त्याग दिए हैं ग्रास मृगों ने नृत्य त्याग कर दिए मयूर
पीत पत्र छोड़ती लताएं छोड़ रही मानो दृग नीर’
तभी स्मरण करके, जाकर शकुन्तला बोली ‘हे तात!
लताभगिनि वन-ज्योत्स्ना से तब तक कर लूँ अनुमति प्राप्त’
काश्यप बोले ‘जान रहा हूँ तुझे सहोदरि सा है स्नेह
यह दाहिनी ओर स्थित है जा कर दे सिंचन दृग-मेह’
तब शकुन्तला लता लिपटकर बोली ‘अयि वन ज्योत्स्ने!
आम्रवृक्ष की संगत में हो तब भी मुझको तू अपने
फैले हुए भुजा शाखा से आत्मीय आलिंगन कर
दूरवर्तिनी हो जाऊॅंगी आज कान्त के घर जाकर’
यह विलोककर तुष्टि प्राप्तकर बोले ऋषि काश्यप प्रफुलित
‘मेेरे द्वारा पूर्व समय ही हेतु तुम्हारे संकल्पित
आत्म सदृश स्वामी को तुमने शुचि कर्मों से प्राप्त किया
नवमालिका लता इसको भी इस रसाल ने प्रश्रय दिया,
तेरे वा इसके प्रसंग में चिन्तामुक्त हुआ सम्प्रति
इधर पन्थ पर जाओ पुत्री मै भी देता हूँ अनुमति’
शकुन्तला बोली सखियों से ‘मेरी सखियों! मुझे सुनो,
तुम दोनों अपने हाथों में इसे धरोहर सा मानों
करती हुई रुदन, पीड़ा में दोनो बोलीं ‘सखी! कहो
हमें, अभागिनि जन को किसके हाथ समर्पित करती हो?’
‘अनुसूया! मत रुदन करो’ कह काश्यप व्यक्त किए मन्तव्य
‘शकुन्तला को धैर्य बॅंधाना तुम दोनों का है कर्तव्य’
कुछ पग बढ़े सभी, तब फिर मुड़ शकुन्तला बोली ‘हे तात!
यही, उटजपर्यन्तचारिणी, गर्भमन्थरा मृगी सश्रान्त
जब सुखपूर्वक प्रसव करे, तब मुझको यह करने सूचित
किसी निवेदक को संदेश दे आप कीजिएगा प्रेषित’
काश्यप बोले सकारात्मक ‘नहीं इसे भूलेंगे हम’
पुनः चली जैसे वह पथ पर गति में हुआ तभी व्यतिक्रम
यह अनुभव करते ही बोली ‘अरे कौन है जो ऐसे
मेरे निकट यहॉं आ करके लिपट रहा है वस्त्रों से’
अवलोकन कर शीघ्र झुक गयी भरकर स्नेहजनित संताप
इसे देखकर पीड़ित मन से तत्क्षण बोले ऋषि काश्यप
‘पुत्री! जिसके कुश-सूची से आहत मुख में क्षतनाशक
तैल इंगुदी लेपन तुमने किया घाव भर जाने तक
पोषित श्यामक तृण विशेष की मुष्टिग्रहीत ग्रास द्वारा
छोड़ रहा है नहीं वही यह पुत्रकृतक मृग पथ तेरा’
शकुन्तला मृग को कर लक्षित बोली ‘वत्स! अरे तुम क्यों
सहनिवास की परित्यागिनी का है अनुसरण कर रहा यों?
अचिर प्रसूत बिना मॉं के ही हो तुम मुझसे ही पोषित
तात करेंगे तेरी चिन्ता मुझसे होने पर विरहित,
अतः लौटकर आश्रम को जा, कर इन वचनों का सम्मान’
ऐसा कहकर शकुन्तला ने रोते हुए किया प्रस्थान
काश्यप ऋषि ने दुःख से भीगे स्थिति का करके आभास
शकुन्तला को ढ़ाढ़स देने ऐसा कहते किए प्रयास
‘उद्गत भ्रू वाले नयनों के वृत्ति निरोधक ऑंसू को
अपना धीरज धारण करके, मत रोओ, बहना रोंको,
अवनत-उन्नत निहित अलक्षित भूमि भाग के इस पथ पर
तेरे चरण अवश्य रूप से विषम पड़ रहे इधर उधर’
शारंगरव बोला ‘हे भगवन्! कुछ ऐसी है श्रुति प्रचलित
प्रियजन का अनुसरण नीर तक करना ही सर्वथा उचित,
यहॉं निकट ही तीर, सरोवर है यह स्थित देखें आप
यहॉं बैठकर आश्रम के प्रति तात लौट सकते हैं आप’
तब काश्यप बोले यह सुनकर करके अपना चरण विराम
‘तो इस पीपल तरु छाया में थोड़ा सा कर लूँ विश्राम’
ऋषि काश्यप के यह कहने पर बैठ गये सब पुर परि जन
चिन्ताकुल काश्यप तब ऐसा लगे सोचने मन ही मन
‘महानुभाव दुष्यन्त को हमें क्या देना चाहिए संदेश?
इस बेला में शीघ्र शोच्य यह जगा रहा था हृदय कलेश’
रुककर उसी सरोवर में कुछ शकुन्तला देखी जैसे
अनुसूया को अलग बुलाकर अशुभ शब्द बोली वैसे
‘देख, कमलिनी पत्रान्तर में छिपे हुए अपने प्रिय को
नहीं देखकर आतुर चकवी बोल रही है अपने को
‘दुष्कर कर्म कर रही हूँ मैं’ इस पर बोली अनुसूया
‘सखी! नहीं बोलो तुम ऐसा’ कहकर यह मन्तव्य किया
‘सम्मुख दृश्यमान यह चकवी प्रिय वियोग दुःख के कारण
दीर्घ प्रतीतमान रजनी का करती है वपु पारायण,
अरे विशाल विरह दुःख को भी आशाओं का दृढ़ बन्धन
सहन कराता ही है क्योंकि इसमें निहित सुखान्त मिलन’
चिन्तन करके काश्यप बोले ‘शारंगरव! तेरे द्वारा
शकुन्तला को आगे करके मेरे वचनों का सारा
कथन किया जाना है नृप से मेरा है जो यह सन्देश’
शारंगरव बोला ‘हे भगवन्! आप करें मुझको आदेश’
‘संयमधन इन तपसी के प्रति अपने ऊॅंचे कुल के प्रति
इस शकुन्तला के प्रति एवं स्वयं आप नृप अपने प्रति
तथा बन्धुओं के प्रति, जो भी अनाधिकृत हो कोई कार्य
अपना वह स्नेह प्रवृति भी, सब प्रकार से उचित विचार्य
अन्य भार्या के समान ही साधारण आदर के साथ
अधिप आप इस शकुन्तला को गौरव देकर करें सनाथ,
इससे अधिक भाग्य के वश है जो भी है इसका सौभाग्य
अकथनीय है वधु कुल से वह जो भी है भविष्य संभाव्य’
शारंगरव यह प्रवचन सुनकर बोला छूकर युगल चरण
‘भगवन्! यह सन्देश आपका है मैंने कर लिया ग्रहण’
पुनः काश्यप शकुन्तला से बोले ‘वत्से! मुझको सुन,
तुझे बताना है अब मुझको जीवन धन के अनुशासन,
वनवासी होने पर भी हम सभी कर्म को किए मनन
लौकिक ज्ञान जानते हैं हम होने पर भी तपसीजन’
शारंगरव ने सुनकर इस पर किया प्रकट अपना आशय
‘नहीं है कोई विषय अगोचर बुद्धिमान जन से निश्चय’
काश्यप बोले शुभ वचनों को तथा दिए शिक्षा उसको
‘आज यहॉं से जाकर पुत्री प्राप्त करो तुम पति कुल को,
गुरूजनों की सेवा करना सपत्नियों से सखि व्यवहार
पति के द्वारा तिरस्कार पर नहीं कोप, अनुचित आचार,
सेवकजन पर अति उदार हो और भाग्य पर गर्व रहित
इस प्रकार युवती होती हैं गृहिणी पद से सम्मानित,
हो इसके विपरीत तरुणियॉं कुल को देती दुःख विकार,
या, बोलो गौतमी तुम्हारा क्या है अपना उचित विचार?’