डरबन मे मैने जो घर बसाया था, उसमे परिवर्तन तो किये ही थे। खर्च अधिक रखा था, फिर भी झुकाव सादगी की ओर ही था। किन्तु जोहानिस्बर्ग मे 'सर्वोदय' के विचारो ने अधिक परिवर्तन करवाये।

बारिस्टर के घर मे जितनी सादगी रखी जा सकती थी, उतनी तो रखनी शुरू कर ही दी। फिर भी कुछ साज-सामान के बिना काम चलाना मुश्किल था। सच्ची सादगी तो मन की बढ़ी। हर एक काम अपने हाथो करने को शौक बढ़ा और बालको को भी उसमें शरीक करके कुशल बनाना शुरू किया।

बाजार की रोटी खरीदने के बदले कूने की सुझाई हुई बिना खमीर की रोटी हाथ से बनानी शुरू की। इसमे मिल का आटा काम नही देता था। साथ ही मेरा यह भी ख्याल रहा था मिल मे पिसे आटे का उपयोग करने की अपेक्षा हाथ से पिसे आटे का उपयोग करने मे सादगी , आरोग्य और पैसा तीनो की अधिक रक्षा होती है। अतएव सात पौंड खर्च करके हाथ से चलाने की एक चक्की खरीद ली। उसका पाट वजनदार था। दो आदमी उसे सरलता से चला सकते थे, अकेले को तकलीफ होती थी। इस चक्की को चलाने मे पोलाक , मै और बालक मुख्य भाग लेते थे। कभी कभी कस्तूरबाई भी आ जाती थी, यद्यपि उस समय वह रसोई बनाने मे लगी रहती थी। मिसेज पोलाक के आने पर वे भी इसमे सम्मिलित हो गयी। बालको के लिए यह कसरत बहुत अच्छी सिद्ध हुई। उनसे कोई काम कभी जबरदस्ती नही करवाया। वे सहज ही खेल समझ कर चक्की चलाने आते थे। थकने पर छोड़ देने की उन्हें स्वतंत्रता थी। पर न जाने क्या कारण था कि इन बालको ने अथवा दूसरे बालको ने, जिनकी पहचान हमें आगे चलकर करनी है, मुझे तो हमेशा बहुत ही काम दिया है। मेरे भाग्य मे टेढे स्वभाव के बालक भी थे, अधिकतर बालक सौपा हुआ काम उमंग के साथ करते थे। 'थक गये' कहनेवाले उस युग के थोडे ही बालक मुझे याद है।

घर साफ रखने के लिए एक नौकर था। वह घर के आदमी की तरह रहता था और उसके काम मे बालक पूरा हाथ बँटाते थे। पाखाना साफ करने के लिए तो म्युनिसिपैलिटी का नौकर आता था, पर पाखाने के कमरे को साफ करने का काम नौकर को नही सौपा जाता था। उससे वैसी आशा भी नही रखी जाती थी। यह काम हम स्वयं करते थे और बालको को तालीम मिलती थी। परिणाम यह हुआ कि शुरू से ही मेरे एक भी लड़के को पाखाना साफ करने की घिन न रही और आरोग्य के साधारण नियम भी वे स्वाभाविक रूप से सीख गये। जोहानिस्बर्ग मे कोई बीमार तो शायद ही कभी पड़ता था। पर बीमारी का प्रसंग आने पर सेवा के काम मे बालक अवश्य रहते थे और इस काम को खूशी से करते थे।

मै यह तो नहीं कहूँगा कि बालको के अक्षर ज्ञान के प्रति मै लापरवाह रहा। पर यह ठीक है कि मैने उसकी कुरबानी करने मे संकोच नही किया। और इस कमी के लिए मेरे लड़को को मेरे विरुद्ध शिकायत करने का कारण रह गया है। उन्होने कभी कभी अपना असंतोष भी प्रकट किया है। मै मानता हूँ कि इसमे किसी हद तक मुझे अपना दोष स्वीकार करना चाहिये। उन्हें अक्षर ज्ञान कराने की मेरी इच्छा बहुत थी , मैं प्रयत्न भी करता था, किन्तु इस काम मे हमेशा कोई न कोई विध्न आ जाता था। उनके लिए घर पर दूसरी शिक्षा की सुविधा नही की गई थी , इसलिए मै उन्हें अपने साथ पैदल दफ्तर तक ले जाता था। दफ्तर ढाई मील दूर था , इससे सुबह शाम मिलाकर कम से कम पाँच मील की कसरत उन्हे औऱ मुझे हो जाती थी। रास्ता चलते हुए मै उन्हे कुछ न कुछ सिखाने का प्रयत्न करता था , पर यह भी तभी होता था, जब मेरे साथ दूसरा कोई चलने वाला न होता। दफ्तर मे वे मुवक्किलो व मुहर्रिरो के सम्पर्क मे आते थे। कुछ पढ़ने को देता तो वे पढते थे। इधर उधर घूम फिर लेते थे और बाजार से मामूली सामान खरीदना हो तो खरीद लाते थे। सबसे बड़े हरिलाल को छोड़कर बाकी सब बालको की परवरिश इसी प्रकार हुई। हरिलाल देश मे रह गया था। यदि मै उन्हें अक्षर ज्ञान कराने के लिए एक घंटा भी नियमित रूप से बचा सका होता , तो मै मानता कि उन्हें आदर्श शिक्षा प्राप्त हुई है। मैने ऐसा आग्रह नही रखा , इसका दुःख मुझे है और उन्हे दोनो को रह गया है। सबसे बड़े लड़के ने अपना संताप कई बार मेरे और सार्वजनिक रुप मे भी प्रकट किया है। दूसरो ने हृदय की उदारता दिखाकर इस दोष को अनिवार्य समझकर दरगुजर कर दिया है। इस कमी के लिए मुझे पश्चाताप नही है, अथवा है तो इतना ही कि मै आदर्श पिता न बन सका। किन्तु मेरी यह राय है कि उनके अक्षर ज्ञान की कुरबानी भी मैने अज्ञान से ही क्यो न हो, फिर भी सदभावपूर्वक मानी हुई सेवा के लिए ही की है। मै यह कह सकता हूँ कि उनके चरित्र निर्माण के लिए जितना कुछ आवश्यक रुप से करना चाहिये था, वह करने मे मैने कही भी त्रुटि नही रखी है। और मै मानता हूँ कि हर माता पिता का यह अनिवार्य कर्तव्य है। मेरा ढृढ विश्वास है कि अपने इस परिश्रम के बाद भी मेरे बालको के चरित्र मे जहाँ त्रुटि पायी जाती है, वहाँ वह पति-पत्नी के नाते हमारी त्रुटियो का ही प्रतिबिम्ब है।

जिस प्रकार बच्चो को माता पिता की सूरत-शकल विरासत मे मिलती है , उसी प्रकार उनके गुण-दोष भी उन्हें विरासत मे मिलते है। अवश्य ही आसपास के वातावरण के कारण इसमे अनेक प्रकार की घट-बट होती है , पर मूल पूँजी तो वही होती है, जो बाप-दादा आदि से मिलती है। मैने देखा है कि कुछ बालक अपने को ऐसे दोषो की विरासत से बचा लेते है। यह आत्मा का मूल स्वभाव है, उसकी वलिहारी है।

इन बालको की अंग्रेजी शिक्षा के विषय मे मेरे और पोलाक के बीच कितनी ही बार गरमागरम बहस हुई है। मैने शुरु से ही यह माना है कि जो हिन्दुस्तानी माता पिता अपने बालको को बचपन से ही अंग्रेजी बोलनेवाले बना देते है , वे उनके और देश के साथ द्रोह करते है। मैने यह भी माना है कि इससे बालक अपने देश की धार्मिक और सामाजिक विरासत से वंचित रहता है और उस हद तक वह देश की तथा संसार की सेवा के लिए कम योग्य बनता है। अपने इस विश्वास के कारण मै हमेशा जानबूझ कर बच्चो के साथ गुजराती मे ही बातचीत करता था। पोलाक को यह अच्छा नही लगता था। उनकी दलील यह थी कि मै बच्चो के भविष्य को बिगाड़ रहा हूँ। वे मुझे आग्रह पूर्वक समझाया करते थे कि यदि बालक अंग्रेजी के समान व्यापक भाषा को सीख ले , तो संसार मे चल रही जीवन की होड़ मे वे एक मंजिल को सहज ही पार कर सकते है। उनकी यह दलील मेरे गले न उतरती थी। अब मुझे यह याद नही है कि अन्त मे मेरे उत्तर से उन्हें संतोष हुआ था या मेरा हठ देखकर उन्होंने शान्ति धारण कर ली थी। इस संवाद को लगभग बीस वर्ष हो चुके है , फिर भी उस समय के मेरे ये विचार आज के अनुभव से अधिक ढृढ हुए है , और यद्यपि मेरे पुत्र अक्षर ज्ञान मे कच्चे रह गये है , फिर भी मातृभाषा का जो साधारण ज्ञान उन्हें आसानी से मिला है , उससे उन्हें और देश को लाभ ही हुआ है और इस समय वे देश मे परदेशी जैसे नही बन गये है। वे द्विभाषी तो सहज ही हो गये, क्योकि विशाल अंग्रेज मित्र मंडली के सम्पर्क मे आने से और जहाँ विशेष रुप से अंग्रेजी बोली जाती है ऐसे देश मे रहने से वे अंग्रेजी भाषा बोलने और उसे साधारणतः लिखने लग गये।

Please join our telegram group for more such stories and updates.telegram channel