) काम्यकवनके पूर्वमें स्थित कुञ्जका आश्रयण देवताओंने किया था, पर उस काम्यकवन - तीर्थकी उत्पत्ति कैसे हुई, इसे आप हमें विस्तारसे बतलाइये ॥१॥ 
लोमहर्षणजी बोले - ( उत्तर दिया ) - मुनियो ! आप सभी लोग इस तीर्थके श्रेष्ठ माहात्म्यको सुनें । ऋषियोंके चरित्रको सुननेसे मनुष्य पापोंसे मुक्त हो जाता है । ( एक बारकी बात है ) नैमिषारण्यके निवासी ऋषि सरस्वती नदीमें स्त्रान करनेके लिये कुरुक्षेत्र आये । परंतु वे सरस्वतीमें स्त्रान करनेके लिये प्रवेश न पा सके । तब उन्होंने यज्ञोपवीतिक नामके एक तीर्थकी कल्पना कर ली । ( पर फिर भी ) शेष मुनिलोग उसमें भी प्रवेश न पा सके । सरस्वतीने देखा कि रन्तुक आश्रमसे सचक्रकतक जितने भी तीर्थस्थल हैं, वे सब - के - सब ब्राह्मणोंसे भर गये हैं । इसलिये सभी ब्राह्मणोंके कल्याणके लिये उस सरस्वती नदीने कुञ्ज बना दिया और सभी प्राणियोंकी भलाईमें तत्पर होकर वह पश्चिम मार्गको ( पश्चिमवाहिनी बनकर ) चल पड़ी ॥२ - ६॥ 
जो मनुष्य सरस्वतीके पूर्वी प्रवाहमें स्त्रान करता है, उसे गङ्गामें स्त्रान करनेका फल प्राप्त होता है । उसके दक्षिणी प्रवाहमें सरिताओंमें श्रेष्ठ नर्मदा एवं पश्चिम दिशाकी ओर यमुना नदी संश्रित है । किंतु जब वह उत्तर दिशाकी ओर बहने लगती है तो वह सिन्धु हो जाती है । इस प्रकार विभिन्न दिशाओंमें वह पवित्र सरस्वती नदी ( भिन्न - भिन्न रुपोंमें ) प्रवाहित होती है । उस सरस्वती नदीमें स्त्रान करनेवाला मनुष्य मानो सभी तीर्थोंमें स्त्रान कर लेता है । द्विजश्रेष्ठो ! सरस्वती नदीमें स्त्रान करनेके बाद तीर्थसेवीको तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध महात्मा मदनके ' विहार ' नामक तीर्थमें जाना चाहिये ॥७ - १०॥ 
जहाँपर भगवान् शिवके दर्शनाभिलाषी देवता आये, पर वे उमासहित शिवका दर्शन न कर पाये । वे लोग गणनायक महादेव नन्दीकी स्तुति करने लगे । इससे नन्दीश्वर प्रसन्न हो गये और ( उन्होंने ) उमाके साथ की जा रही शिवकी महती विहार - क्रीडाडा वर्णन किया । यह सुनकर देवताओंने भी अपनी पत्नियोंको बुलाया और उनके साथ ( उन लोगोंने भी ) क्रीडा की । उनके क्रीडा - विनोदसे शंकर प्रसन्न हो गये और बोले - इस विहार - तीर्थमें जो श्रद्धाके साथ स्त्रान करेगा, वह निः संदेह धन - धान्य एवं प्रिय सम्बन्धियोंसे सम्पन्न होगा । उमा - शिवके विहार - स्थलकी यात्राके बाद दुर्गासे प्रतिष्ठित उस महान् दुर्गातीर्थमें जाना चाहिये ॥११ - १५॥ 
जहाँ स्त्रानकर पितरोंकी पूजा करनेसे मनुष्यको दुर्गतिकी प्राप्ति नहीं होती । उसी स्थानपर तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध सरस्वतीका एक कूप है । उसका दर्शन करनेमात्रसे ही मनुष्य सभी पापोंसे रहित हो जाता है और मुक्ति प्राप्त करता है । जो वहाँ श्रद्धापूर्वक देवता और पितरोंका तर्पण करता है, वह व्यक्ति समस्त अक्षय्य ( कभी भी नष्ट न होनेवाले ) पदार्थोंको प्राप्त करता है । पितृतीर्थकी विशेष महत्ता है । उस तीर्थमें माता, पिता और ब्राह्मणका घातक तथा गुरुपत्नीगामी भी स्त्रान करनेसे ( ही ) शुद्ध हो जाता है । वहीं पूर्व दिशाकी और बहनेवाली सरस्वती मार्गमें प्रविष्ट होकर देवमार्गसे ही निकली हुई हैं ॥१६ - १९॥ 
पूर्ववाहिनी सरस्वती दुष्कर्मियोके लिये भी पुण्य देनेवाली है । जो प्राची सरस्वतीके निकट जाकर त्रिरात्रव्रत करता है, उसके शरीरमें कोई पाप नहीं रह जाता नर और नारायण - ये दोनों देव, ब्रह्मा, स्थाणु तथा सूर्य एवं इन्द्रसहित सभी देवता प्राची दिशाका सेवन करते हैं । जो मानव प्राची सरस्वतीमें श्राद्ध करेंगे, उन्हें इस लोक तथा परलोकमें कुछ भी दुर्लभ नहीं होगा । अतः प्राची सरस्वतीका सर्वदा सेवन करना चाहिये - विशेषतः पञ्चमीके दिन । पञ्चमी तिथिको प्राची सरस्वतीका सेवन करनेवाला मनुष्य लक्ष्मीवान् होता है । वहीं तीनों लोकोंमें दुर्लभ औशनस नामका तीर्थ है, जहाँ परमेश्वरकी आराधना कर शुक्राचार्य सिद्ध हो गये थे । उस तीर्थका सेवन करनेसे ग्रहोंके मध्य उनकी पूजा होती है ॥२० - २५॥ 
इस प्रकार शुक्रमुनिके द्वारा सेवित उत्तममीर्तका जो श्रद्धापूर्वक ( स्वयं ) सेवन करते हैं, वे परम गतिको प्राप्त होते हैं । उस तीर्थमें भक्तिपूर्वक जो व्यक्ति श्राद्ध करेगा, उसके द्वारा उसके पितर निः सन्देह तर जायँगे । द्विजोत्तमो ! जो सरोवरकी मर्यादासे स्थित चतुर्मुख ब्रह्मतीर्थमें चतुर्दशीके दिन उपवासव्रत करते हैं तथा चैत्रमासके कृष्णपक्षकी अष्टमीतक निवास करके तीर्थका सेवन करते हैं, उन्हें परम सूक्ष्म ( तत्त्व ) - का दर्शन प्राप्त होता है; जिससे वे पुनः संसारमें नहीं आते । ब्रह्मतीर्थके नियम पालन करनेके बाद सहस्त्रलिङ्गसे शोभित स्थाणुतीर्थमें जाय । वहाँ स्थाणुवटका दर्शन प्राप्त कर मनुष्य पापोंसे विमुक्त हो जाता है ॥२६ - ३०॥
॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें बयालीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥४२॥
 

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