गंगा के किनारे एक कुटिया बनाकर कोई ढोंगी सन्यासी रहा करता था। उसने अपनी कुटिया के पास एक आम का बगीचा बना रखा था और हर वह गलत काम करता जो एक सन्यासी के आचरण के प्रतिकूल था। शक्र ने जब उसकी लालच आदि कुवृतियाँ देखी तो उसे सबक सिखाने का निर्णय किया।

एक दिन वह ढोंगी सन्यासी जब भिक्षा मांगने पास के गाँव में गया तो शक्र ने उसके सारे आम तोड़ कर गायब कर दिये।

शाम को जब वह अपनी कुटिया में लौटा तो बगीचे की अच्छी धुनाई देखी। और तो और उसके सारे आम भी गायब थे। खिन्न वह वहीं खड़ा था तभी एक श्रेष्ठि की चार पुत्रियाँ बगीचे के करीब से गुजरीं। ढोंगी ने उन्हें बुला उनपर आरोप लगाया कि वे चोर हैं। अपनी सफाई में चारों कन्याओं ने पैरों पर बैठकर कसमें खाईं कि उन्होंने कोई चोरी नहीं की थी। ढोंगी ने तब उन्हें छोड़ दिया क्योंकि उसके पास आरोप सिद्ध करने के लिए कोई प्रमाण नहीं था।

शक्र को उन कन्याओं का अपमान नहीं भाया। वह तब एक भंयकर रुप धारण कर ढोंगी के सामने प्रकट हुआ। शक्र के रुप से डर वह ढोंगी सदा-सदा के लिए ही उस स्थान को छोड़ भाग गया।

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