यहाँ बताना आवश्यक है कि तीन बालक शुजा की तीन छद्म-वेशी कन्याएँ थीं। शुजा मक्का जाने के उद्देश्य से चट्टग्राम के बंदरगाह पर गया था। लेकिन दुर्भाग्यवश भारी बारिश आ जाने के कारण एक भी जहाज नहीं मिला। अंत में हताश होकर लौट आने वाले रास्ते में गोविन्दमाणिक्य के साथ दुर्ग में भेंट हुई। कुछ दिन दुर्ग में रह कर शुजा को समाचार मिला कि सम्राट के सैनिक अभी भी उसकी खोज कर रहे हैं। गोविन्दमाणिक्य ने उसे वाहन आदि और काफी अनुचरों समेत अपने मित्र, अराकानपति के पास भेज दिया। जाते समय शुजा ने उन्हें अपनी बहुमूल्य तलवार उपहारस्वरूप प्रदान की।
इस बीच राजा, रघुपति और बिल्वन ने मिल कर सारे गाँव को जैसे जगा कर खडा कर दिया। राजा का दुर्ग पूरे गाँव का प्राण हो गया।
इस प्रकार छह वर्ष व्यतीत होते-होते छत्रमाणिक्य की मृत्यु हो गई। गोविन्दमाणिक्य को सिंहासन पर लौटा लाने के लिए त्रिपुरा से दूत आया।
गोविन्दमाणिक्य ने पहले कहा, "मैं राज्य में नहीं लौटूँगा।"
बिल्वन ने कहा, "महाराज, यह नहीं हो सकता। जब धर्म स्वयं द्वार पर आकर आह्वान कर रहे हैं, तब उनकी अवहेलना मत कीजिए।"
राजा ने अपने छात्रों की ओर देख कर कहा, "मेरी इतने दिन की आशा अधूरी, इतने दिन का कार्य असमाप्त रह जाएगा।"
बिल्वन ने कहा, "यहाँ आपका कार्य मैं करूँगा।"
राजा ने कहा, "तुम अगर यहाँ रह जाओगे, तो मेरा वहाँ का कार्य अधूरा रह जाएगा।"
बिल्वन ने कहा, "नहीं महाराज, अब आपको मेरी और आवश्यकता नहीं है। अब आप अपने पर स्वयं निर्भर कर सकते हैं। अगर मेरे पास समय हुआ, तो मैं कभी-कभी आपसे मिलने आ जाऊँगा।"
राजा ने ध्रुव को लेकर राज्य में प्रवेश किया। ध्रुव अब नितांत छोटा नहीं है। उसने बिल्वन की कृपा से संस्कृत भाषा में शिक्षा प्राप्त करके शास्त्र के अध्ययन में मन लगा लिया है। रघुपति ने फिर से पौरोहित्य अपना लिया। इस बार मंदिर में लौट कर मृत जयसिंह पुन: जीवित रूप में प्राप्त हो गया।
इधर विश्वासघातक अराकानपति ने शुजा की हत्या करके उसकी सबसे छोटी बेटी से विवाह कर लिया।
अभागे शुजा के प्रति अराकानपति की नृशंसता याद करके गोविन्दमाणिक्य दुखी होते थे। शुजा के नाम को चिरस्मरणीय बनाने के लिए उन्होंने तलवार के विनिमय से प्राप्त बहुत सारे धन द्वारा कुमिल्ला नगरी में एक उत्कृष्ट मस्जिद का निर्माण कराया था। वह आज भी शुजा मस्जिद के नाम से विद्यमान है।
गोविन्दमाणिक्य के प्रयत्न से मेहेरकूल आबाद हुआ था। उन्होंने ब्राह्मण-गण को बहुत सारी भूमि ताम्रपत्र पर सनद लिख कर प्रदान की थी। महाराज गोविन्दमाणिक्य ने कुमिल्ला के दक्षिण में बातिशा ग्राम में एक विशाल तालाब खुदवाया था। उन्होंने अनेक महान कार्यों का आयोजन किया था, किन्तु संपन्न नहीं कर पाए। इसी का पश्चात्ताप करते हुए 1669 ई. में मानव-लीला पूरी कर ली।'
(अंतिम दो पैराग्राफ श्रीयुत बाबू कैलासचंद्र सिंह प्रणीत 'त्रिपुरा का इतिहास' से उद्धृत - रवीन्द्रनाथ ठाकुर)