भोग भोगना मैने शुरु तो किया, पर वह टिक न सका। घर के लिए साज-सामान भी बसाया , पर मेरे मन मे उसके प्रति कभी मोह उत्पन्न नही हो सका। इसलिए घर बसाने के साथ ही मैने खर्च कम करना शुरु कर दिया। धोबी का खर्च भी ज्यादा मालूम हुआ। इसके अलावा, धोबी निश्चित समय पर कपड़े नहीं लौटाता था। इसलिए दो-तीन दर्जन कमीजो और उतने कालरो से भी मेरा काम चल नही पाता था। कमीज रोज नही तो एक दिन के अन्तर से बदलता था। इससे दोहरा खर्च होता था। मुझे यह व्यर्थ प्रतीत हुआ। अतएव मैने घुलाई का सामान जुटाया। घुलाई कला पर पुस्तक पढी और धोना सीखा। काम का बोझ तो बढ़ा ही, पर नया काम होने से उसे करने मे आनन्द आता था।

पहली बार अपने हाथो घोये हुए कालर तो मैं कभी भूल नही सकता। उसमे कलफ अधिक लग गया था और इस्तरी पूरी गरम नही थी। तिस पर कालर के जल जाने के डर से इस्तरी को मैने अच्छी तरह दबाया भी नही था। इससे कालर मे कड़ापन तो आ गया, पर उसमे से कलफ झड़ता रहता था। ऐसी हालत मे मै कोर्ट गया और वहाँ के बारिस्टरो के लिए मजाक का साधन बन गया। पर इस तरह का मजाक सह लेने की शक्ति उस समय भी मुझ मे काफी थी।

मैने सफाई देते हुए कहा , 'अपने हाथो कालर धोने का मेरा यह पहला प्रयोग है , इस कारण इसमे से कलफ झडॉता हैं। मुझे इससे कोई अड़चल नही होती, तिस पर आप सब लोगो के लिए विनोद की इतनी साम्रगी जुटा रहा हूँ, तो घाते मे।'

एक मित्र मे पूछा, 'पर क्या धोबियो का अकाल पड़ गया हैं ?'

'यहां धोबी का खर्च मुझे तो असह्य मालूम होता है। कालर की कीमत के बराबर घुलाई हो जाती है और इतनी घुलाई देने के बाद भी धोबी की गुलामी करनी पडती है। इसकी अपेक्षा अपने हाथ से धोना मैं ज्यादा पसन्द करता हूँ।'

स्वावलम्बन की यह खूबी मै मित्रो को समझा नही सका।

मुझे कहना चाहिये कि आखिर धोबी के धंधे मे अपने काम लायक कुशलता मैने प्राप्त कर ली थी और घर की घुलाई धोबी की धुलाई से जरा भी घटिया नही होती थी। कालर का कड़ापन और चमक धोबी के धोये कालर से कम न रहती थी। गोखले के पास स्व. महादेव गोविन्द रानडे की प्रसादी-रुप मे एक दुपटा था। गोखले उस दुपटे को अतिशय जतन से रखते थे और विशेष अवसर पर ही उसका उपयोग करते थे। जोहानिस्बर्ग मे उनके सम्मान मे जो भोज दिया गया था , वह एक महत्त्वपूर्ण अवसर था। उस अवसर पर उन्होने जो भाषण दिया वह दक्षिण अफ्रीका मे उनका बड़े-से-बड़ा भाषण था। अतएव उस अवसर पर उन्हे उक्त दुपटे का उपयोग करना था। उसमे सिलवटे पड़ी हुई थी और उस पर इस्तरी करने की जरुरत थी। धोबी का पता लगाकर उससे तुरन्त इस्तरी कराना सम्भव न था। मैने अपनी कला का उपयोग करने देने की अनुमति गोखले से चाही।

'मैन तुम्हारी वकालत का तो विश्वास कर लूँगा , पर इस दुपटे पर तुम्हे अपनी धोबी-कला का उपयोग नही करने दूँगा। इस दुपटे पर तुम दाग लगा दो तो ?इसकी कीमत जानते हो?' यो कहकर अत्यन्त उल्लास से उन्होने प्रसादी की कथा मुझे सुनायी।

मैने फिर भी बिनती की और दाग न पड़ने देने की जिम्मेदारी ली। मुझे इस्तरी करने की अनुमति मिली और अपनी कुशलता का प्रमाण-पत्र मुझे मिल गया ! अब दुनिया मुझे प्रमाण-पत्र न दे तो भी क्या ?

जिस तरह मैं धोबी की गुलामी से छूटा, उसी तरह नाई की गुलामी से भी छूटने का अवसर आ गया। हजामत तो विलायत जानेवाले सब कोई हाथ से बनाना सीख ही लेते है, पर कोई बाल छाँटना भी सीखता होगा, इसका मुझे ख्याल नही हैं। एक बार प्रिटोरिया मे मैं एक अंग्रेज हज्जाम की दुकान पर पहुँचा। उसने मेरी हजामत बनाने से साफ इनकार कर दिया और इनकार करते हुए जो तिरस्कार प्रकट किया, सो घाते मे रहा। मुझे दुख हुआ। मै बाजार पहुँचा। मैने बाल काटने की मशीन खरीदी और आईने के सामने खडे रहका बाल काटे। बाल जैसे-तैस कट तो गये , पर पीछे के बाल काटने मे बड़ी कठिनाई हुई। सीधे तो वे कट ही न पाये। कोर्ट मे खूब कहकहे लगे।

'तुम्हारे बाल ऐसे क्यो हो गये है ? सिर पर चुहे तो नही चढ गये थे ?'

मैने कहा, 'जी नही, मेरे काले सिर को गोरा हज्जाम कैसे छू सकता हैं ? इसलिए कैसे भी क्यो न हो, अपने हाथ से काटे हुए बाल मुझे अधिक प्रिय है।'

इस उत्तर मे मित्रो को आश्चर्य नही हुआ। असल मे उस हज्जाम का कोई दोष न था। अगर वह काली चमड़ीवालो के बाल काटने लगता तो उसकी रोजी मारी जाती। हम भी अपने अछूतो के बाल ऊँची जाति के हिन्दूओ के हज्जाम को कहाँ काटने देते हैं ? दक्षिण अफ्रीका में मुझे इसका बदला एक नही स बल्कि अनेको बार मिला हैं, और चूकि मैं यह मानता था कि यह हमारे दोष का परिणाम है, इसलिए मुझे इस बात से कभी गुस्सा नही आया।

स्वावल्बन और सादगी के मेरे शौक ने आगे चलकर जो तीव्र स्वरुप धारण किया उसका वर्णन यथास्थान होगा। इस चीज का जड़ को मेरे अन्दर शुरु से ही थी। उसके फूलने-फलने के लिए केवल सिंचाई की आवश्यकता थी। वह सिंचाई अनायास ही मिल गयी।

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