उसके अगले दिन आषाढ़ की उनतीसवीं तिथि। आज रात चतुर्दश देवताओं की पूजा है। आज जब प्रभात में ताड़-वन की ओट से सूरज उठ रहा है, तो पूर्व दिशा में बादल नहीं हैं। जब जयसिंह स्वर्णकिरणों से भरे आनंदमय कानन में जाकर बैठा, तो उसकी सारी पुरानी स्मृतियाँ मन में जागने लगीं। इसी वन में, इसी पाषाण के मंदिर की पत्थर की सीढ़ियों पर, इसी गोमती के तट पर, इसी विशाल वट की छाया में, इसी छाया से घिरे पोखर के किनारे उसे अपना बाल्य-काल सुमधुर स्वप्न की भाँति याद आने लगा। जो सम्पूर्ण मधुर दृश्य उसके बाल्य-काल को स्नेहपूर्वक घेरे रहते थे, वे आज हँस रहे हैं, उसे आज पुन: बुला रहे हैं, परन्तु उसका मन कह रहा है, 'मैं आज यात्रा पर बाहर निकल आया हूँ, मैंने विदा ले ली है, मैं और नहीं लौटूँगा।' स्फटिक के मंदिर पर सूर्य की किरणें पड़ रही हैं तथा उसकी बाईं ओर की दीवार पर बकुल की शाखाओं की कम्पित छाया पड़ रही है। बचपन में जिस प्रकार यह स्फटिक-मंदिर सचेतन अनुभव होता था, इन सीढ़ियों पर बैठ कर खेलते समय सीढ़ियों में जैसा संग-साथ पाता था, आज प्रभात की सूर्य-किरणों में मंदिर को वैसा ही सचेतन, उसकी सीढ़ियों को उसी प्रकार शैशव की आँखों से देखने लगा। मंदिर के भीतर माँ आज फिर से माँ के रूप में अनुभव होने लगी। किन्तु अभिमान में उसका हृदय भर आया, उसकी दोनों आँखों से आँसू टपकने लगे।
रघुपति को आता देख जयसिंह ने आँसू पोंछ डाले। गुरु को प्रणाम करके खड़ा हो गया। रघुपति ने कहा, "आज पूजा का दिन है। याद है, माँ के चरण स्पर्श करके क्या शपथ ली थी?"
जयसिंह ने कहा, "है।"
रघुपति - "शपथ का पालन तो करोगे? "
जयसिंह - "हाँ।"
रघुपति - "देखो वत्स, काम सावधानी से करना। विपत्ति की आशंका है। मैंने तुम्हारी रक्षा के लिए ही प्रजा को राजा के विरुद्ध भड़का दिया है।"
जयसिंह चुपचाप रघुपति के चेहरे की ओर देखता रहा, कोई उत्तर नहीं दिया; रघुपति उसके सिर पर हाथ रख कर बोला, "मेरे आशीर्वाद से तुम निर्विघ्न अपना कार्य संपन्न कर पाओगे, माँ का आदेश पालन कर सकोगे।"
इतना कह कर चला गया।
राजा अपराह्न में एक कक्ष में बैठे ध्रुव के साथ खेल रहे हैं। ध्रुव के आदेश के अनुसार एक बार मुकुट सिर से उतार रहे हैं, एक बार धारण कर रहे हैं; ध्रुव महाराज की यह दुर्दशा देख कर हँस-हँस कर बेहाल हो रहा है। राजा तनिक हँस कर बोले, "मैं अभ्यास कर रहा हूँ। यह मुकुट उनके आदेश पर जिस प्रकार सहजता से धारण कर पाया हूँ, इस मुकुट को उनके आदेश पर उतनी ही सहजता से उतार भी पाऊँ। मुकुट धारण करना कठिन है, लेकिन मुकुट त्यागना और भी कठिन है।"
सहसा ध्रुव के मन में एक विचार आया - कुछ देर राजा के मुकुट की ओर देख कर मुँह में उँगली डाल कर बोला, "तुमि आजा।" राजा शब्द से 'र' अक्षर एकदम से समूल लोप कर देने पर भी ध्रुव के मन में जरा भी पश्चात्ताप उत्पन नहीं हुआ। राजा के मुँह पर राजा को आजा बोल कर उसे सम्पूर्ण आत्म-सुख मिला।
राजा ध्रुव की इस धृष्टता को सहन न कर पाने के कारण बोले, "तुमि आजा।"
ध्रुव बोला, "तुमि आजा।"
इस विषय में बहस का अंत नहीं हुआ। किसी पक्ष में कोई प्रमाण नहीं है, बहस केवल धींगामुश्ती की है। अंत में राजा ने अपना मुकुट लेकर ध्रुव के सिर पर पहना दिया। तब ध्रुव के पास और बात कहने का उपाय नहीं बचा, उसकी पूरी तरह हार हो गई। ध्रुव का आधा चेहरा उस मुकुट के नीचे छिप गया। मुकुट के साथ विशाल सिर को हिलाते हुए ध्रुव ने मुकुटहीन राजा को आदेश दिया, "एक कहानी सुनाओ।"
राजा ने कहा, "कौन-सी कहानी सुनाऊँ?"
ध्रुव बोला, "दीदी वाली कहानी सुनाओ।"
ध्रुव कहानी मात्र को ही दीदी की कहानी के रूप में जानता था। वह समझता था, दीदी जो कहानियाँ सुनाती थी, उनके अलावा संसार में और कहानी ही नहीं है। राजा एक भारी पौराणिक कहानी लेकर बैठ गए। वे कहने लगे, "हिरण्यकश्यपु नामक एक राजा था।"
राजा सुन कर ध्रुव बोल उठा, "आमी आजा।" विशाल ढीले मुकुट के बल पर उसने हिरण्यकश्यपु के राजपद को पूरी तरह अस्वीकृत कर दिया।
चाटुकार सभासद के समान गोविन्दमाणिक्य उस किरीटी शिशु को संतुष्ट करने के लिए बोले, "तुम भी आजा, वह भी आजा।"
ध्रुव उसमें भी स्पष्ट रूप से असहमति प्रकट करते हुए बोला, "ना, आमी आजा।"
अंत में जब महाराज ने कहा, "हिरण्यकशिपु आजा नय, से आक्कस" (हिरण्यकश्यपु राजा नहीं था, वह राक्षस था।) तब ध्रुव ने उसमें कुछ आपत्ति करने लायक नहीं पाया।
ऐसे ही समय नक्षत्रराय ने कक्ष में प्रवेश किया - बोला, "सुना है, महाराज ने मुझे राज-कार्य के लिए बुलाया है। आदेश के लिए प्रतीक्षा कर रहा हूँ।"
राजा ने कहा, "थोड़ी और प्रतीक्षा करो, कहानी पूरी कर दूँ।" कह कर कहानी पूरी की। "आक्कस दुष्ट" - कहानी सुन कर ध्रुव ने संक्षेप में इसी प्रकार का मत प्रकट किया।
ध्रुव के सिर पर मुकुट देख कर नक्षत्रराय को अच्छा नहीं लगा। जब ध्रुव ने देखा कि नक्षत्रराय की दृष्टि उसी पर जमी हुई है, तो उसने नक्षत्रराय को गंभीरता के साथ जता दिया, "आमी आजा।"
नक्षत्रराय बोला, "छी, ऐसी बात नहीं कहते।" कह कर ध्रुव के सिर से मुकुट उतार कर राजा के हाथ में देने को हुआ। ध्रुव मुकुट-हरण की संभावना देख कर सचमुच के राजा के समान चिल्ला पड़ा। गोविन्दमाणिक्य ने आसन्न विपत्ति से उसका उद्धार किया, नक्षत्र को रोक दिया।
अंत में गोविन्दमाणिक्य ने नक्षत्रराय से कहा, "सुना है, रघुपति ठाकुर बुरे उपायों से प्रजा में असंतोष भड़का रहा है। तुम स्वयं नगर में जाकर इस विषय में तहकीकात कर आओ और सच-झूठ का निर्णय करके मुझे सूचित करो।"
नक्षत्रराय ने कहा, "जो आज्ञा।" कह कर चला गया, किन्तु ध्रुव के सिर पर मुकुट उसे किसी भी तरह अच्छा नहीं लगा।
प्रहरी ने आकर सूचना दी, "पुरोहित ठाकुर का सेवक, जयसिंह भेंट करने की प्रार्थना लिए द्वार पर खड़ा है।"
राजा ने उसे आने की अनुमति प्रदान की।
जयसिंह राजा को प्रणाम करके हाथ जोड़ कर बोला, "महाराज, मैं सुदूर देश को जा रहा हूँ। आप मेरे राजा हैं, मेरे गुरु हैं, आपका आशीर्वाद लेने आया हूँ।"
राजा ने पूछा, "कहाँ जाओगे जयसिंह?"
जयसिंह बोला, "पता नहीं महाराज, वह कहाँ है, कोई नहीं कह सकता।"
राजा को बात कहने को तैयार देख कर जयसिंह ने कहा, "महाराज, मना मत कीजिए। आपके निषेध करने पर मेरी यात्रा शुभ नहीं होगी; आशीर्वाद दीजिए, यहाँ मेरा जो संशय था, वह समस्त संशय वहाँ दूर हो जाए। यहाँ के बादल, वहाँ छँट जाएँ। आपके समान राजा के राजत्व में जाऊँ, शान्ति पाऊँ।"
राजा ने पूछा, "कब जाओगे?"
जयसिंह ने कहा, "आज शाम को। अधिक समय नहीं है महाराज, तो मैं आज विदा लेता हूँ।"
कहते हुए राजा को प्रणाम करके राजा की चरण-धूलि ग्रहण की, राजा के चरणों पर दो बूँद आँसू टपक पड़े।
जयसिंह जब उठ कर जाने को हुआ, तो ध्रुव धीरे-धीरे जाकर उसका कपड़ा पकड़ कर बोला, "तुम मत जाओ।"
जयसिंह हँसते हुए घूम कर खड़ा हो गया, ध्रुव को गोद में उठा लिया, उसे चूमते हुए बोला, "किसके पास रहूँगा, बेटा? मेरा कौन है?"
ध्रुव ने कहा, "आमी आजा।"
जयसिंह ने कहा, "तुम लोग राजा के राजा हो, तुमने ही सबको बंदी बना कर रख छोड़ा है।"
ध्रुव को गोद से उतार कर जयसिंह कक्ष से बाहर निकल गया। महाराज गंभीर मुद्रा में बहुत देर तक सोचते रहे।