तृतीय सर्ग

थी सम्पन्न हो रही पल पल आश्रम यज्ञ क्रिया निर्बाध
तपसीजन थे अनुष्ठान के कर्मों के तल्लीन अगाध
यज्ञ क्रिया के लिए कुशा कुछ लाने गया कण्व का शिष्य
चला आ रहा था कुश लेकर चिन्तन करता भाव अदृश्य
‘कितने हैं प्रभावशाली ये महानुभाव राजन दुष्यन्त
इनके यहॉं प्रवेश मात्र से है निर्बाध यज्ञ आद्यन्त
शर-संधान प्रयत्न कहो क्या इस उपक्रम से रहकर दूर
प्रत्यंचा की ध्वनि विशेष से भगा दिए हैं राक्षस क्रूर’
लगा सोचने ‘चलता हूँ अब मैं ऋत्विग लोगों के पास
वेदी के आस्तरण हेतु कुश उन्हें सौंपना प्रथम प्रयास’
चला जा रहा था चिन्तनरत आती दूर समक्ष तदा-
पूँछा उससे उच्च शब्द में ‘अरे! कहॉं तुम प्रियंवदा?’
कौन प्रयोजन तुम्हें आ पड़ा, यह खश अनुलेपन किस पर?
नलिनी पत्र मृणालयुक्त यह कहॉं जा रही हो लेकर?’
कुछ सुनकर बोला विस्मय में ‘क्या कहती हो, अहा अनर्थ!,
आतप से आहत होने से है शकुन्तला अति अस्वस्थ?
उसका तन संताप निवारण करो शीघ्र तुम किसी प्रकार
तुम जाओ अब त्वरित यहॉं से और करो उसका उपचार,
वह भगवान कण्व कुलपति की निश्चय ही है प्राण समान
शीघ्र करेंगी मेरा कुश-जल देवि गौतमी उसे प्रदान’

नगर गमन से मुक्त, पुनः नृप इधर मदन से हुए विकल
तपसी बाला के प्रसंग फिर गये विचारों में घुल मिल,
मदन व्यथित नृप लगे सोचने रुचि-भय-निहित उचित अनुचित
‘तपसीजन के तप प्रभाव से हूँ मैं भलीभॉंति परिचित,
वह शकुन्तला पराधीन है मुझको यह है पूर्ण विदित
तो भी, हूँ असमर्थ, हृदय यह उसके सुख से हो वंचित,
भगवन् मन्मथ! पुष्प बाण हो, फिर यह आप तीक्ष्ण कैसे?’
किया स्मरण तब ‘समझ गया मैं, क्यों ना तीक्ष्ण रहो ऐसे-
रुद्र कोप की अग्नि जल रही तुममें अब भी उसी प्रकार
जैसे कि बड़वाग्नि प्रज्वलित रहती सागर के आधार,
आप अन्यथा, मन्मथ!, रहकर भस्म अवस्था में अवशेष
मुझ जैसों को कैसे देते इस प्रकार संताप, कलेश
हे मन्मथ! तुम और चन्द्रमा देते हो यह कष्ट दुरूह
ठगकर के विश्वासपात्र मुझ कामीजन का त्रस्त समूह,
क्योंकि कुसुम शरत्व तुम्हारा और इन्दु का हिम रश्मित्व
दोनों ही मुझ विरहीजन पर रखते हैं विपरीत प्रभुत्व,
क्योंकि शशि हिम किरणों से है करता अग्नि-वृष्टि घनघोर
और बना लेते हो तुम भी कुसुम-बाण वज्रवत् कठोर’
लगे सोचने मदनाकुल नृप रजोगुणी आमोद प्रमोद
‘थका हुआ मैं कहॉं करूँ अब यज्ञ कर्म उपरान्त प्रमोद’
गहरी स्वॉंस खींचकर बोले ‘और शान्ति अब कहॉं यहॉं,
अब अतिरिक्त प्रिया-दर्शन के मुझे मिलेगी शरण कहॉं’
चले खोजने शकुन्तला को लेकर दर्शन का अनुराग
तभी सूर्य की ओर देखकर बोले ‘सूर्यरश्मि है आग,

उग्र धूप की इस बेला में प्रायः सखियों के संग मीत
लतावलययुत मालिनि तट पर करती है वह समय व्यतीत,
तब तो मै भी वहीं चल रहा’ यह कह चले गये उस ओर
कुछ ही पल मे पहुँच गये वह नदी मालिनी के इस छोर
वहॉं हवा के संस्पर्श से हुए अत्यधिक आत्म विभोर
‘यह स्थान सुभग है पाकर तीव्र पवन का सुखद झकोर
कमल सुरभि मालिनी नदी के जलकण वाही मधुर पवन-
इसका मन्मथ-तप्त-अंग से कर सकता हूँ आलिंगन’
वहीं निरखकर लगे सोचने ‘बेंत लताओं से आवृत्त
इसी लता मण्डप में मुझको संभव वह हो परिलक्षित’
अवनत अवलोकन करने से अधिक पुष्ट यों हुआ विचार
‘क्योंकि गौरवर्ण सिकतायुत, इस प्रवेश पथ के इस द्वार
उन्नत अग्र भाग पदतल के तथा पृष्ठ पदतल के चिह्न
जघन भार के कारण गहरे हैं अंकित पद-पंक्ति नवीन,
तब तो वृक्षों के अन्तर से करता हूँ मैं अवलोकन
यदि होगी वह इस मण्डप में प्राप्त करूँगा मैं दर्शन’
हुए देखकर नृप हर्षित अब प्राप्त हुआ प्रत्यक्ष प्रमाण
शान्त अधिप का हृदय कह पड़ा ‘नेत्रों ने पाया निर्वाण’
प्रिया मनोरथ यह शकुन्तला कुसुम बिछौने से आवृत
शिलापट्ट पर शयन कर रही सखियों द्वारा है सेवित,
अच्छा, श्रवण करूँगा इनका यह विश्वस्त वार्तालाप
इस प्रकार नृप स्थित रहकर सुनने लगे शब्द चुपचाप,
देख रहे थे नृप- सखियों से घिरी हुई थी प्रिया सुदेह
दोनों सखियॉं पूँछ रही थी करती हुई पवन सस्नेह

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