आज भी किन्नर जाति के लोग हिमालयीन राज्यों की पहाड़ियों पर रहते हैं। खासकर ये नेपाल और सिक्किम में फैले हुए हैं। पुराणों अनुसार किन्नर हिमालय के क्षेत्रों में बसने वाली एक मनुष्य जाति का नाम है, जिसके प्रधान केंद्र हिमवत्‌ और हेमकूट थे। वर्तमान में किन्नर हिमालय में आधुनिक कन्नोर प्रदेश के पहाड़ी लोगों को कहा जाता है, जिनकी भाषा कन्नौरी, गलचा, लाहौली आदि बोलियों के परिवार की है। आजकल हिजड़ों के लिए भी किन्नर शब्द का प्रयोग किया है, लेकिन ये जाति आलौकिक और जादुई थी।
पौराणिक ग्रन्थों, वेदों-पुराणों और साहित्य तक में किन्नर हिमालय क्षेत्र में बसने वाली अति प्रतिष्ठित व महत्वपूर्ण आदिम जाति है जिसके वंशज वर्तमान जनजातीय जिला किन्नौर के निवासी माने जाते हैं। महाभारत के दिग्विजय पर्व में अर्जुन का किन्नरों के देश में जाने का वर्णन आता है। एक शाप के चलते अर्जुन को किन्नर बनना पड़ा था।
 
गंधर्वों की तरह गायन, वादन में निपुण मृदुभाषी किन्नरियां अपने अनुपम तथा मनमुग्ध कर देने वाले सौन्दर्य के लिए प्राचीन काल से ही प्रसिद्ध हैं। किन्नरियों में रूप परिवर्तन की अद्भुत कला होती थी । हिन्दू तंत्र ग्रंथों में किन्नरियों को विशेष स्थान प्राप्त है। शतपथ ब्राह्मण (7.5.2.32) में अश्वमुखी मानव शरीरवाले किन्नर का उल्लेख है। बौद्ध साहित्य में किन्नर की कल्पना मानवमुखी पक्षी के रूप में की गई है। मानसार में किन्नर के गरुड़मुखी, मानवशरीरी और पशुपदी रूप का ज़िक्र है।
 
कुछ लोक प्रसिद्ध और सिद्ध किन्नरियों की साधना करते हैं। गायन तथा सौंदर्यता हेतु इनकी साधना विशेष लाभप्रद हैं। किन्नरियों का वरदान अति शीघ्र तथा सरलता से प्राप्त हो जाता हैं। मुखतः छह किन्नरियों का समूह है:- 1.मनोहारिणी किन्नरी, 2.शुभग किन्नरी, 3.विशाल नेत्र किन्नरी, 4.सुरत प्रिय किन्नरी, 5. सुमुखी किन्नरी, 6. दिवाकर मुखी किन्नरी। 

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