उस क्षण आये ऋषिकुमार दो लेकर कुछ आभूषण को
बोले कि ‘यह अलंकरण है, करें अलंकृत देवी को’
विस्मित हुईं देखकर वे सब तभी गौतमी प्रश्न किया
‘नारद वत्स! कहॉं से तुमने अलंकरण ये प्राप्त किया’
‘पिता काश्यप के प्रभाव से’ ऋषिकुमार ने व्यक्त किया
पुनः गौतमी की उत्सुकता ‘तो मानसिक सिद्धि से क्या?’
समाधान तब किया अन्य ने ‘नहीं कदापि हुआ ऐसा,
जिस प्रकार इनको पाया हूँ सुनिए कहता हूँ वैसा,
पूजनीय ऋषि ने आज्ञा दी कि शकुन्तला के हित में
लाओ पुष्प वनस्पतियों से इस प्रकार की आज्ञा में
किसी वृक्ष ने प्रकट किया तब इन्दु पाण्डु मंगल परिधान,
किसी वृक्ष ने लाक्षारस का चरण भोग हित किया विधान,
अन्य कई वृक्षों के द्वारा मणिबन्धन तब उठे हुए
किसलय द्वन्द्वी वन देवों के हाथों से आभरण दिए’
प्रियंवदा ने शकुन्तला से कहा उसी को की लक्षित
‘सखि! इस अनुग्रह से हम सबको ऐसा होता है सूचित-
राजलक्ष्मी भोग तुम्हारा पति-गृह में है सम्भावित’
प्रियंवदा से ऐसा सुनकर हुई शकुन्तला कुछ लज्जित
ऋषिकुमार नारद ने बोला ‘आओ गौतम उधर चलें
स्नानक्रिया निवृत्त ऋषिवर को वृक्षों की सेवा बोलें’
ऋषिकुमार गौतम बोला तब ‘ऐसा ही हो’ यह कहकर
चले गये वैसा ही तत्क्षण मिलकर दोनों साथ उधर
तब वे दोनों सखियॉं बोलीं ज्यों बनकर अज्ञानी गण
‘अये! नहीं उपभोग किया है हम दोनों ने आभूषण,
चित्रकर्म परिचय के द्वारा अभिनव अलंकार विन्यास
तदनुसार ही सोच सोचकर करती हूँ अब एक प्रयास,
चल, तेरे अंगों पर सज्जित करती हूँ ये आभूषण’
यह सुनकर बोली शकुन्तला ‘सखि! तुम हो अत्यन्त निपुण’
दोनों सखियॉं शकुन्तला का करने लगी अलंकृत गात
निवृत्त हुए स्नान कार्य से, आकर बोली काश्यप तात
‘आज विदा होगी शकुन्तला सोच सोचकर मेरा मन
अति विषाद से भरा हुआ है, करता है कातर क्रन्दन,
मेरे स्वर स्तम्भित से हैं अश्रुवृत्ति भी है कलुषित
पुत्री से विछोह के कारण चिन्ता से है दृष्टि जड़ित,
जब स्नेह भाववश मेरा मन है प्रबल विकल इतना
तब क्यों ना तनया वियोग से हों अति पीड़ित गृहीजना’
‘हुआ प्रसाधन कार्य पूर्ण अब क्षौम युगल यह धारण कर’
सखियों के ऐसा कहने पर किया वस्त्र धारण उठकर
कहा गौतमी ने तब ‘पुत्री! सदाचार का पालन कर
प्रेमप्रवाही दृग से मिलने हुए उपस्थित हैं गुरुवर’
सदाचारवश लज्जित होकर किया श्रेष्ठ का अभिवादन
‘तात! प्रणाम कर रही हूँ मैं’ ऐसा कहकर किया नमन
तब अपने आशीष वचन में बोले काश्यप ‘प्रिय तनया!
तुम ययाति की शर्मिष्ठा ज्यों तत् समान हो पति प्रिया,
जिस प्रकार से शर्मिष्ठा ने किया प्राप्त सुत पुरु जैसा
शर्मिष्ठा सम चक्रवर्ती सुत प्राप्त करो तुम भी वैसा’
कहा गौतमी ने ‘हे भगवन्! अभी किए जो आप मुखर
वचन नहीं आशीर्वाद के यह तो है निश्चय ही वर’
विह्वल काश्यप बोले ‘पुत्री!’ ज्यों बिखेर दी थी करुणा
‘डाली गई अभी आहुतियुत करो अग्नि की प्रदक्षिणा’
यथा उचित सब ने विधान को प्रतिपादित की निःसंवाद
और काश्यप ऋक्छन्दों से किए पठन यह आशीर्वाद
‘वेदि समान्तर सभी ओर इन निर्मित समिधाओं से युक्त
यज्ञभूमि के प्रान्त भाग में बिछे हुए दर्भों से युक्त
ये समक्ष अवलोकित होती यज्ञ अग्नियॉं हैं जो व्याप्त
हवि सुगन्ध से पाप दूर कर तुम्हें करायें शुचिता प्राप्त,
अब प्रस्थान करो’ यह कहकर दृष्टि डालकर तभी वहॉं
नहीं देखकर प्रश्न किया यह ‘हैं शारंगरव आदि कहॉं?’
तभी शिष्य आकर यह बोला ‘हम दोनों यह हैं, भगवन्!’
काश्यप बोले ‘तुम भगिनी के, करो मार्ग का निर्देशन’
शारंगरव यह आज्ञा पाकर बोला ‘आप चलें इस ओर’
विदा हुई इस क्षण शकुन्तला सभी हुए थे भाव विभोर
‘हे संनिहित तपोवन वृक्षों!’ यह पुकार बोले काश्यप
‘जो तुमको जल बिना पिलाये नहीं पान करती थी आप,
जिसके प्रिय आभूषण, तब भी, रोंक रखी कामना बलात्
नहीं तोड़ती थी कलियों को तुम सब के स्नेहवशात्
प्रथम बार जब भी तुम सब का होता कुसुम प्रसूति प्रभव
उस क्षण स्नेहभाव के कारण होता था जिसका उत्सव
वह शकुन्तला अपने पति गृह होकर विदा जा रही आज,
सब आज्ञा दें’ यह कहकर तब बोले सुन कोकिल आवाज
‘बन्धु-वृक्षगण से शकुन्तला ग्रहण कर लिया है अनुमति
क्योंकि कल कोकिल स्वर से वे ऐसा प्रकट किए सन्मति’
मंगलमय की शुभ्र कामना जुड़ी श्रृंखला एक अभी
गगन लोक से दिव्य छन्द यह पड़ा सुनाई और तभी-
‘इस शकुन्तला का हो यह पथ हरित कमलिनी से कमनीय
मिलने वाले तालाबों से मध्य मध्य में हो रमणीय
छायादार द्रुमों के कारण रुक रुक कर आने वाला
रवि किरणों का तापमान हो मन्द मन्द मृदुमय ज्वाला,
हों सुखदायी कोमल रजकण जल पुष्पित पंकज रज इव
शान्त और अनुकूल पवन हो, इस प्रकार हो सर्वे शिव’
इस प्रकार के स्वस्ति छन्द को सभी उपस्थित पुर परि जन
विस्मय सहित सुना कर्णों से शान्तिपूर्वक देकर मन
दिव्य छन्द सुनकर तदनन्तर कहा गौतमी न उससे
‘पुत्री! स्नेहयुक्त होकर ये बन्धुजनों के ही जैसे
तपोभूमि के देवगणों ने तुझको जाने की अनुमति
अपने द्वारा दे दी है, अब इनको कर प्रणाम भगवति’
सप्रणाम करके परिक्रमा प्रियंवदा की ओर गई
शकुन्तला उससे कुछ कहने उस स्थल से अलग हुई
‘सखि प्रियंवदे! अन्तरमन में निश्चित, जो जग रही अभी
आर्यपुत्र के दर्शन की यह उत्सुकता होने पर भी
आश्रम पद के परित्याग के दुःख के कारण से मेरे
चरण युगल बढ़ नहीं रहे हैं ज्यों ये बन्धन से घेरे’
प्रियंवदा बोली तत्क्षण ही शकुन्तला ये यह सुनकर
‘सखी! तपोवन के वियोग से केवल नहीं तुम्हीं कातर
तुझसे विरह प्रभव होने पर है ऐसी स्थिति निर्मित
आज तपोवन की भी वैसी विरह दशा है परिलक्षित,