गर्मियों के दिन, दोपहर का समय, सूरज देवता प्रसन्न मुद्रा में अपने वेग के साथ छाए हुए थे। गर्म हवा के थपेड़े चारो ओर सब जीव जन्तुओ का हौसला पस्त कर चुके थे। जून के महीने में दोपहर के एक बजे सुभाष और सुनील राजस्थान में वातानुकुलित कार में फर्राटे के साथ चले जा रहे थे। दो युवा मार्केटिंग अधिकारी कंपनी के नये प्रोडक्ट के बाजार में उतारने से पहले बाजार का शोध करने हेतु शहरों, कस्बों और गांवों में जुटे हुए थे। मुख्य राजमार्ग से हट कर एक छोटी सी संकरी सड़क पर सुनील ने कार घुमा दी।
“सुनील लगता है कि कार का एसी काम नहीं कर रहा है।” सुभाष ने कहा।
“जनाबेआली बाहर इस समय तापमान 50 डिग्री होगा, कार में चार एसी लगे जाए तब भी गर्मी से छुटकारा नहीं मिल सकता है।” सुनील नें कार चलाते हुए कहा।
“पचास डिग्री यार तुम लम्बी हांकते हो, यह मुमकिन नही है।”
“प्यारे हम राजस्थान में घूम रहे हैं, जून में यहां पचास क्या पचपन डिग्री तापमान भी मामूली बात है।”
“शर्त लगा, पैंतालिस से उपर नहीं होगा।”
“हार जाएगा।”
“लगा तो सही।”
“मैं शर्त कभी नहीं हारता।” सुनील नें आत्मविश्वास से कहा।
“लगता है, बड़ा घमंड है, शर्त जीतने पर, लेकिन मैं भी अनाड़ी नही हूं। एैसी शर्ते बहुत जीती हैं।” सुभाष नें उससे अधिक आत्मविश्वास से पलट कर कहा।
“हो जाए हजार रूपये की।” सुनील नें कहा।
“बिल्कुल हो जाए।” सुभाष नें कहा और दोनों में दोपहर के तापमान पर हजार रूपये की शर्त लग गई। बातों बातों में सुनील भूल गया कि अब राजमार्ग से हट कर एक पतली सड़क पर कार ड्राईव कर रहा है, जो मलाई की तरह चिकनी नही है उल्टे एकदम विपरीत खडढो से भरी हुई थी। कुछ आगे जाकर सड़क का नामोनिशान ही नही था, सिर्फ रेत ही रेत और रेत के नीचे एक खडढे में कार का पहिया आ गया और एक तेज झटके के साथ कार कुछ उछली। सुनील ड्राईव कर रहा था। उसका हाथ कार स्टीरिंग पर था जिसके कारण वह अपनी सीट पर थोड़ा ही उछला लेकिन सुभाष कुछ बेखटके के साथ सुनील से तापमान पर शर्त लगा रहा था, वह सीट पर उछला और उसका सिर कार की छत से जा टकराया। सुभाष की आंखों के आगे तारे नजर आने लगे, एक पल के लिए वह भौच्चका रह गया, सिर पकड़ भन्ना कर बोला। “मार दिया पापड वाले को। कार सड़क पर चला रहा है या पथरीली चट्टान पर, सिर फोड़ कर रख दिया, कार रोक।”
सुनील ने कार को रोका, लेकिन रोकते समय एक पत्थर पर कार उछल गई। कार एक दम घूम गई, बडी मुश्किल से कार को संतुलित करके सुनील ने रोका। कार रूकते समय एक बार फिर उसी पत्थर से टकराई। पत्थर दो बार कार के रेडियेटर से टकराया। रेडियेटर लीक हो गया। “क्या रफ कार ड्राईव कर रहा है, बाहर निकल के देख क्या हुआ।”
“सुभाष बाबू हो गया कबाड़ा, रेडियेटर लीक हो गया, कूलन्ट निकल गया, आगे का बम्पर टूट गया।” सुनील ने कार का मुआईना करते हुए कहा।
सुभाष अपना सिर पकड़ कर कार से बाहर निकल कर कार का निरीक्षण करने लगा, कार के बम्पर को हाथ लगाया तो वह नीचे गिर गया। “अब क्या करे। एक तो मेरा सिर फोड़ दिया और दूसरे कार भी गई हाथ से। मुझे नही लगता कि यह रेंगने लायक भी है। तुझे लाइसेंस किसने दिया है।” सुभाष झल्ला कर बोला।
“जिसने तुझे लाइसेंस दिया था, उसी ने ड्राईविंग लाइसेंस दिया है। लेकिन तेरे से अच्छी कार चलाता हूं।”
“क्या खाक अच्छी चलाता है, मेरा सिर और कार दोनों तोड़ फोड़ दिए हैं। अब सोच क्या करे।”
“करना क्या है, मैकेनिक ढूंढना है और कार ठीक करवानी है।”
“कहां मिलेगा मैकेनिक।”
“आजकल हर दो कदम पर मैकेनिक मिलते हैं, ढूंढना पडेगा। हम हाईवे से काफी दूर आ गए हैं, इसीलिए वापिस जाना ठीक नही रहेगा, आगे कस्बा नजदीक है, वही पर मैकेनिक मिलेगा, मैं पहले यहां आ चुका हूं, वहीं चलते है, दोपहर हो गई है, खाना भी वहीं मिलेगा।” सुनील ने कहा। “कार को सड़क के किनारे कर देते है, वरना हो सकता है कि कोई ट्रेक्टर या बस ठुकी हुई कार को और ठोक कर चला जाए।”
दोनों ने कार को सरका कर सड़क के किनारे लगा दी और पैदल कस्बे की ओर चल पड़े। गर्म हवा के थपेड़े बडते जा रहे थे। एयरकंडीशन कार में सफर करने वाले चार कदम चल कर परेशान हो गये। हौसला पस्त होने लगा। थोड़ी दूर जाने के बाद एक गांव आया। कुछ गिने चुके घर सड़क के किनारे बसे हुए थे। दो चार दुकाने भी बनी हुई थी जो बंद थी। दोनों का गला सूखने लगा। प्यास से बेहाल एक दूसरे का मुंह देखने लगे। सोचने लगे कम से कम पानी तो मिलेगा। तभी एक छोटा दस ग्यारह वर्ष का बच्चा घर से निकल कर बाहर दुकान के शटर को आधा खोल कर अंदर घुस गया। बच्चे को दुकान का शटर खोलते देख उन दोनों की जान में जान आई। “गुरू यहां काम बन जाएगा।” सुभाष ने सुनील से कहा। सुनील दुकान के नजदीक जा कर शटर को थोडा ऊपर करके बच्चे को समबोधित करके कहा। “मुन्ने पीने को पानी या ठंडा मिलेगा।” बच्चे जो एक अलमारी से कुछ निकाल रहा था, शटर की आवाज से चौंक गया। पलट के बोला। “कौन हो तुम, शटर क्यों खोला।”
“मुन्ने हमारी कार खराब हो गई है, प्यास लग रही है, कुछ पीने को मिल जाए।” सुनील ने बच्चे से पूछा।
“क्या चाहिए, बोलो, सब मिलेगा। नाम बोलो।” बच्चे ने घूरते हुए पूछा।
“पानी मिलेगा।”
“नही मिलेगा।”
“आधा गिलास पिला दो।”
“सुबह पानी नही आया है, हमने अपने पीने के लिए बचा रखा है, शाम को नल आया तो पिला दूंगा। कुछ और पीना है तो बोलो।” बच्चे ने पलट के जवाब दिया।
“गला सूख रहा है, कुछ भी पिला दो।” सुनील ने विनती की।
“कोक, फैन्टा, बीयर क्या चाहिए, सब मिलेगा।” बच्चे के मुख से बीयर का नाम सुनते ही सुनील उछल पड़ा। गुरू तेरी खुराक का इंतजाम हो गया।” सुभाष को आवाज दी। खुराक के नाम पर सुभाष अपने सिर की दर्द भूल कर तेजी से दुकान के अंदर दाखिल हुआ। “फटाफट दो खोल दे।” सुभाष ने बच्चे को कहा। यह सुनते ही पलट कर बच्चे ने कहा। “बाबू मारेगा, अगर मैंने खोल दी, वो समझेगा मैंनें पी ली।” बच्चे की आवाज सुन कर बच्चे का पिता, जिसे वह बाबू कह रहा था, आकर बच्चे को डांट लगा दी। “अबे इस समय दुकान में क्या कर रहा है, चैन नहीं पड़ता तेरे को। दोपहर की सडी हुई लू में मटरगस्ती करता रहता है।”
“मैं कुछ नहीं कर रहा हूं, तुम्हारी आदत तो हर समय डांटने की है, इन को बीयर चाहिए।” कह कर बच्चा बाप की डांट से बचने के लिए नौ दो ग्यारह हो गया।
बीयर पीते हुए उन्होनों ने कार मैकेनिक के बारे मे पूछा। “आगे कस्बे में मैकेनिक मिलेगा। दो किलोमीटर दूर है। मैकेनिक बहुत बढिया है। कोई भी कार चुटकी बजाते दूर कर देता है।”
“उसका कोई फोन होगा, उसके साथ बात कर लेते है।” सुनील ने पूछा, लेकिन फोन नम्बर उस व्यक्ति के पास नही था। दो किलोमीटर का नाम सुन कर दोनों परेशान हो गए। चलने से पहले बीयर की दो बोतल और खरीद कर रास्ते के लिए रख ली। कुछ कदम चलने के बाद गर्म हवा के थपेडों ने दोनों को फिर से पस्त कर दिया। जो कुछ समय पहले तापमान पर शर्त लगा रहे थे, एक ही सुर में गर्मी से परेशान कहने लगे। “लगता है, तापमान पचास नही साठ डिग्री से अधिक होगा।”
“गुरू पैदल यात्रा कब तक करवाऔगे, कोई सवारी भी नही नजर आ रही है।” सुनील झुंझला के बोला।
“पता नही कहां फंस गये, इस रेत के जंगल में, पानी नही मिला, बीयर मिल गई। वाकई देश तरक्की पर है। इसे कहते हैं इकोनोमी बूम। इसी तरह चलता रहा तो अमेरिका को पछाड़ देगें।”
“अमेरिका को गोली मार, वापिस उसी गांव चलते है, शायद कोई सवारी मिल जाए।” दोनों वापिस पहुंचे। एक ऊंट गाड़ी वहां आकर रूकी। दोनों खुशी से उछल पड़े। “सुनो गाड़ी वाले कस्बे तक छोड़ दो, पीछे हमारी कार खराब हो गई है, मैकेनिक तक हमें पहुंचा दो।” दोनों की बात सुन कर गाड़ी वाला बोला। “पीछे सड़क पर जो टूटी कार खडी़ है, उसी की बात कर रहे हो।”
“हां भई हां।”
“इस गर्मी में मैं कहीं नही जाऊंगा। शाम को जब सूरज ढल जाएगा, छः बजे के बाद छोड़ दूंगा।”
“आपको जितने पैसे चाहिए, दे देंगें, प्लीज कस्बे में मैकेनिक तक छोड़ दो।”
“अपनी जान ज्यादा प्यारी है, अगर लू लग गई, तब इलाज कौन करवाएगा। न बाबा न। हमारा नियम है, सेहत पहले, सेहत होगी, पैसे कमा लेंगें।” कह कर वह घर के अंदर चला गया। दोनों आश्चर्य से एक दूसरे को ताकने लगे।
“क्या जमाना आ गया है, पैसे लेकर दर दर की ठोकरें खा रहे है, कोई सवारी नही मिल रही है।” सुभाष झुंझला कर बोला।
“गुरू यही दोपहर काट लेते हैं। दो किलोमीटर इस तपती दोपहर में जाना खतरनाक हो सकता है, अगर लू लग गई तो आफत में आ जाएगें।” सुनील ने सलाह दी।
“दोपहर अगर काटी तो रात कस्बे में काटनी पडेगी। कार ठीक करवानें में भी समय लगेगा।” सुभाष ने कहा। “पद यात्रा करने में ही भलाई हैं। शोध कब करेगें।”
“जीवन की कटु सच्चाई पर शोध होगा। आज तो मार्किट के बारे में कुछ नही सूझ रहा है।” कह कर सुनील बेमन सुभाष के साथ पद यात्रा पर निकल पड़ा। गर्म हवा के थपेडों को सहते किसी तरह हिम्मत करके आगे बढ़ते रहे। प्यास के साथ भूख लगने लगी। सुभाष ने एक बीयर की बोतल सुनील को दी। उस्ताद प्यास बुझा।”
“गुरू नहीं पीनी, पहले कुछ खाऊंगा।” सुनील ने ताना देते हुए कहा।
“मेरा भेजा मत खा, बाकी बात कर।” सुभाष ने बोतल मुंह से लगा कर कहा। एक दूसरे को कहते सुनते कस्बे की ओर पद यात्रा शुरू की। गिरते लुडकते दो किलोमीटर का सफर तय करते ऐसा लग रहा था कि एक जन्म बीत गया फिर भी कस्बा और अधिक दूर होता जा रहा है। पसीने से लथपथ बेजान टांगों के ऊपर जिस्म का बोझ जैसे तैसे लाद कर जब कस्बा आया तो एक ढाबे की चारपाई पर सुनील धम से बैठ गया। मुख से कोई शब्द नही निकाल पाया, हाथ के ईशारे से ढाबे वाले को बुला कर पानी का ईशारा किया। गर्म पानी के चार गिलास गटक के पूछा, खाने को क्या मिलेगा। “साब जी जो कहो बना देते है। पराठों के साथ आलू गोभी, पनीर की सब्जी खाईये, अंगुलियां चाटते रह जाऔगे।” भूख से हाल बेहाल हो रखा था, दोनों का। खाने के बाद सुनील की जान में जान आई। “भाई मजा आ गया, खाना बहुत अधिक स्वादिष्ट था। अब कार मैकेनिक का पता बताऔ।”
“साब जी, आप भूख से बेहाल हो रखे थे, आप देख नही सके। दो दुकान छोड़ कर जहां ट्रैक्टर खड़ा है, वही मैकेनिक की दुकान है। मैकेनिक ट्रैक्टर ठीक कर रहा है।”
“गुरू जी आप जा कर बात करो, मैं चारपाई पर जरा दस मिन्ट सुस्ता लूं।” सुनील सुभाष को मैकेनिक के पास भेज कर चारपाई पर पसर गया।
सुभाष ने मैकेनिक को समबोधित करके कहा, “उस्ताद जी, कार खराब हो गई है, ठीक करवानी है।”
“क्या खराबी है।” मैकेनिक ने ट्रैक्टर ठीक करते हुए बिना सुभाष की तरफ देखे कहा।
“रेडियेटर लीक हो गया है।”
“कार कहां खडी है।”
“लगभग ढाई किलोमीटर पीछे। चल कर देखना होगा। आगे का बम्पर भी निकल गया है।”
“भाई साब वहां जाना मुश्किल है, शाम को जब सूरज ढल जाएगा, तभी जा सकते है। अभी आप गर्मी का प्रकेप देख रहे है। वहां अभी नही जा सकता हूं।” मैकेनिक ने साफ मना कर दिया।
“उस्ताद जी, आप पैसे की चिन्ता न करे, जितना कहेगें, डबल दूंगा।” सुभाष ने चापलूसी करते हुए कहा। “सुना है, आप का हाथ लगते ही कार ठीक हो जाती है।”
“वह तो ठीक है, लेकिन मैं इतनी गर्मी में वहां नही जाऊंगा। अपनी सेहत पहले देखनी है, पैसे के पीछे स्वास्थ्य से खिलवाड़ कभी नहीं करूंगा। आप शाम तक यहां आराम कीजिए।” मैकेनिक किसी भी कीमत पर जाने को तैयार नही हुआ। थक कर सुभाष ढाबे पर आ गया और ढाबे वाले से पूछने लगा कि कोई और मैकेनिक मिलेगा। तभी सुनील ने कहा, “यही इकलोता मैकेनिक है, अब कम से कम दो घंटे आराम कर, काफी थक गये है।”
“यह देश कभी नही सुधरेगा।” सुभाष ने दो गालियां निकाल कर कहा।
“गुरू जब रेत के जंगल में बीयर मिल गई, तब तो यही देश अमेरिका से आगे निकल गया था, जब मैकेनिक ने मना कर दिया, तब देश पिछड़ गया, यह सोच गलत है।” सुनील ने ताना कसते हुए कहा।
“सुनील बाबू सब तुम्हारा किया हुआ है, इतनी रफ कार चला रहे थे, कि सारे अंजर पंजर तोड़ दिये, कार के भी और मेरे भी। वापसी में कार मैं चलाऊंगा।”
“गुरू पहले कार ठीक करवा लो फिर पूरे रास्ते कार तुम्ही चलाना। मैं पिछली सीट पर आराम से सोता हुआ जाऊंगा।”
“मुझे ड्राइवर समझ रखा है” सुभाष ने गुस्से में कहा।
“ड्राइवर नही, कार चालक गुरू जी।” सुनील ने पलटवार किया। इसी तरह नोक झोंक में शाम हो गई। गर्म हवा अभी भी चल रही थी, तापमान में कोई कमी महसूस नही हो रही थी। छः बजे मैकेनिक ने खुद आकर कहा “भाई साब कार ठीक नहीं करवानी, आप दोनों तो पिछले तीन घंटों से नोक झोंक मे लगे हुए हो। आराम करते तो सारी थकान मिट जाती। रात को ड्राइविंग करते समय नींद आ सकती हैं। रात को सभी तेज चलते हैं, जरा सी आंख लग गई तो दुर्घटना हो सकती है। इसलिए हम तो रात को कभी ड्राइविंग नही करते हैं।”
“आप रात को ड्राइविंग करते नहीं, दोपहर को भी नही करते, तब ड्राइविंग कब करते हैं।” सुभाष नें व्यंग्य में कहा।
“भाई साब हम थंडे समय में काम करते हैं। सुबह चार बजे से काम में लग जाते है, दोपहर बारह बजे से शाम छः बजे तक आराम करते है, फिर शाम को छः बजे से नौ दस बजे तक काम करते है। इतनी गर्मी में जब सूरज आग छोड़ता है, उस समय घर के अंदर आराम करने में ही भलाई है। अपनी सेहत अपने खुद के हाथों में होती है, इसीलिए आप के पैसों को ठुकरा दिया। आप बडे आदमी है, बड़ी कंपनी में नौकरी करते हैं, लेकिन आखिर कहलाऔगे नौकर ही। अपने से बडे आफीसर की डांट जरूर खाऔगे। मौसम का मिजाज नहीं समझते हैं आप लोग, बस पैसा और काम ही आपको नजर आता है। हर चीज को पैसों में तोलते हो आप, लेकिन रहते गुलाम हो। आप हमसे अधिक अमीर हैं, लेकिन दिल के बादशाह हम हैं। आप हम पर रौब नही डाल सकते हो। आप रौब सह सकते हो, लेकिन डाल नही सकते। आप रौब डाल के देखो, हम काम नही करेगें और आप कुछ नही कर सकते, सिर्फ मन ही मन गाली जरूर निकाल सकते हो, लेकिन जुबान पर मत लाना, वरना शहर से मैकेनिक लाना पडेगा।”
मैकेनिक का भाषण सुन कर सुभाष का खून खौलने लगा, मन ही मन कहने लगा, जी चाहता है साले का गला घोंट दूं, लेकिन अपने को नियंत्रित कर के कहा, “कार ठीक करने में समय लग सकता है, फिर अंधेरा हो जाने पर कार रिपेरिंग में दिक्कत आ सकती है।”
“भाई साब पद यात्रा तो करनी नही है, ऊंट गाडी वाले को कहा है, बस आने ही वाला होगा। कार का रेडियेटर बदलना है, दस मिन्ट में बदल दूंगा।” तभी एक ऊंट गाडी आ कर रूकी, मैकेनिक ने अपने औजार और रेडियेटर गाडी में डाले और दौनों के साथ चल पड़ा। सुनील नें गाडी वाले को देख कर कहा, “आप हमें दोपहर को गांव में मिले थे और यहां आने से मना कर दिया था।”
“बिल्कुल सही पहचाना आपने, मैं वही रूक गया था, अब आया हूं, इतनी गर्मी में हम काम नही करते हैं। यह ऊंट मेरी रोजी रोटी है, इस पर मैं अन्याय नहीं कर सकता हूं। मुझे अगर आराम चाहिए तो मेरे ऊंट को भी। अब तरो ताजा हो गए हैं, रात तक काम करेंगें। आप इसे जानवर मत समझिए, परिवार का एक अहम हिस्सा है। जैसे आप अपने परिवार के हर सदस्य का पूरा ध्यान रखते है, वैसे हम अपने परिवार के अहम सदस्य ऊंट का भी ध्यान रखते हैं।”
मैकेनिक और ऊंट गाडी वाले की बातें सुभाष को बेमतलब का भाषण लग रही थी, लेकिन चुपचाप सुनता रहा। थोडी देर में कार तक पहुंच गए। मैकेनिक काफी होशियार था, फटाफट कार का रेडियेटर बदला और कार के बम्पर को ठोक कर पेचो से अपनी जगह लगा दिया। कूलंट डाल कर कार स्टार्ट की। “भाई साब हो गई कार ठीक, अब आप निश्चिन्त हो कर ड्राईव कीजिए।” मैकेनिक ऊंट गाडी में बैठ कर वापिस कस्बे चला गया और सुभाष ने स्टेरिंग संभाला। “जी कर रहा है साले दोनों को गोली मार दूं, नखरे टाटा बिरला से अधिक कर रहे थे। पूरा दिन खराब कर दिया।”
“गुरू जी उनकी बातें में दम था, आखिर हम गुलाम ही हैं, पैसों के और अपने आफिसरों के। क्या हम किसी काम के लिए ना कह सकते है, जिस ढृढता से इन लोगों ने मना किया, काम के लिए। क्या कभी हमने अपने बारे में भी सोचा है।” सुनील की बात बीच में काटते हुए सुभाष ने कहा “संत सुनील जी अब अपनी कथा बंद कीजिए, मेरा सिर इनके भाषणों से चकरा गया है, अब आप प्लीज चुप रहिए। आपको वातानुकुलित आफिस मिला हुआ है, आप दोपहर को आराम नही कर सकते हो।”
“गुरू जी आपकी बात भी ठीक है, लेकिन उनकी बातों में ज्यादा दम है, हम गुलाम है हम अपनी मर्जी से कुछ नही कर सकते है, हमारी लाईफ में सिर्फ भाग दौड है, और वो हैं दिल के बादशाह। हमें भी आखिर उनकी बाते सुननी पडी। अपने आफिस में भी और इनकी भी। गुलामों की तरह सिर झुका कर। वो जो कहते गए, सब सुनते रहे। आफिस में एक ऊंची पदवी मिली हुई है, मैनेजर की, इसी से हम खुश होते रहते है।”
“संत बाबा सुनील कुमार जी की जय।” सुभाष ने जोर से जयकारा लगाया और सुनील धीमे धीमे हंसने लगा।

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