हिमालय की पर्वत-कंदराओं में कभी एक प्रतिष्ठित संन्यासी रहा करता था, जिसके हज़ारों अनुयायी थे।

एक बार वर्षा-काल में वे पहाडों से उतर वाराणसी पहुँचे, जहाँ उन्हें वाराणसी नरेश द्वारा राजकीय सम्मान एवं आतिथ्य प्राप्त हुआ। वर्षा-काल जब शेष हुआ और वे वापिस हिमालय पर वापिस लौटने की तैयारी करने लगे तो राजा ने सन्यासी से वहीं रुकने का आग्रह किया। अत: सन्यासी ने अपने शिष्यों को अपने प्रमुख शिष्य की देख-रेख में वापिस भेज दिया।

कुछ महीनों के बाद वह प्रमुख शिष्य गुरु से मिलने और संघ की सूचना देने हेतु पुन: वापिस आया और गुरु के ही पास बैठ गया, जहाँ उसकी आवभगत नाना-प्रकार की भोज्य वस्तुओं और फलों से हुई।

थोड़ी देर के बाद राजा भी उस गुरु के पास पहुँचा। उस समय पकवान और फलादि के बीच बौठा वह प्रमुख शिष्य अपने गुरु से कर रहा था, "वाह ! क्या सुख है ! क्या सुख है !!"

तब राजा ने समझ लिया वह शिष्य लोभी है। अत: गुरु द्वारा हिमालय पर भेजे जाने के बाद भी सांसारिक भोगों की कामना से पुन: वापिस लौट आया था।

राजा की अप्रसन्नता को देख गुरु ने उसके मन के भाव को पढ़ लिया। उसने राजा से कहा, 
"राजन् ! आप मेरे जिस शिष्य को लोभी समझ रहे हैं, वह वस्तुत: एक बहुत बड़े सम्राट रहे हैं। सांसारिकता का त्याग कर उन्होंने अपना राज-पाट बन्धु-बान्धवों को सौंप दिया है। ये जिस सुख की चर्चा का रहे हैं वह भोग्य सांसारिक पदार्थों की नहीं अपितु संन्यास के सुखों के संदर्भ में है !"

राजा ने तब अपना गलती को समझा और शर्म से उसका शीश झुक गया।

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