गोमती नदी का दक्षिणी किनारा एक स्थान पर बहुत ऊँचा है। बारिश की धारा और छोटे-छोटे सोतों ने इस ऊँची भूमि को नाना गुहा-गह्वरों में बाँट दिया है। इसके कुछ दूर बडे-बड़े शाल और गाम्भारी1 वृक्षों ने लगभग अर्ध चंद्राकार रूप में इस भूमि-खण्ड को घेर रखा है, किन्तु इस थोड़ी-सी भूमि पर बीच में एक भी विशाल वृक्ष नहीं है। डूहों पर जगह-जगह छोटे-छोटे शाल के पेड़ बढ़ नहीं पा रहे हैं, टेढ़े मेढे होकर काले पड़ गए हैं। बहुत सारे पत्थर फैले पड़े हैं। एक हाथ दो हाथ चौड़े सैकड़ों छोटे-छोटे सोते टेढ़े मेढे रास्तों से घूमते-घूमते, आपस में मिलते, अलग होते जाकर नदी में समा रहे हैं। यह स्थान अति निर्जन है - यहाँ का आकाश पेड़ों से ढका हुआ नहीं है। यहाँ से गोमती नदी और उसके दूसरे किनारे वाले विलक्षण रंग की फसलों से भरे खेत बहुत दूर तक देखे जा सकते हैं। राजा गोविंदमाणिक्य यहाँ प्रति दिन सुबह घूमने आते हैं, साथ में न कोई मंत्री आता है, न अनुचर। गोमती में मछली पकडने आने वाले मछुआरे कभी-कभी दूर से देखते थे, उनके सौम्य-मूर्ति राजा योगी के समान स्थिर-भाव से आँखें मूँदे बैठे हैं, उनके चेहरे पर प्रभात की ज्योति है अथवा उनके आत्मा की ज्योति, समझ में नहीं आता था। आजकल बारिश के दिनों में रोजाना यहाँ नहीं आ पाते, लेकिन बारिश थमने पर जिस दिन आते हैं, उस दिन छोटे ताता को साथ ले आते हैं।
ताता को और ताता कहने का मन नहीं करता। एकमात्र जिसके मुँह से ताता संबोधन जँचता था, वह तो रही नहीं। पाठकों के लिए ताता शब्द का कोई अर्थ ही नहीं है। किन्तु शाल-वन में सुबह-सुबह जब हासि शैतानी करते हुए शाल के वृक्ष की आड़ में छिप कर अपने सुमधुर तीव्र स्वर में ताता पुकारती थी और उसके उत्तर में पेड़-पेड़ पर दोएल 2 पुकारने लगती थीं, दूर जंगल से प्रतिध्वनि लौट आती थी, तब वही ताता शब्द अर्थ से परिपूर्ण होकर जंगल में व्याप जाता था - तब वही ताता संबोधन एक बालिका के छोटे-से हृदय के अति कोमल स्नेह-नीड़ को छोड़ कर पक्षी के समान स्वर्ग की ओर उड़ जाता था - तब वही एक स्नेहसिक्त मधुर संबोधन प्रभात के समस्त पक्षियों के गान को लूट लेता था - प्रभात की प्रकृति के आनंदमय सौंदर्य के साथ एक छोटी-सी बालिका के आनंदमय हृदय का ऐक्य दर्शाता था। अब वह बालिका नहीं है - बालक है, लेकिन ताता नहीं है। यह बालक संसार के हजारों लोगों के लिए है, हजारों विषयों के लिए है, किन्तु ताता केवलमात्र उस बालिका के लिए ही है। महाराजगोविन्द माणिक्य इस बालक को ध्रुव बुलाते हैं, हम लोग भी वही कह कर पुकारेंगे।
महाराज पहले अकेले गोमती के तट पर आते थे, अब ध्रुव को साथ ले आते हैं। वे उसकी पवित्र सरल मुख-छवि में देवलोक की छटा देख पाते हैं। जब राजा मध्याह्न में संसार के भँवर में प्रवेश करते हैं, तो वृद्ध विज्ञ मंत्री उन्हें घेर कर खड़े हो जाते हैं, उन्हें परामर्श देते हैं। और प्रभात होने पर एक बालक उन्हें संसार के बाहर ले आता है - उसकी दो बड़ी-बड़ी आँखों के सम्मुख विषय की हजारों कुटिलाताएँ कुण्ठित पड़ जाती हैं - बालक का हाथ थाम कर महाराज विश्व-जगत के मध्य अनंत की ओर फैले एक उदार सरल विस्तृत राजपथ पर जाकर खड़े हो जाते हैं; वहाँ अनंत सुनील आकाश के चँदोवे के नीचे विद्यमान विश्व-ब्रह्माण्ड की महासभा दिखाई पडती है; वहाँ भूलोक, भुवर्लोक, स्वर्लोक, सप्तलोक का अस्पष्ट संगीत सुनाई पडता है; वहाँ सरल मार्ग पर सभी कुछ सरल सहज शोभन अनुभव होता है, कवल आगे बढ़ने का उत्साह रहता है, विकट व्याकुलता-चिन्ता, व्याधि-अशांति दूर हो जाती है। महाराज को उसी प्रभात में निर्जन वन में, नदी-तट पर, मुक्त आकाश के नीचे, एक बालक के प्रेम में निमग्न होकर असीम प्रेम-समुद्र का मार्ग दिखाई पडने लगता है।
गोविन्दमाणिक्य ध्रुव को गोदी में बैठाए ध्रुवोपाख्यान सुना रहे हैं; वह कोई बहुत कुछ समझ पा रहा है, ऐसा नहीं है, लेकिन राजा की इच्छा है कि वे आधे-अधूरे स्वर में ध्रुव के मुँह से उसी ध्रुवोपाख्यान को पुन: सुनें।
कथा सुन कर ध्रुव बोला, "मैं जंगल में जाऊँगा।"
राजा बोले, "जंगल में क्या करने जाएगा?"
ध्रुव बोला, "हयि3 को देखने जाऊँगा।"
राजा बोले, "हम लोग तो जंगल में आए हैं, हरि को देखने ही आए हैं।"
ध्रुव - हयि कहाँ हैं?
राजा- यहीं हैं।
ध्रुव ने कहा, "दीदी कहाँ है?
कहते हुए उठ खड़ा होकर पीछे ताक कर देखा - उसे लगा, मानो दीदी पहले की तरह पीछे से अचानक उसकी आँखें बंद करने आ रही है। किसी को भी न पाकर गर्दन झुकाए आँखें उठा कर पूछा, "दीदी कहाँ है?"
राजा बोले, "हरि ने तुम्हारी दीदी को बुला लिया है।"
ध्रुव ने कहा, "हयि कहाँ है?"
राजा ने कहा, "उन्हें पुकारो बेटा। तुम्हें वही जो श्लोक सिखाया था, उसी का पाठ करो।"
ध्रुव हिल-हिल कर बोलने लगा -