आप कुपथगामी लोगों का करते रहते हो नियमन
कलह शान्त करते हो एवं रक्षण करते हो प्रभवन,
अति ऐश्वर्य प्राप्त होने पर बने आपके बहुत स्वजन
किन्तु प्रजा के बन्धु कार्य के आप समापक हितसाधन’
‘सत्य, क्लान्त मन वाला मैं अब हूँ उत्साहित यह सुनकर’
ऐसा कहकर नृप तदनन्तर झूम उठे प्रफुलित होकर
तब प्रतिहारी नृप से बोली ‘सम्मार्जित अभिनव विरचित
हवन कार्य मे अति उपयोगी निकट बॅंधी इस गाय सहित
अग्निशरण का यह प्रकोष्ठ है, करें देव अब आरोहण’
लेकर परिजन का अवलम्बन वैसा करके आरोहण
हुए व्यवस्थित नृप तब पॅूछे ‘वेत्रवती! है किस कारण
ऋषि काश्यप ने पास हमारे किया तपस्वियों का प्रेषण?
तपधारी, व्रतधारी उन सब ऋषियों का तप धर्मोचित
कहीं विघ्न बाधा के कारण हो तो नहीं रहा दूषित?
अथवा कहीं धर्मचारीजन इन तपस्वियों के ऊपर
अनुचित हिंसा आदि कृत्य का होता हो प्रयोग दुष्कर,
किंवा, मेरे दुराचरण के फलस्वरूप होकर प्रेरित
वन में निहित लताओं का है प्रसव हो गया प्रतिबन्धित
इन सब तर्क वितर्कों से है अति व्याकुल यह मेरा मन’
यह सुनकर प्रतिहारी बोली दुःख का करती हुई शमन
‘मेरा मत है सद्क्त्यों से आनन्दित होकर ऋषिजन
हैं कृतज्ञवश करने आये महाराज का अभिनन्दन’
तत्पश्चात् गौतमी के संग शकुन्तला को आगे कर
किया प्रवेश सभी ऋषियों ने इस प्रकार सादर चलकर,

इनके आगे रहे कंचुकी साथ पुरोहित को लेकर
कहा कंचुकी ने लोगों से ‘कृपया आयें आप इधर’
शारंगरव बोले ‘शारद्वत! लगता है आश्चर्यजनक
कि सौभाग्यवान नृप की है स्थिति मर्यादासूचक,
सभी वर्ण के लोग यहॉं पर निम्नवर्ण तक के जन भी
करते नहीं कदापि अनुसरण दुराचरण का मार्ग कभी,
फिर भी जनाकीर्ण इस थल को मैं शास्वत निर्जन सेवित
मन से समझ रहा हूँ जैसे यहॉं व्याप्त है अग्नि ज्वलित’
शारंगरव को क्लान्त देखकर शारद्वत ने किया कथन
‘आप नगर आने के कारण इस प्रकार से हैं अनमन,
मैं भी वैसा समझ रहा हूँ सुखभोगी इन लोगों को
यथा नहाया व्यक्ति समझता किसी तेल अनुलेपित को,
ज्यों पवित्र अपवित्र व्यक्ति को ज्ञानीजन अज्ञानी को
तथा स्वतन्त्र मति वाला कोई समझ रहा हो बन्दी को’
तभी अपशकुन को सूचित कर शकुन्तला धीरे बोली
‘अरे, फड़क क्यों रही हमारी अभी ऑख दायीं वाली’
सुनी गौतमी, बोली ‘पुत्री! हो यह उदित अमंगल नष्ट,
सुख दें पतिकुल देव तुम्हारे, नहीं प्राप्त हो तुझको कष्ट’
तभी पुरोहित परिचय देते नृप के प्रति करके संकेत
सादर बोले तपस्वियों से इस प्रकार करके अभिप्रेत
‘चार वर्ण चारों आश्रम के अभिरक्षक पालक राजन
आसन त्याग प्रतीक्षारत हैं, करिए इनका अवलोकन’
यह सुनकर शारंगरव बोले ‘अरे श्रेष्ठ ब्राह्मण! यद्यपि
यह उपक्रम अभिनन्दनीय है, हैं तटस्थ हम यहॉं तदपि,

क्योंकि हो जाते हैं पादप अधोमुखी फल से लदकर
अतिशय नीचे झुक जाते हैं बादल नव जल संचय कर,
हो जाता है वैभव पाकर अति विनम्र सज्जन का भाव
परहित निरत व्यक्तियों का तो होता ही है यही स्वभाव’
प्रतिहारी बोली ‘हे राजन्! है इनका मुख वर्ण प्रसन्न
शान्तिपूर्ण उद्देश्य हेतु ही यहॉं पधारे हैं ऋषिजन’
तपस्वियों के साथ खड़ी थी शकुन्तला भी होकर मौन
राजन उसका अवलोकन कर बोले ‘यह देवी है कौन?’
मध्य पाण्डुपत्रों में किसलय तपस्वियों में यह उस भॉंति
घूँघट डाले हुए कौन यह अनतिव्यक्त है जिसकी कान्ति?’
नृप के ऐसी जिज्ञासा पर करने व्यक्त तर्क अतएव
शकुन्तला को देख अधिप से प्रतिहारी बोली ‘हे देव!
कौतूहल से युक्त हमारी बुद्धि हो रही अवरोधित
फिर भी निश्चय इसकी आकृति दर्शनीय है परिलक्षित’
प्रतिहारी से ऐसा सुनकर राजन बोले धर्म उचित
‘पर स्त्री पर कभी ध्यान से दृष्टि डालना है अनुचित’
नृप से यह सुनकर शकुन्तला भाव उपेक्षा के दुख में
हाथ वक्षस्थल पर रखकर करने लगी कथन मन में
‘अरे हृदय! क्यों कॉंप रहे हो इस प्रकार से हुए अधैर्य?
आर्यपुत्र का प्रेम सोचकर रखो अभी कुछ क्षण तक धैर्य’
तभी पुरोहित आगे बढ़कर अधिपति से यह किया कथन
‘विधि विधान से पूजित हैं ये यहॉं उपस्थित तपसीजन,
आये हैं ये उपाध्याय का लिए सॅंदेश, उसे सुन लें’
नृप बोले ‘मैं सावधान हूँ, भगवन् की आज्ञा बोलें’

तपस्वियों ने हाथ उठाकर बोला ‘महाराज की जय’
तदनन्तर ही तपस्वियों को किए अधिप प्रणाम सविनय,
इस अभिवादन पर ऋषि बोले ‘करें अभीष्ट वस्तु को प्राप्त’
नृप पूँछे ‘मुनियों का तप तो है निर्विघ्न, कुशल है व्याप्त?’
कहा तपस्वियों ने ‘हे राजन! अभिरक्षित होकर तुमसे
सत्पुरुषों के धर्म कार्य में विघ्न कभी संभव कैसे?,
उष्मरश्मि भगवान सूर्य का होने पर देदीप्य प्रभाव
किस प्रकार से अन्धकार का हो सकता है आविर्भाव’
नृप बोले ‘तो निश्चय मुझको नृप कहलाना हुआ सफल,
अच्छा तो भगवन काश्यप हैं लोक अनुग्रह हेतु कुशल?’
ऋषिजन बोले ‘सिद्धपुरुष की आत्मकुशलता है स्वाधीन
कहा उन्होंने यही आपका प्रथम पूँछकर कुशल नवीन’
नृप उत्कंठित होकर बोले ‘भगवन् का क्या है आदेश?’
काश्यप के स्वर में शारंगरव कहा अधिप से वह सन्देश
‘जो नृप ने मेरी कन्या से यहॉं किया गान्धर्व विवाह
मैं उसकी अनुमति देता हूँ मन में भरकर प्रीति अथाह,
क्योंकि हो तुम पूज्यजनों में जाने जाते परम महान
एवं पुत्री शकुन्तला है पुण्य क्रिया की मूर्ति समान,
तुल्यगुणी वधु वर दोनों का इस प्रकार करके संयोग
नहीं हुए हैं प्राप्त प्रजापति चिरकालिक निन्दागत योग,
अतः इस समय गभग्वती इस शकुन्तला को उचित प्रकार
पति पत्नी का धर्म निभाने, हे राजन्!, करिए स्वीकार’
तत्पश्चात् गौतमी बोली ‘आर्य! मुझे है कुछ कहना,
अवसर नहीं मुझे इस क्षण में यहॉं कहॅूं आशय अपना,

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