राज-सभा बैठी है। भुवनेश्वरी देवी मंदिर का पुरोहित कार्यवश राज-दर्शन को आया है।
पुरोहित का नाम रघुपति है। इस देश में पुरोहित को चोंताई संबोधित किया जाता है। भुवनेश्वरी देवी की पूजा के चौदह दिन बाद देर रात को चौदह देवताओं की एक पूजा होती है। उस पूजा के समय एक दिन दो रात कोई भी घर से नहीं निकल सकता, राजा भी नहीं। अगर राजा बाहर निकलते हैं, तो उन्हें चोंताई को अर्थ-दण्ड चुकाना पडता है। किंवदंती है कि इस पूजा की रात को मंदिर में नर-बलि होती है। इस पूजा के उपलक्ष्य में सबसे पहले जो पशु-बलि होती है, उसे राजबाड़ी के दान के रूप में ग्रहण किया जाता है। इसी बलि के पशु लेने के लिए चोंताई राजा के पास आया है। पूजा में और बारह दिन बचे हैं।
राजा बोले, "इस बरस से मंदिर में जीव-बलि नहीं होगी।"
सभा के सारे लोग अवाक रह गए। राजा के भाई नक्षत्रराय के सिर के बाल तक खड़े हो गए।
चोंताई रघुपति ने कहा, "क्या मैं यह सपना देख रहा हूँ!"
राजा बोले, "नहीं ठाकुर,हम लोग इतने दिन तक सपना देख रहे थे, आज हमारी चेतना लौटी है। एक बालिका का रूप धारण करके माँ मुझे दिखाई दी थीं। वे कह गई हैं, करुणामयी जननी होने के कारण माँ अपने जीवों का और रक्त नहीं देख सकतीं।"
रघुपति ने कहा, "तब माँ इतने दिन तक जीवों का रक्त-पान कैसे करती आ रही हैं?"
राजा ने कहा, "नहीं, पान नहीं किया। जब तुम लोग रक्तपात करते थे, वे मुँह घुमा लेती थीं।
रघुपति ने कहा, "आप राज-काज अच्छी तरह समझते हैं, संदेह नहीं, किन्तु पूजा के सम्बन्ध में आप कुछ नहीं जानते। अगर देवी को तनिक भी असंतोष होता, तो पहले मुझे ही पता चलता।"
नक्षत्रराय ने बहुत बुद्धिमान के समान गर्दन हिला कर कहा, "हाँ, यह सही बात है। अगर देवी को तनिक भी असंतोष होता, तो पहले पुरोहित जी को पता चलता।"
राजा बोले, "जिनका हृदय कठोर हो गया है, वे देवी की बात नहीं सुन पाते।"
नक्षत्रराय ने पुरोहित के मुँह की ओर देखा - भाव यही था कि इस बात का एक उत्तर देना आवश्यक है। रघुपति ने आग-बबूला होकर कहा, "महाराज, आप पाखंडी नास्तिक के समान बात कह रहे हैं।"
नक्षत्रराय ने धीमी प्रतिध्वनि की भाँति कहा, "हाँ, नास्तिक के समान बात कह रहे हैं।"
गोविन्दमाणिक्य ओजस्वी रूप से पुरोहित के चेहरे की ओर देखते हुए बोले, "ठाकुर, आप राजसभा में बैठ कर झूठमूठ समय नष्ट कर रहे हैं। मंदिर के काम में देर हो रही है, आप मंदिर जाइए। जाते हुए रास्ते में प्रचार कर दीजिए, मेरे राज्य में जो व्यक्ति देवता के सामने जीव-बलि चढ़ाएगा, उसे निर्वासन का दण्ड दिया जाएगा।"
तब रघुपति काँपते-काँपते उठ खड़ा होकर जनेऊ छूकर बोला, "तो, तुम्हारा विध्वंस हो जाए।"
सभासदों ने हाँ-हाँ करते हुए चारों ओर से पुरोहित को घेर लिया। राजा ने संकेत से सभी को रोका, सभी हट कर खड़े हो गए। रघुपति कहने लगा, "तुम राजा हो, तुम चाहो, तो प्रजा का सर्वस्व हरण कर सकते हो, इसी के चलते तुम माँ की बलि का हरण कर लोगे! ठीक है, तुम्हारा क्या सामर्थ्य! देखूँगा, मुझ रघुपति के माँ का सेवक रहते तुम कैसे पूजा में बाधा खड़ी करोगे!"
मंत्री राजा के स्वभाव से बहुत अच्छी तरह अवगत हैं। वे जानते हैं, राजा को संकल्प से जल्दी विचलित नहीं किया जा सकता। उन्होंने डरते हुए धीरे-धीरे कहा, "महाराज, आपके स्वर्गीय पितृ-पुरुष देवी के सामने निरंतर नियमित रूप से बलि देते आए हैं। कभी एक दिन के लिए भी इसमें अन्यथा नहीं घटा।"
मंत्री रुक गए।
राजा चुप रहे। मंत्री ने कहा, "आज इतने दिन बाद आपके पितृ-पुरुषों द्वारा प्रतिष्ठित उसी प्राचीन पूजा में बाधा खड़ी करने से वे लोग स्वर्ग में असंतुष्ट होंगे।"
महाराज सोचने लगे। नक्षत्रराय ने ज्ञान प्रदर्शित करते हुए कहा, "हाँ, वे स्वर्ग में असंतुष्ट होंगे।"
मंत्री फिर बोले, "महाराज, एक काम कीजिए, जहाँ सहस्र बलि दी जाती है, वहाँ एक-सौ बलि का आदेश दीजिए।"
सभासद वज्राहत के समान अवाक हो रहे, गोविन्दमाणिक्य भी बैठ कर सोचने लगे। क्रुद्ध पुरोहित अधीर होकर सभा से उठ कर जाने के लिए तैयार हो गया।
उसी समय पता नहीं कैसे, प्रहरियों की नजर बचा कर नंगे बदन, नंगे पैर एक छोटे बालक ने सभा में प्रवेश किया। राजसभा के बीच खड़े होकर राजा के चेहरे की ओर बड़ी-बड़ी आँखें उठा कर पूछा, "दीदी कहाँ है?"
विशाल राजसभा में सभी मानो सहसा निरुत्तर हो गए। विशाल भवन में केवल एक बालक की कंठ-ध्वनि प्रतिध्वनि बन कर गूँज उठी, "दीदी कहाँ है?"
राजा तत्क्षण सिंहासन से उतर कर बालक को गोद में उठा कर दृढ स्वर में मंत्री से बोले, "आज से मेरे राज्य में बलि नहीं चढाई जा सकेगी। इसके अलावा और बात मत कहना।"
मंत्री ने कहा, "जो आज्ञा।"
ताता ने राजा से पूछा, "दीदी कहाँ है?"
राजा बोले, "माँ के पास।"
ताता बहुत देर तक मुँह में अँगुली डाले चुप रहा, उसे लगा कि जैसे एक निर्णय पर पहुँच गया है। आज से राजा ने उसे अपने पास रख लिया। चाचा केदारेश्वर को भी राजबाड़ी में जगह मिल गई।
सभासद अपनी-अपनी बातें कहने लगे, "यह अराजक देश बन कर रह गया है। हमारे जानते, बौद्ध अराजक लोग ही रक्तपात नहीं करते, अंत में हम हिंदुओं के देश में भी क्या वही विधान चलेगा!"
नक्षत्रराय ने भी उन लोगों के मत का पूरा समर्थन करते हुए कहा, "हाँ, अंत में हिंदुओं के देश में भी क्या वही विधान चलेगा!"
सभी ने सोचा, इससे अधिक अवनति का लक्षण और क्या हो सकता है! अराजकों और हिंदुओं में क्या अंतर रहा!