इस साल त्रिपुरा में एक अभूतपूर्व घटना घटी। सहसा उत्तर से झुण्ड के झुण्ड चूहे त्रिपुरा के खेतों में आ पहुँचे। सारी फसल बर्बाद कर डाली, यहाँ तक कि किसानों के घरों में जितना कुछ अनाज इकट्ठा था, वह भी अधिकतर खा डाला - राज्य में हाहाकार मच गया। देखते-ही-देखते अकाल पड़ गया। लोग जंगल से कंदमूल इकट्ठे करके जान बचाने लगे। जंगलों की कमी नहीं और जंगल में मिट्टी से उत्पन होने वाली तरह-तरह की खाने योग्य चीजें भी हैं। शिकार से मिलने वाला मांस बाजार में ऊँचे दामों पर बिकने लगा। लोग जंगली भैंसे, हिरन, खरगोश, साही, गिलहरी, सूअर, बड़े-बड़े स्थल-कछुओं का शिकार करके खाने। हाथी मिलने पर हाथी भी खा जाते - अजगर साँप खाने लगे - जंगल में खाने योग्य पक्षियों का अभाव नहीं - पेड़ों के कोटरों में मधुमक्खियाँ और शहद मिल जाता है - जगह-जगह नदी के पानी पर बन्दा लगा कर उसमें नशीली लताएँ डाल देने से मछलियाँ अवश होकर ऊपर बहने लगती हैं, लोग उन सब मछलियों को पकड़ कर खाने लगे और सुखा कर इकट्ठा करने लगे। अभी भी किसी तरह भोजन तो चल रहा था, किन्तु बहुत अव्यवस्था उत्पन्न हो गई। जगह-जगह चोरी-डकैती शुरू हो गई, प्रजा-जनों में विद्रोह के लक्षण दिखाई देने लगे।

वे कहने लगे, "माँ की बलि बंद कर देने से माँ के अभिशाप के कारण ये सब दुर्घटनाएँ घटनी आरम्भ हो गई हैं।" बिल्वन ठाकुर ने उस बात को हँसी में उड़ा दिया। उसने उपहास के व्याज से कहा, "कैलास पर कार्तिक और गणेश के बीच भाईचारा टूट गया है, इसी कारण गणेश के चूहे कार्तिक के मयूर के विरुद्ध शिकायत करने के लिए त्रिपुरा की त्रिपुरेश्वरी के पास आए हैं।" प्रजा-जनों ने इस बात को कोरे उपहास के रूप में ग्रहण नहीं किया। उन्होंने देखा, बिल्वन ठाकुर की बात के अनुसार चूहों का रेला जिस तेजी से आया था, उसी तेजी से समस्त फसल नष्ट करके पता नहीं कहाँ अंतर्ध्यान भी हो गया - तीन दिन के भीतर उनका निशान तक नहीं बचा। किसी को भी बिल्वन ठाकुर के अगाध ज्ञान के बारे में संदेह नहीं रहा। कैलास पर भाईचारा भंग होने के सम्बन्ध में गीत रचे जाने लगे, युवक-युवतियाँ भिक्षुक उन गीतों को गाने लगे, गली-घाट पर वे गीत प्रचलित हो गए।

लेकिन राजा के प्रति विद्वेष का भाव अच्छी तरह नहीं मिट पाया। बिल्वन ठाकुर की सलाह पर गोविन्दमाणिक्य ने दुर्भिक्ष-ग्रस्त किसानों का एक बरस का लगान माफ कर दिया। उसका कुछ फल हुआ। लेकिन फिर भी अनेक लोग माँ के अभिशाप से बचने के लिए चट्टग्राम के पार्वत्य प्रदेश में पलायन कर गए। यहाँ तक कि राजा के मन में भी संदेह पैदा होने लगा।

उन्होंने बिल्वन को बुला कर कहा, "ठाकुर, राजा के पापों से ही प्रजा कष्ट भोगती है। क्या मैंने माँ की बलि बंद करके पाप किया है? यह क्या उसी का दण्ड है?"

बिल्वन ने सारी बात एकदम से उड़ा दी। बोला, "जब माँ के सामने हजारों नरबलियाँ होती थीं, तब आपकी प्रजा का अधिक नुकसान होता रहा है अथवा इस दुर्भिक्ष में अधिक हुआ है?"

राजा निरुत्तर हो रहे, किन्तु उनके मन से संशय पूरी तरह दूर नहीं हुआ। प्रजा उनसे असंतुष्ट हो गई है, उन पर संदेह प्रकट कर रही है, इससे उनके हृदय को आघात पहुँचा, उनमें अपने प्रति भी संदेह उत्पन्न हो गया। वे निश्वास छोड़ते हुए बोले, "कुछ भी नहीं समझ पा रहा हूँ।"

बिल्वन ने कहा, "अधिक समझने की आवश्यकता क्या है! इतने सारे चूहे आकर फसल क्यों खा गए, यह समझ में नहीं आया । किन्तु मैं अन्याय नहीं करूँगा, मैं सभी का हित करूँगा, इतना-सा ही साफ-साफ समझना काफी है। उसके बाद विधाता का काम विधाता करेंगे, वे हम लोगों को हिसाब देने नहीं आएँगे।"

राजा ने कहा, "ठाकुर, तुम घर-घर जाकर अविश्राम कार्य कर रहे हो, संसार का जितना-सा हित कर रहे हो, उतना ही वह तुम्हारा पुरस्कार होता जा रहा है, इस आनंद में तुम्हारा सम्पूर्ण संशय मिट जाता है। मैं दिन-रात केवल एक मुकुट सिर पर बाँध कर सिंहासन पर चढ़ कर बैठा रहता हूँ, केवल थोड़ी-सी चिंताएँ गले में लटकाए हुए हूँ - तुम्हारा कार्य देख कर मुझे लोभ होता है।"

बिल्वन ने कहा, "महाराज, मैं आपका ही तो एक अंश हूँ। आप इस सिंहासन पर न बैठे होते, तो क्या मैं कार्य कर पाता! आप और मैं मिल कर ही हम दोनों सम्पूर्ण हुए हैं।"

यह कह कर बिल्वन ने विदा ली, राजा सिर पर मुकुट बाँध कर सोचने लगे। मन-ही-मन बोले, 'मेरा बहुत काम पड़ा हुआ है, मैं उसमें से कुछ भी नहीं करता। मैं केवल अपनी चिन्ता में निश्चिन्त बना हुआ हूँ। उसी कारण मैं प्रजा-जनों का विश्वास अर्जित नहीं कर पाता। मैं राज्य-शासन के योग्य नहीं हूँ।'

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