ईसाई और इस्लाम परम्पराओं की तरह
बोद्धों में भी शैतान-तुल्य एक धारणा है, जिसे
मार की संज्ञा दी गयी है। मार को 'नमुचि' के नाम
से भी जाना जाता है क्योंकि "नमुचीति
मारो", अर्थात् जिससे कोई नहीं बच
सकता वह 'मार' है।
कहा जाता है कि कंठक पर सवार गौतम जब अपने महानिष्क्रमण-काल
में (अर्थात् जब गृहस्थ-जीवन त्याग कर) नगरद्वार पर पहुँचे तो
मारने उनके समक्ष प्रकट हो उन्हें सात दिनों के
अन्दर ही चक्रवर्ती सम्राट बनाने का प्रलोभन दे डाला था। सिद्धार्थ उसके प्रलोभन
में नहीं आये और अपने लक्ष्य को अग्रसर होते चले गये।
मार की दस सेनाएँ होती है : राग (लिप्सा); असंतोष
या भूख-प्यास; तृष्णा; आलस्य (दीन-मिद्ध);
भय; शंका, झूठ और मूर्खता; झूठी शान और
शोकत; दम्म। उन दस सेनाओं में तीन - तृष्णा, अरति और
राग मार की तीन पुत्रियाँ भी शामिल हैं।
बोधिवृक्ष के नीचे गौतम ने जब
सम्बोधि-प्राप्ति तक बैठ तप करने की प्रतिज्ञा
ली तो मार अपने दसों प्रकार के सेनाओं के
साथ स्वयं एक विकराल हाथी गिरिमेखल पर सवार हो
बुद्ध पर आक्रमण कर बैठा। मार के विकराल और
भयंकर सेनाओं को देख समस्त देव, नाग आदि जो गौतम की स्तुति कर रहे थे,
भाग खड़े हुए। गौतम ने तब अपने दस पारमियों को
बुला मार की सेना को खदेड़ दिया। खिन्न
मार ने अपना अंतिम शस्र चक्कायध से गौतम पर प्रहार किया, जो
उनके सिर पर एक फूलों की छत्र बन स्थिर हो गया। अपने अंतिम
वार को भी जब मार ने खाली जाते देखा तो उसने चिल्लाकर कहा, "ओ गौतम! तुम जहाँ
बैठे हो वह आसन मेरा है। अत: तुम्हें वहाँ
बैठने का दुस्साहस न करो।"
मार के इस मिथ्याभियोग को सुन गौतम ने अपनी
मध्यमा अंगुली से भूमि-स्पर्श कर धरती
से साक्षी देने को कहा। धरती ने तब
भयंकर गर्जन के साथ बुद्ध के वहाँ
बैठे रहने की साक्षी दी जिससे मार की हार पूर्णतया
सत्यापित हो गयी; और अंत में गौतम
संबोधि प्राप्त कर बुद्ध बने।