इस महामारी ने गरीब हिन्दुस्तानियो पर मेरे प्रभाव को, मेरे धंधे का और मेरी जिम्मेदारी को बढा दिया। साथ ही , यूरोपियनो के बीच मेरी बढ़ती हुई कुछ जान पहचान भी इतनी निकट की होती गयी कि उसके कारण भी मेरी जिम्मेदारी बढने लगी।
जिस तरह वेस्ट से मेरी जान पहचान निरामिषाहारी भोजनगृह मे हुई , उसी तरह पोलाक के विषय मे हुआ। एक दिन जिस मेज पर मै बैठा था , उससे दूसरी मेज पर एक नौजवान भोजन कर रहे थे। उन्होने मिलने की इच्छा से मुझे अपने नाम का कार्ड भेजा। मैने उन्हें मेज पर आने के लिए निमंत्रित किया। वे आये।
'मैं 'क्रिटिक' का उप संपादक हूँ। महामारी विषयक आपका पत्र पढने के बाद मुझे आपसे मिलने की बडी इच्छा हुई। आज मुझे यह अवसर मिल रहा है।'
मि. पोलाक की शुद्ध भावना से मै उनकी ओर आकर्षित हुआ। पहली ही रात मे हम एक दूसरे को पहचानने लगे और जीवन विषयक अपने विचारो मे हमे बहुत साम्य दिखायी पडा। उन्हें सादा जीवन पसंद था। एक बार जिस वस्तु को उनकी बुद्धि कबूल कर लेती, उस पर अमल करने की उनकी शक्ति मुझे आश्चर्य जनक मालूम हुई। उन्होंने अपने जीवन मे कई परिवर्तन तो एकदम कर लिये।
'इंडियन ओपीनियन' का खर्च बढता जाता था। वेस्ट की पहली ही रिपोर्ट मुझे चौकानेवाली थी। उन्होने लिखा, 'आपने जैसा कहा था वैसा मुनाफा मै इस काम मे नही देखता। मुझे तो नुकसान ही नजर आता हैं। बही खातो की अव्यवस्था है। उगाही बहुत है। पर वह बिना सिर पैर की है। बहुत से फेरफार करने होगे। पर इस रिपोर्ट से आप घबराइये नही। मै सारी बातो को व्यवस्थित बनाने की भरसक कोशिश करुँगा। मुनाफा नही है , इसके लिए मैं इस काम को छोडूंगी नही।'
यदि वेस्ट चाहते तो मुनाफा न होता देखकर काम छोड सकते थे और मै उन्हें किसी तरह का दोष न दे सकता था। यही नहीं, बल्कि बिना जाँच पड़ताल किये इसे मुनाफेवाला काम बताने का दोष मुझ पर लगाने का उन्हें अधिकार था। इतना सब होने पर भी उन्होंने मुझे कभी कड़वी बात तक नही सुनायी। पर मै मानता हूँ कि इस नई जानकारी के कारण वेस्ट की दृष्टि मे मेरी गितनी उन लोगो मे हुई होगी , जो जल्दी मे दूसरो का विश्वास कर लेते है। मदनजीत की धारणा के बारे मे पूछताछ किये बिना उनकी बात पर भरोसा करके मैने वेस्ट से मुनाफे की बात कही थी। मेरा ख्याल है कि सार्वजनिक काम करने वाले को ऐसा विश्वास न रखकर वही बात कहनी चाहिये जिसकी उसने स्वयं जाँच कर ली हो। सत्य के पुजारी को तो बहुत साबधानी रखनी चाहिये। पूरे विश्वास के बिना किसी के मन पर आवश्यकता से अधिक प्रभाव डालना भी सत्य को लांछित करना है। मुझे यह कहते हुए दुःख होता हैं कि इस वस्तु को जानते हुए भी जल्दी मे विश्वास करके काम हाथ मे लेने की अपनी प्रकृति को मै पूरी तरह सुधार नहीं सका। इसमे मैं अपनी शक्ति से अधिक काम करने के लाभ को दोष देखता हूँ। इस लोभ के कारण मुझे जितना बेचैन होना पड़ा हैं, उसकी अपेक्षा मेरे साथियों को कहीं अधिक बेचैन होना पड़ा हैं।
वेस्ट का ऐसा पत्र आने से मै नेटाल के लिए रवाना हुआ। पोलाक तो मेरी सब बाते जानने लगे ही थे। वे मुझे छोड़ने स्टेशन तक आये और यह कहकर कि 'यह रास्ते में पढ़ने योग्य हैं , आप इसे पढ़ जाइये , आपको पसन्द आयेगी।' उन्होने रस्किन की 'अंटु दिस लास्ट' पुस्तक मेरे हाथ मे रख दी।
इस पुस्तक को हाथ मे लेने के बाद मैं छोड ही न सका। इसने मुझे पकड़ लिया। जोहानिस्बर्ग से नेटान का रास्ता लगभग चौबीस घंटो का था। ट्रेन शाम को डरबन पहुँचती थी। पहुँचने के बाद मुझे सारी रात नींद न आयी। मैने पुस्तक मे सूचित विचारो को अमल ने लाने को इरादा किया।
इससे पहले मैने रस्किन की एक भी पुस्तक नहीं पढी थी। विद्याध्ययन के समय मे पाठ्यपुस्तको के बाहर की मेरी पढ़ाई लगभग नही के बराबर मानी जायगी। कर्मभूमि मे प्रवेश करने के बाद समय बहुत कम बचता था। आज भी यही कहा जा सकता हैं। मेरा पुस्तकीय ज्ञान बहुत ही कम है। मै मानता हू कि इस अनायास अथवा बरबस पाले गये संयम से मुझे कोई हानि नहीं हुई। बल्कि जो थोडी पुस्तके मैं पढ पाया हूँ , कहा जा सकता हैं कि उन्हें मैं ठीक से हजम कर सका हूँ। इन पुस्तकों मे से जिसने मेरे जीवन मे तत्काल महत्त्व के रचनात्मक परिवर्तन कराये , वह 'अंटु दिस लास्ट' ही कही जा सकती हैं। बाद मे मैने उसका गुजराती अनुवाद किया औऱ वह 'सर्वोदय' नाम से छपा।
मेरा यह विश्वास है कि जो चीज मेरे अन्दर गहराई मे छिपी पड़ी थी , रस्किन के ग्रंथरत्न मे मैने उनका प्रतिबिम्ब देखा। औऱ इस कारण उसने मुझ पर अपना साम्राज्य जमाया और मुझसे उसमे अमल करवाया। जो मनुष्य हममे सोयी हुई उत्तम भावनाओ को जाग्रत करने की शक्ति रखता है, वह कवि है। सब कवियों का सब लोगो पर समान प्रभाव नही पडता , क्योकि सबके अन्दर सारी सद्भावनाओ समान मात्रा मे नही होती।
मै 'सर्वोदय' के सिद्धान्तो को इस प्रकार समझा हूँ :
1. सब की भलाई मे हमारी भलाई निहित हैं .
2. वकील और नाई दोनो के काम की कीमत एक सी होनी चाहिये, क्योकि आजीविका का अधिकार सबको एक समान है।
3. सादा मेहनत मजदूरी का किसान का जीवन ही सच्चा जीवन हैं।
पहली चीज मै जानता था। दूसरी को धुँधले रुप मे देखता था। तीसरी की मैने कभी विचार ही नही किया था। 'सर्वोदय' ने मुझे दीये की तरह दिखा दिया कि पहली चीज मे दूसरी चीजें समायी हुई है। सवेरा हुआ और मैं इन सिद्धान्तों पर अमल करने के प्रयत्न मे लगा।