टीपू का बाघ या टिप्पू का बाघ एक १८ शताब्दी में बना  यांत्रिक खिलौना है जिसे खास टीपू सुल्तान , भारत के म्य्सोर राज्य के राजा के लिए बनाया गया था | उसकी नक्काशीदार और रंगीन लकड़ी की आवरण एक बाघ द्वारा एक आदमकद इन्सान को खाने का दृश्य दर्शाती है | बाघ और आदमी के शरीर में स्थित यंत्र्रचना आदमी का हाथ हिलाती है जिससे उसके मुंह से रोने की और बाघ के मुंह से घुर्घुराने की आवाज़ निकलती है | इसके इलावा बाघ के एक तरफ स्थित प्रालम्ब को हटायें तो आपके १८ नोटों वाला छोटा मुख वाद्य का कीबोर्ड नज़र आता है |

इस बाघ का निर्माण टीपू के लिए किया गया था और इसमें उनके व्यक्तिगत चिन्ह बाघ का इस्तेमाल होता है और ये उनकी अपने शत्रु ईस्ट इंडिया कंपनी के अंग्रेजों के प्रति दुश्मनी को दर्शाता है | बाघ की खोज हुई १७९९ में जब ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना टीपू के राज्य में घुस गयी | गवर्नर जनरल लार्ड मोर्निन्ग्तों ने बाघ को शुरू में लन्दन के टावर में प्रदर्शित होने के लिए भेज दिया | पहले उसे लन्दन की जनता के लिए १८०८ में ईस्ट इंडिया हाउस में रखा गया , उसके बाद लन्दन में ईस्ट इंडिया कंपनी के दफ्तर में और अंत में १८८० में उसको विक्टोरिया और अल्बर्ट संग्रहालय में स्थानांतरित किया गया (परिग्रहण संख्या २४४५(आईएस)) | अब वह वहां के "दक्षिण भारत के शाही दरबारों" में एक स्थाई प्रदर्शन है | जिस दिन से उसने लन्दन में कदम रखा से अब तक टीपू का बाघ आम जनता में काफी लोकप्रिय रहा है |

पृष्ठभूमि
टीपू का बाघ टीपू सुल्तान के लिए उनके म्य्सोर राज्य में १७९५ के करीब बनाया गया था | टीपू सुल्तान बाघ का इस्तेमाल अपने चिन्ह की तरह  ,अपने हथियारों , सैनिकों के वस्त्रों पर और महल की सजावट में  करते  थे | उनका सिंहासन एक उसी कद के सोने से ढके लकड़ी के बाघ पर टिका था , और कीमती खजानों की तरह उसको भी ब्रिटिश सेना के अत्यधिक आयोजित पुरस्कार निधि मैं बांटने के लिए तोड़ दिया गया |

टीपू ने अपनी सियासत अपने पिता ह्य्दर अली से हासिल की थी , जो की एक मुस्लमान सैनिक थे जो एक दलवाई या सेनापति थे सत्तारूढ़ हिंदू वोडेयार राजवंश के पर बढ़कर  १७६० से उस राज्य के शासक बन गए थे | ह्य्दर ने पहले अंग्रेजों से मराठों के खिलाफ दोस्ती करनी चाही पर बाद में उनके कट्टर दुश्मन बन गए क्यूंकि वह उनके राज्य के विस्तार में सबसे बड़ी अड़चन थे , और इसलिए टीपू भी हिंसक अँगरेज़ विरोधी भावनाओं के साथ पले और बढे हुए |

बाघ टीपू सुल्तान द्वारा निर्देशित एक बड़े कार्टून छवियों के विशिष्ट समूह का एक हिस्सा  था जिनमें कई अंग्रेजों को कई तरीकों से बाघों और हाथियों द्वारा रौंदते ,पीड़ित  या अपमानित होते हुए दिखाया गया था |  इनमें से कई टीपू के आदेशों पर टीपू की राजधानी सेरिन्गापतम के घरों की बाहरी दीवारों पर चित्रित कर दिए गए थे  |  टीपू फ्रेंच से जो अंग्रेजों से लड़ाई में थे और जो दक्षिण भारत में स्थित थे से नजदीकी सहयोग में थे | कुछ फ्रेंच कलाकार टीपू के दरबार में बाघ के अंदरूनी निर्माण में हाथ बटाने  के लिए आते थे |

इस कृति को की प्रेरणा १७९२ में हघ मुनरों जनरल सर हेक्टर मुनरो के बेटे की मौत से ली गयी थी | सर हेक्टर मुनरो ने ही १७८१ में दुसरे एंग्लो म्य्सोर लड़ाई में टीपू सुल्तान के पिता ह्य्दर अली को १०००० आदमियों के नुक्सान के साथ पोर्टो नोवो की लडाई में सर एयर कोटे की जीत में एक टुकड़ी का नेतृत्व किया था | हघ मुनरो एक आम इंसान की तरह भारत घूमने आये थे और २२ दिसम्बर १७९२ को कई साथियों के साथ बंगाल की खाडी( अभी भी बंगाल बाघ का आख़री स्थान) में शिकार करते वक़्त एक बाघ द्वारा हमला कर मार दिए गए थे |

हुलिया
टीपू  के  बाघ को शुरुआती भारत में संगीत को यंत्रित करने का एक बेहतरीन उदाहरण माना गया है , और इसलिए भी की उसे ख़ास टीपू सुल्तान के लिए बनाया गया था |

71.2 सेंटीमीटर उच्च (में 28.0) और लंबी 172 सेंटीमीटर (68) की माप के साथ वह आदमी बिलकुल असल लगता है | दोनों आंकड़ों के गठन पर चढ़ा रंगीन लकड़ी खोल हिंदू धार्मिक मूर्ति के दक्षिण भारतीय परंपराओं पर आधारित है | ये वैसे दो आधा इंच चौड़ा था लेकिन दुसरे विश्व युद्ध में नुक्सान के बाद थोडा अन्दर को हो गया है | सर के अंत में कई छिद्र हैं जिन्हें रंगीन बाघ के धारियों से मिला कर बनाया गया था जिससे पाइप की धुनें अच्छे से सुनायी देती हैं और ये बाघ "पुरुष है" | बाघ के उपरी हिस्से को उठा चारों पेच को हटा कर बाघ की यांत्रिक प्रणाली को देखा जा सकता है | आदमी के शरीर का निर्माण भी उसी तरह से किया गया हैं लेकिन लकड़ी थोड़ी मोटी इस्तेमाल की गयी है | वी ऐ संरक्षण विभाग द्वारा परीक्षा और विश्लेषण करे जाने से पता चला है की वर्तमान रंग बहाल या दुबारा किया गया है ।

आदमी की आकृति ज़ाहिर तौर पर यूरोपियन कपडे पहने है पर अधिकारी इस बात पर अलग सोच रखते हैं की वह एक सैनिक है या नागरिक ; वीऔरऐ की वेबसाइट पर विस्तार नहीं किया गया है बस ये लिखा गया है की आकृती "यूरोपियन" है |

एक क्रैंक हैंडल यंत्र टीपू के बाघ के अंदर कई शक्तियों का संचारण करता है | आदमी के गले में पाइप में स्थित बेलौस उसके मुंह से आवाज़ निकालते हैं | इससे एक रोने जैसी आवाज़ निकलती है जैसे शिकार बचाने की गुहार कर रहा है | एक यांत्रिक जोड़ आदमी के बांये हाथ को उठाता और गिराता है |  इस कार्रवाई से 'व्हेल पाइप' की पिच बदल जाती है | बाघ के सर में स्थित एक और यंत्र दो टोन में हवा को बाहर निकालता है | इससे बाघ के गुर्राने जैसे "घुरघुर की आवाज़" निकलती है | बाघ के पार्श्व भाग में स्थित एक पल्ले में बाघ के शरीर में स्थित दो स्टॉप पाइप वाद्य का छोटा आइवरी कीबोर्ड है जिनसे धुन बजती है |

Tखोल और काम दोनों की शैली और और अंग के मूल पीतल के पाइप(कई बदले जा चुके हैं ) के धातु सामग्री का विश्लेषण करने से पता चला की बाघ स्थानीय निर्माण का है | टीपू के दरबार में फ्रेंच कारीगरों और फ्रेंच सेना के एन्जिनीर्स की मोजूदगी से कई इतिहासकारों ने अनुमान लगाया की इस यंत्र के निर्माण में फ्रेंच लोगों की भी राय शामिल है |

इतिहास
टीपू का बाघ टीपू के महल जो टीपू की मौत के बाद ४ मई १७९९ में सेरिन्गापतम के कब्ज़े में चौथे एंग्लो म्य्सोर युद्ध के अंत के वक़्त हुई महा लूट का एक हिस्सा था | ईस्ट इंडिया कंपनी के गवर्नर जनरल के एक साथी रिचर्ड वेलीस्ली , पहले मर्कुएस वेल्लेस्ले ने बाघ के मिलने पर एक ज्ञापन जारी किया |

 "एक कमरा जो वाद्य रखने के लिए उपयुक्त था उसमें हमें मिली ए  वस्तु जो ख़ास थी , जिसमें टीपू की अंग्रेजों के प्रति गहरी नफरत साफ़ नज़र आती है | इस यंत्र में एक शाही बाघ एक लेटे हुए यूरोपियन आदमी को खाने को तैयार है | बाघ के शरीर में एक वाद्य की नक़ल जैसे कई बर्रेल्स हैं | उस वाद्य से निकलने वाली आवाजें एक आदमी की चीख और एक बाघ की दहाड़ का मिश्रण लगती हैं | ये यंत्र ऐसे निर्मित किया गया है की जब वाद्य बज रहा होता है की आदमी का हाथ उसकी बेबसी को दर्शाने के लिए अक्सर ऊपर उठता है| यह पूरा निर्माण टीपू सुल्तान के हुक्म से हुआ है | मेरा मानना है की टीपू सुल्तान के घमंड और बेरहम क्रूरता दर्शाती इस याद को लन्दन के टावर में स्थान देना चाहिए"|

टीपू के बाघ की सबसे पहले सार्वजानिक तस्वीर जेम्स सल्मोंद द्वारा लन्दन में १८०० में लिखी गयी किताब " अ रिव्यु ऑफ़ द ओरिजिन , प्रोग्रेस एंड रिजल्ट ऑफ़ द लेट देसाईसिव वार इन म्य्सोर विथ नोट्स" के गृह्मुख पर थी | ये बाघ की भारत से इंग्लैंड जाने की यात्रा से पहले की बात है और उसमें एक भूमिका लिखी थी "गृहमुख का विवरण" जिसमें लिखा था |

 " ये तस्वीर एक ऐसे यंत्र की है जो एक शाही बाघ को एक लेटे हुए यूरोपियन को खाने की प्रक्रिया को दर्शाता है | बाघ के शरीर में  एक वाद्य की नक़ल जैसे कुछ बर्रेल्स हैं और सुरों की कीस की एक श्रृंखला है | यंत्र द्वारा निकलती आवाजें एक आदमी के चीख और बाघ की दहाड़ का मिश्रण लगती है | यंत्र ऐसा बनाया गया है की जब वाद्य बजता है तब यूरोपियन का हाथ अक्सर अपनी बेबसी को दर्शाते हुए उठता है | "

ये पूरा यंत्र काफी बढ़ा है और टीपू सुल्तान के हुकुम पर बनाया गया है क्यूंकि वह अक्सर अंग्रेजों पर खूददौद जीत के इस चिन्ह से आनंद उठाते थे | इस वाद्य को सेरिन्गापतम के एक महल के कमरे जो की वाद्यों के लिए ( इसलिए राग महल नाम ) बनाया गया था में पाया गया है |

ये मूल लकड़ी की आकृति जिससे ये तस्वीर बनाई गयी है उसको जहाज द्वारा महाराजा को भेंट स्वरुप  में निर्देशकों के न्यालय के निदिक्षक को भेजा जाएगा | ऐसा माना जाता है की टीपू सुल्तान की अँगरेज़ राज्य के प्रति दुश्मनी के उदाहरण चिन्ह को लन्दन के टावर में स्थान के लिए उपयुक्त माना जाएगा"|

टीपू के सिंहासन जिसमें भी एक बाघ था  और उनके महल से मिले अन्य खजानों से विपरीत टीपू के बाघ की कोई अंदरूनी कीमत नहीं थी और उसकी चिह्नता के चलते उसे सही सलामत इंग्लैंड भेज दिया गया | ईस्ट इंडिया कंपनी के निर्देशकों ने पहले इस बाघ को महाराजा को देने का ताकि उसे लन्दन के टावर में प्रदर्शित किया जाए फैसला किया था , लेकिन बाद में उन्होनें इसे कम्पनी के लिए रखना उपयुक्त समझा | कुछ समय के बीतेने के बाद जिसमें वाद्य को सांगीतिक रूप से सुधारने के कई अनुचित प्रयास शामिल थे उसको ईस्ट इंडिया कंपनी के लादेन हॉल स्ट्रीट लन्दन में स्थित  संग्रहालय और पुस्तकालय के पड़ने वाले कमरे में जुलाई १८०८ से स्थापित किया गया |

जल्द ही वह काफी लोकप्रिय प्रदर्श बन गया , और वो क्रैंक हैंडल जिसके प्रयोग से चीखने और बाघ की घुरघुर की आवाज़ नियंत्रित की जाती थे उसको जनता आसानी से उपयोग कर  सकती थी| जूलियन बार्नेस बताते हैं की फ्रेंच लेखक गुस्तावे फ्लौबेर्ट १८५१ में लन्दन बड़ी प्रदर्शनी देखने  गए जहाँ उन्हें द क्रिस्टल पैलेस में कुछभी रुचिपूर्ण नहीं लगा लेकिन जब वह ईस्ट इंडिया कंपनी के संघ्रालय में पहुंचे तो टीपू के बाघ ने पूरी तरह से उनका दिल जीत लिया | १८४३ तक ये बताया जाने लगा की " यंत्र या वाद्य अब मरम्मत की अवस्था से बाहर हो चुका है और वह दर्शक की उम्मीद पर खरा नहीं उतरता है" | अंत में क्रैंक हैंडल को हटा दिया गया इससे उन छात्रों को काफी राहत मिली जो पढने के कमरे का इस्तेमाल करते थे और ये खबर द अथेनायूम में छापी भी गयी |

" ये चीखें और दहाड़ें  तब उन छात्रों को काफी परेशान करती थीं जो पुराने भारत घर की पुस्तकालय में पढने आते थे जब लीदेन्हाल्ल की जनता इस यंत्र का आनंद उठाने की बार बार कोशिश करती थी | किस्मत से अब वह हैंडल उस यंत्र में से भाग्यवश हटा दिया गया है और  हमें ये सोच ख़ुशी हो रही है की उसके कुछ अंदरूनी अंग – और हम ये चाहते हैं की वह देखने और समझने के लिए बने रहे , चाहेउन्हें  हम सुन पाएं या नहीं"|

जब १८५८ में ब्रिटिश साम्राज्य ने ईस्ट इंडिया कंपनी पर कब्ज़ा कर लिया बाघ को फिफे हाउस वाइटहॉल में १८६८ तक रखा गया उसके बाद उसे न्यू इंडिया के दफ्तर में जिसे आज भी विदेश और राष्ट्रमंडल कार्यालय की तरह इस्तेमाल किया जाता है में स्थानांतरित कर दिया गया | १८७४ में उसे दक्षिण केंसिंग्टन के भारत संघ्रालय जो की १८७९ में बंद हो गया में  भेज दिया गया और उसके सारे संग्रहों को अन्य संघ्रालयों में बाँट दिया गया ; वीऔरऐ के दस्तावेजों के मुताबिक बाघ उन्हें १८८० में मिला | दुसरे विश्व युद्ध में बाघ को एक जर्मन बम्ब द्वारा काफी नुक्सान पहुंचा | बम्ब के प्रभाव से छत बाघ पर गिर गयी और उसकी लकड़ी के आवरण टुकड़े टुकड़े हो गया जिसे युद्ध के बाद फिर जोड़ा गया ताकि १९४७ में वह फिर प्रदर्शित होने लायक बन गया | १९५५ में उसे न्यू यॉर्क के मॉडर्न आर्ट  के संघ्रालय में प्रदर्शन के लिए गर्मियों से बसंत तक रखा गया |

आजकल के समय में टीपू का बाघ उन सब संग्रह प्रदर्शिनियों का एक ज़रूरी हिस्सा बन गया है जिनमें पूरब और पश्चिमी सभ्यता , उपनिवेशवाद, जातीय इतिहास और अन्य विषयों के बीच के रिश्ते के विश्लेषण किया जाता है | "एनकाउंटर्स : द मीटिंग ऑफ़ एशिया एंड यूरोप १५००-१८०० " नाम की ऐसी ही एक प्रदर्शनी पतझड़ २००४ में विक्टोरिया और अल्बर्ट संघ्रालय में आयोजित की गयी थी | १९९५ में ‘ द टाइगर और द थिस्तल" की द्वि-सौ वर्ष प्रदर्शनी का आयोजन स्कॉटलैंड में "टीपू सुल्तान और स्कॉट्स" के विषय पर किया गया  | यंत्र इतना नाज़ुक था की उसे स्कॉटलैंड ले जाना उचित नहीं समझा गया | इस के बजाय डेरेक फ्रीबोर्न द्वारा  फाइबर ग्लास से बनाई और चित्रित गयी एक पूर्ण आकार की प्रतिकृति, उसके स्थान पर प्रदर्शित की गयी | इस प्रतिकृति की भी  पहले से स्कॉटिश रिश्ता था क्यूंकि उसे १९८६ में ‘द इंटरप्राइसिंग स्कॉट ‘ प्रद्रशनी के लिए बनाया गया था | इस प्रदर्शनी का आयोजन रॉयल स्कॉटिश संघ्रालय और स्कॉटलैंड के पुरावशेष के राष्ट्रीय संग्रहालय के १९८५ में एक होने की घटना – द नेशनल म्यूजियम ऑफ़ स्कॉटलैंड का गठन -के उपलक्ष्य में किया गया था  |

आज टीपू का बाघ जहाँ तक जनमत का सवाल है बिना बहस के विक्टोरिया और अल्बर्ट संघ्रालय का सबसे प्रसिद्ध प्रदर्श है | ये स्कूल के छात्रों की विक्टोरिया और अल्बर्ट संघ्रालय की यात्रा का अहम् हिस्सा है और अब संघ्रालय के प्रतिनिधि की तरह काम करता है और उसे अलग तरह के यादगारों जैसे पोस्टकार्ड , मॉडल किट और स्टफ्ड खिलोने के रूप में संग्रहालय की दुकान में बेचा जाता है | दर्शक उस यंत्र का उपयोग अब नहीं कर सकते क्यूंकि उसे एक शीशे के डिब्बे में रखा गया है |

इस खिलोने का एक छोटा रूप टीपू सुल्तान के बंगलोर के लकड़ी के महल में रखा गया है | हांलाकि टीपू से जुडी अन्य चीज़ें जैसे उनकी तलवार  विजय माल्या द्वारा खरीद कर भारत वापस लाई गयीं  है , टीपू के बाघ की वापसे के लिए कोई आवेदन नहीं दिया गया है | ऐसा शायद इसलिए है क्यूंकि भारतवासियों की नज़र में टीपू की छवि को लेकर काफी अस्पष्टता है ; कुछ लोग उनसे नफरत करते हैं और कुछ उन्हें महान योद्धा मानते है |

प्रतीकवाद
टीपू सुल्तान बाघों से अपनी पहचान बनाते थे ; उनका उपनाम था "द टाइगर ऑफ़ म्य्सोर" उनके सैनिक बाघों के कपड़ों द्वारा पहचाने जाते थे ; उनका व्यक्तिगत चिन्ह सुलेख की मदद से एक बाघ के चेहरे की याद दिलाता है और यही बाघ का चिन्ह उनके सिंहासन पर और उनकी अन्य व्यक्तिगत वस्तुओं जिनमें टीपू का बाघ शामिल है ,पर अंकित है  | जोसफ स्रामेक के हिसाब से टीपू के लिए बाघ का यूरोपियन को मारने का यंत्र उनकी अंग्रेजों पर विजय का प्रतीक था |

अँगरेज़ न सिर्फ मुग़लों और अन्य राजाओं की नक़ल में बाघों का शिकार करते थे , वह उसे टीपू सुल्तान या हर उस राजा की हार का प्रत्तीक मानते थे जो उनकी सत्ता के रस्ते में बाधा उत्पन्न कर सकता था | बाघ के चिन्ह का इस्तेमाल "सेरिन्गापतम तमगे" में किया था जो उन उन लोगों को दिया गया था जिन्होनें १७९९ के अभियान में भाग लिया था और जिसमें अंग्रेजी बाघ को एक लेटे हुए बाघ पर काबू पाते हुए दिखाया गया था , बाघ को टीपू के वंश का चिन्ह माना गया था | सेरिन्गापतम तमगा उस अभियान से जुड़े लोगों में से सोने में उच्चतम अधिकारीयों और उस वक़्त मोजूद कुछ साधारण अफसरों को दिया गया , चांदी में और अफसरों को, क्षेत्र के अधिकारियों और अन्य कर्मचारियों को, गैर कमीशन अधिकारियों के लिए तांबे-पीतल में और निजी सैनिकों के लिए रेंगे में दिया गया | उसकी उलटी तरफ किले पर कब्ज़ा पाने का दृश्य था और सीधे तरफ १९ शताब्दी की तमगों पर लिखित तर्ज़ पर लिखा था " अंग्रेजी शेर द्वारा बाघ मरहूम टीपू सुल्तान सरकार के  चिन्ह पर काबू पाना , और उसके बाद वह समय जब ये घटित हुआ था और अंत में ये शब्द ‘अस्सुदूता –उल्घौलिब’ जिसका मतलब था भगवान् का शेर विजेता है या विजेता भगवान् का शेर |

इस तरह से इस यंत्र के चिन्ह को अंग्रेजो ने अपना उसका मतलब ही पलट दिया | जब टीपू के बाघ को १९ सदी में लन्दन में प्रदर्शित किया गया , तो उस समय के कई अंग्रेजी दर्शको ने " बाघ की तुलना एक पुरुस्कार और अंग्रेजी हुकूमत की प्रतीकात्मक औचित्य से की |" टीपू का बाघ को अन्य पुरुस्कारों जैसे टीपू की तलवार ,रंजित सिंह का सिंघासन ,तांत्या टोपे का कुरता और नाना साहेब के पान दान जो ताम्बे से बना था के साथ "जंग की यादगारों" की तरह पेश किया गया |

एक नज़रिए में टीपू के बाघ के साउथ केंसिंग्टन में प्रदर्शन का उद्देश्य था दर्शकों को अंग्रेजी हुकूमत के उस एहसान की याद दिलाना जिसमें वह टीपू सुल्तान के वहशी राज्य को सभ्य बनाने की कोशिश कर रहे थे |

टीपू के बाघ को एक बाघ द्वारा एक यूरोपियन को मारने की छवि का शाब्दिक रूप भी मानाजाता है | ये रूप इंग्लैंड में उस वक़्त काफी अहम् था और १८२० से "डेथ ऑफ़ मुनरो" स्टैफ़ोर्डशीर के मिटटी के बर्तनों पर चित्रित किया जाने वाला अहम् दृश्य बन गया | बाघ के शिकार को अंग्रेजी हुकूमत में न सिर्फ भारत के राजनितिक कब्ज़े का बल्कि भारत के वातावरण पर जीत का प्रतीक माना जाने लगा | ये छवि बरक़रार रही और १८५७ के विद्रोह के बाद पंच ने एक राजनितिक कार्टून छापा जिसमें भारतीय बाघियों को बाघ की तरह उसी तरह से एक शिकार पर हमला करते हुए दिखाया गया और अंत में अंग्रेजी साम्राज्य जिसे शेर की तरह से चिह्नित किया गया था द्वारा उसको हारते हुए दिखाया गया |

 "चाहे वो टीपू के लिए बना था या किसी और भारतीय के लिए लेकिन डेढ़ सदी बाद भी एशियाई राजकुमारों के स्वाभाव से मेल खाता ऐसा क्रूरपन और बचपने का इतना जीवंत चित्रण बना पाना मुश्किल है जितना इस छोटे से वहशी संगीत वाद्य द्वारा एक नज़र में दिखाया गया है" |

द पैनी मगज़ीन ऑफ़ द सोसाइटी फॉर द डीफ्फुशन ऑफ़ उसफुल नॉलेज ,अगस्त 15 १८३५

टीपू के बाघ और अन्य वस्तुओं के संग्रह के उद्देश्य को एतिहासिक बर्रेत्त कलटर एक सामाजिक और सांस्कृतिक नज़रिए से देखते हैं | टीपू सुल्तान द्वारा एकत्रित की गयी पाश्चिमी और भारतीय कला को कलटर  अपनी जायदाद को प्रदर्शित करने का एक जरिया मानते हैं और अपनी ताकत उन लोगों पर जाताना का एक तरीक जो हिन्दू थे और उनके धर्म यानि इस्लाम से विपरीत थे | ईस्ट इंडिया कंपनी के मामले  में दस्तावेजों , यादगारों और अन्य भारतीय वस्तुओं का संग्रह अंग्रेजी जनता की नज़रों में वशीभूत भारतीय जनता की छवि प्रस्तुत करने का तरीका था | इसक मुख्य ख्याल था की ऐसी संस्कृति पर हमारा कब्ज़ा होने का मतलब था हमारा उसको समझना , वशीभूत करना और उस संस्कृति पर महारत हासिल करना |

एक वाद्य के रूप में
एक १९८७ में छपे विस्तृत अध्ययन की मानें तो आर्थर दुब्ल्यु .जे.जी.ऑर्ड –हुम के मुताबिक बाघ की आवाज़ और संगीत निकलने की क्रिया का इंग्लैंड आने के बाद से " वाद्य को कई बार बदला गया है और ऐसा करने में उसके कई मूल सिद्धांत भी नष्ट हो गए हैं" वाद्य में २ तरीके के पाइप हैं (चीखने और घुरघुर की आवाज़ के लिए ) और हर में १८ सुर हैं जिनकी ऊँचाई ४ फीट तक है और जो साथ में आवाज़ देता हैं – यानि हर रजिस्टर में स्थित दो पाइप एक जैसी धुन बाहर निकालते हैं | ये एक पाइप वाद्य के लिए अलग समीकरण है हालाँकि दोनों स्टॉप्स का चयन करते वक़्त ज्यादा आवाज़ आती है .... एक अलग धुन भी दोनों पाइप्स के बीच में से सुनायी बढ़ती है जो एक रूहानी अनुभव देती है ... ऐसा हो सकता है की क्यूंकि इतना काम इसपर किया जा चुका है ... ये धुन जान्भूझ्कर नहीं गलती से हे उत्पन्न हो रही है" | बाघ की घुरघुर उसके सर में स्थित एक पाइप की वजह से और आदमी की चीख उसके मुंह से निकलते पाइप जो की उसकी छाती में स्थित अलग बेलौस से जुडी हुई है की वजह से हो रही है जिस तक बाघ को उठा और खोल कर पहुंचा  जा सकता है | ये घुरघुर की आवाज़ "ग्रन्ट पाइप" के धीरे धीर उठने से होती है तब तक जब तक वह धीरे से गिर जाती है " अपनी ही निचले जलाशय के विरुद्ध जिससे हवा निकलती है और घुरघुर की आवाज़ निकलती है" आजकल सब आवाज़ उत्पन करने की क्रिया उस क्रैंक हैंडल पर आश्रित हैं पर ऑर्ड हुम के हिसाब से शुरू से ऐसा नहीं था |

आवाज़ निकलने वाली क्रिया पर किये गए काम में शामिल है मशहूर वाद्य बनाने वाली कंपनी हेनरी विल्स एंड संस द्वारा किया गया काम और हेनरी विल्स III जिन्होनें १९५० में इस बाघ पर काम किया था ने एक विवरण वीएंडऐ के मिल्ड्रेड आर्चर को दिया था | ऑर्ड हमे विल्लिस के काम को उनके द्वारा कठोर पुनर्स्थापन पर की गयीं तीखी टिप्पणियों से बरी करना कहते थे जहाँ उन्होनें ये कहा की तोड़ फोड़ पहले वाद्य बनाने वालों ने की है | पैनी मैगज़ीन में १८३५ में आवाज़ निकलने की क्रिया का विस्तृत ब्यौरा है जिसका अनजान लेखक "वाद्यों और यंत्रों की सही समझ रखता है" | इससे और ऑर्ड हमे की खुद की जांच से उन्होनें ये नतीजा निकाला की आदमी की चीख की मूल क्रिया रुक रुक कर और बाघ की कुछ दर्ज़न आवाज़ों के बाद आती थी लेकिन १८३५ के बाद उस यंत्र को ऐसा बदला गया की वह चीख लगातार हो गयी और स्थित बेल्लोस को भी बदलकर छोटे और कमज़ोर लगा दिए गए और हिलते हाथ की क्रिया में भी बदलाव किया गया |

मोजूदा यंत्र के परेशान करने वाले लक्षण हैं हैंडल की जगह जो घुमाने पर कीबोर्ड के बजने में रूकावट पैदा कर सकती है | ऑर्ड हुम ने १८३५ की जांच के बाद ये माना की मूल हैंडल ( जोकी १९ सदी के अंग्रेजों का प्रतिस्थापन है , एक फ्रेंच मूल का ) सिर्फ घुरघुर और चीख को नियंत्रि करता था जबकि वाद्य को एक धागे द्वारा, जो अब बदल दिया गया है ,  खींच कर बजाया जाता था | ये कीबोर्ड जो असली है वह "निर्माण में अद्वितीय" है और उसमें पारंपरिक कीस के बजाय गोल घुमावदार टोपी वाले  " चौकोर आइवरी बटन" हैं | हालाँकि इन बटन का यंत्री काम काज " सुगम और सहज" है फिर भी उन्हें ऐसे लगाया गया है की आप हाथ को बड़ा आठवा सुर नहीं बजा सकते हैं | बटन को छोटे काले निशानों से अंकित किया गया है जो की अलग अलग लगे हैं और जिनका सुरों की उत्पति से या कीस के निशानों से कोई रिश्ता नहीं हैं | वाद्य के नियंत्रण करने वाले क्नोब्स बहुत भ्रमिक तरीक से बाघ के अंडकोष के नीचे बनाये गए हैं | इस वाद्य को अब बजाय नहीं जाता लेकिन एक हाल के प्रदर्शन का वीएंडऐ विडियो मोजूद है |

व्युत्पन्न कार्य
टीपू के बाघ ने १९ शताब्दी से अबतक  कई कवियों , कारीगरों ,चित्रकारों और अन्य लोगों को प्रेरणा डी है | कवी जॉन कीट्स ने टीपू के बाघ को लीदेन्हाल्ल स्ट्रीट में स्थित संघ्रालय में देखा था और उसकी चर्चा  अपने १८१९ की व्यंग्य कविता द कैप एंड बेल्स में की थी | उस कविता में एक ज्योतिषी राजा एल्फिनन के दरबार में जाता है | उसे एक अजीब सी आवाज़ सुनायी देती है और उसे लगता है की राजा खर्राटा ले रहा है |

 " सेवक जवाब देता है : " ये हलकी सी भिनभिन की आवाज़....

महाराजा के एक खिलोने से आती है

उनके सबसे खूबसूरत आदमी –बाघ-वाद्य से"

फ्रेंच कवी औगुस्ते ने बाघ और उसके यंत्र का वर्णन कर उसके मतलब को अपनी १८३७ में छपी कविता ले जोऊजोऊ दू सुलतान (सुल्तान का खिलौना ) में समझने की कोशिश की | हाल ही में अमेरिकन कवी मरिंने मूर ने अपनी १९६७ की कविता टिप्पू का बाघ में उसके यंत्र का ज़िक्र किया और सोचा की शायद हकीकत में पूँछ कभी हिल नहीं सकती थी :

 "काफिर ने टीपू के हेलमेट और किरास्से हथिया लिए

और एक बड़ा खिलौना – एक अजीब यंत्र

बाघ द्वारा आदमी मारा गया ; और अन्दर उसके वाद्य पाइप थे

जिसमें दहलाने वाली चीखें निकलती थी और साथ ही अमानवीय कराहें

जैसे आदमी ने हाथ हिलाया वैसे ही बाघ ने अपनी पूँछ"

दी सीले (द सोल्स) चित्रकार जन बलेट (१९१३-२००९) के एक चित्र में उन्होनें एक तरफ एक बाघ को एक वर्दीधारी फ्रांसीसी सैनिक को खाते दिखाया और दूसरी और एक फ़रिश्ते को एक फूलों के बाघ में घुमते | भारतीय चित्रकार एम् एफ हुसैन ने टीपू के बाघ का चित्र १९८६ में अपनी अदा से बनाया और उसका नाम रखा "टीपू सुल्तान का बाघ" |कारीगर ध्रुव मिस्त्री जब रॉयल कॉलेज ऑफ़ आर्ट ,विक्टोरिया और अल्बर्ट संघ्रालय के बगल में , के छात्र थे वह अक्सर टीपू के बाघ के दर्शन करते थे और वह १९८६ में उसका फाइबर गिलास और प्लास्टिक का एक प्रतिरूप बनाने के लिए प्रेरित हुए  | कलाकार बिल रिद द्वारा बनाई गयी मूर्ति रैबिट ईटिंग एस्ट्रोनॉट (२००४) बाघ को व्यंगात्मक श्रद्धांजलि है , इसमें उसकी पूँछ मोड़ने से खरगोश "खाने की आवाजें करता है"|
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