किसी वन में एक यक्षिणी रहती थी। उसे कुछ अलौकिक शक्तियाँ प्राप्त थीं जो उस वन की परिधि तक ही सीमित थीं। वह वन से गुजरते राहगीरों को लूटती और उन्हें मार कर खा जाती थी।

एक दिन उस वन से एक खूबसूरत नौजवान गु रहा था। यक्षिणी ने उसे भी पकड़ लिया मगर उसे अपना भोजन नहीं बनाया बल्कि उसने उससे शादी रचायी। वह उसे जंज़ीरों से बाँध कर रखती क्योंकि उसे भय था कि वह भाग जाएगा। कुछ दिनों के बाद यक्षिणी ने एक पुत्र को जन्म दिया। जब वह पुत्र कुछ बड़ा हुआ तो उस ने उसे पैरों के निशान पढ़ने की विद्या सिखायी। वे निशान बारह वर्षो तक पढे जा सकते थे।

बालक कुछ और बड़ा हुआ। उसने अपने पिता को यक्षिणी के कैद में देखा। वह एक दिन माता की अनुपस्थिति में अपने पिता का मुक्त करा उस जंगल के बाहर भगा लाया चूंकि यक्षिणी की शक्ति वन के बाहर नगण्य हो जाती थी। अत: वह उन्हें फिर कभी पकड़ नहीं पायी। पिता और पुत्र ने वाराणसी में शरण ली। एक दिन वाराणसी के सरकारी खजाने में चोरी हुई। राजा ने तब यह घोषणा करवाई कि जो कोई भी जनता की उस सम्पति को ढूँढने में सहायता करोगा उसे यथोचित पारितोषिक दिया जाएगा।

यक्षिणी पुत्र ने तब तत्काल ही चोरों के पद-चिन्हों को पढ़ता, राजा और जनता को उस स्थान पर ले गया जहाँ खजाना छुपाया गया था। विस्मित हो सभी ने बालक की भूरि-भूरि प्रशंसा की।

राजा ने तब बालक से चोरों का नाम-पता पूछा। बालक ने कहा कि चोरों का नाम बताना उचित नहीं होगा। किन्तु जब राजा ने हठ किया तो उसने चोरों का नाम बता दिया। चोर और कोई नहीं थे, बल्कि राजा और उनके पुरोहित थे। लोगों को तब राजा और पुरोहित पर बहुत गुस्सा आया। उन्होंने उन दोनों चोरों को पीट-पीट कर मार डाला और उस बालक को अपना नया राजा बना दिया।

Please join our telegram group for more such stories and updates.telegram channel