बड्ढकि शूकर जातक की गाथा – “जब तुम जंगली सुअर के शिकार को जाते थे, तब सदा ही उत्तम मांस लाया करते थे। आज तुम खाली हाथ शोक ग्रस्त-से आ रहे हो। तुम्हारा वह विगत पराक्रम कहाँ गया?”

वर्तमान कथा – तिस्स की युक्ति
कोशल के राजा प्रसेनादि की बहन मगध के राजा विम्बसार को ब्याही थी, जिसके दहेज में काशी के समीप के कुछ ग्राम कोशल नरेश ने अपनी बहन के स्नान तथा गंध, शृंगार आदि के व्यय के हेतु दिए थे।

विम्बसार के पुत्र अजातशत्रु ने अपने पिता का वध कर मगध राज्य पर अधिकार प्राप्त किया। कोशल राजकुमारी ने पति के वियोग से दुःखी हो प्राण त्याग दिये। प्रसेनादि ने काशी के उपरोक्त ग्रामों पर अजातशत्रु का अधिकार स्वीकार नहीं किया। कई बार इस विषय को लेकर मगध और कोशल में भयंकर युद्ध हुए, जिनमें कोशल को बराबर परास्त होना पड़ा।

प्रसेनादि ने मंत्रियों से परामर्श करके जेतवन में अपने अधिकारियों को विद्वान भिक्षुओं का मत जानने को भेजा। उस समय जेतवन में भगवान बुद्ध के दो विद्वान शिष्य धनुग्रह तिस्स तथा उत्त निवास करते थे। एक दिन रात को दोनों को नींद नहीं आई और वे आपस में इस प्रकार बातचीत करने लगे–

उत्त ने कहा, “बिचारा प्रसेनादि कितना अभागा है। प्रत्येक युद्ध में भाग्यलक्ष्मी उसके शत्रु को ही वरण करती है!”

तिस्स ने उत्तर दिया, “प्रसेनादि का घड़े के समान पेट है, परंतु उसमें बुद्धि बिलकुल नहीं है। युद्ध का आयोजन करना वह जानता ही नहीं।”

उत्त ने प्रश्न किया, “आखिर उसे करना क्या चाहिए?”

तिस्स ने कहा, “भाई उत्त! युद्ध में तीन प्रकार की व्यूह रचना होती है – पद्म व्यूह, शकट व्यूह और चक्र व्यूह। यदि कोशल नरेश अपनी सेना को गुप्त रूप से दो पहाड़ी किलों में छिपाकर रखे और सामने युद्ध में अपनी दुर्बलता प्रगट करके पलायन करता हुआ मगध सेना को इन दोनों दुर्गों के बीच में ले जाकर फिर आगे और पीछे दोनों ओर से आक्रमण कर दे, तो वह अजातशत्रु को जीवित ही पकड़ सकता है।”

कोशल नरेश के अधिकारी गण इस बात को सुन रहे थे। उन्होंने जाकर राजा से सब वृत्तांत कहा। प्रसेनादि ने तिस्स के बताए अनुसार ही योजना बनाकर युद्ध किया और अजातशत्रु जीवित ही पकड़ लिया गया। अंत में विग्रह का अन्त इस प्रकार हुआ कि प्रसेनादि ने अपनी कन्या वाजिरा का विवाह अपने भांजे अजातशत्रु से कर दिया और काशी के उपरोक्त ग्राम पुनः दहेज में समर्पित कर दिये।

धनुग्रह तिस्स की उस दिन की बात धीरे-धीरे प्रकाश में आई और जेतवन तथा श्रावस्ती में सर्वत्र उनकी चर्चा होने लगी। भगवान बुद्ध के समक्ष जब इस विषय की बात उपस्थित हुई तो उन्होंने कहा, “धनुग्रह तिस्स के युद्ध कौशल का यह प्रथम परिचय नहीं है। इससे पूर्व भी इन्होंने ऐसा ही किया था।” ऐसा कहकर उन्होंने पूर्व जन्म की “शूकर का साहस” नामक एक कथा सुनाई–

अतीत कथा – शूकर के साहस की कहानी
प्राचीन काल में, जब काशी में महाराज ब्रह्मदत्त राज्य करते थे, काशी के समीप के एक ग्राम में कुछ बढ़ई रहते थे। उनमें से एक को जंगल में लकड़ी काटते समय एक सूअर का बच्चा गड्ढे में पड़ा मिला। वह उसे निकालकर घर ले आया और बड़े यत्नपूर्वक उसे पालने और सिखाने लगा।

धीर-धीरे वह शूकर बड़ा हुआ और उसके मुख के बाहर दो तेज़ दाँत दिखाई देने लगे। यह तरुण शूकर बहुत ही हृष्ट-पुष्ट और सौम्य स्वभाव वाला था। मांसाहारी मनुष्यों से उसकी रक्षा करने के विचार से एक दिन बढ़ई उसे फिर जंगल में छोड़ आया।

वह बलवान युवा शूकर वन में घूम घूमकर अपने रहने योग्य कन्दरा और खाने योग्य कंद, मूल, फल खोजने लगा। इसी समय उसे उसी की जाति के अनेक शूकर मिले, परंतु वे सब दुःखी और दुर्बल दिखाई दिए। उसने जब उनकी विपत्ति पूछी तो उन्होंने उसे बताया कि इस वन में एक ढोंगी संन्यासी रहता है, जो कहीं से एक सिंह को ले आया है।

सिंह के भय से वे त्रस्त रहते हैं क्योंकि वह नित्य ही कुछ शूकरों को मारकर स्वयम् खाता है और उस संन्यासी को भी खिलाता है। बढ़ई के शूकर ने उन सब को अभयदान दिया और उन सबने उस शूकर का साहस देखकर उसे अपना नेता स्वीकार कर लिया। अब सब मिलकर उस सिंह का सामना करने की युक्ति सोचने लगे।

शूकर नेता ने समस्त अनुयायियों को युद्ध कौशल सिखाया और शकट व्यूह बनाकर दुर्बल बच्चों, मादाओं और बूढ़ों को उसके मध्य में सुरक्षित करके तरुण और बलवान शूकरों को बाहर वाले भाग में नियुक्त किया। इस प्रकार वह सिंह का सामना करने को तैयार होकर उसकी प्रतीक्षा करने लगा।

ठीक समय पर सिंह आया। पर्वत के ऊपर से उसने नीचे व्यूह-बद्ध शूकरों को देखा और भयंकर गर्जना किया। परन्तु जब उसने देखा कि एक भी शूकर भयभीत होकर उस व्यूह से बाहर नहीं भागा, तब शूकर का साहस देखकर उसकी आक्रमण की हिम्मत नहीं हुई।

सिंह को चिंताकुल खाली हाथ लौटते देख ढोंगी संन्यासी ने यह गाथा कही – “जब तुम जंगली सुअर के शिकार को जाते थे, तब सदा ही उत्तम मांस लाया करते थे। आज तुम खाली हाथ शोक ग्रस्त-से आ रहे हो। तुम्हारा वह विगत पराक्रम कहाँ गया?”

इसका उत्तर सिंह ने इस प्रकार दिया– “पहले मुझे देखकर शूकर समूह में भगदड़ मच जाती थी; वे अपनी कंदराओं की ओर भयभीत होकर भाग जाते थे; परंतु जित की भाँति खड़े होकर मेरा सामना करने को उद्यत हैं।”

ढोंगी संन्यासी ने सिंह को धिक्कारते हुए कहा, “उनसे डरने की कोई आवश्यकता नहीं है। एक भयंकर गर्जना के साथ जब तुम छलाँग भरोगे, उस समय उनकी सिट्टी गुम हो जायगी और वे घबड़ाकर इधर-उधर भागने लगेगें।”

सिंह ने अपने गुरु के उपदेशानुसार ही काम किया। वह वन में गया और एक ऊँची पहाड़ी पर से दहाड़कर छलांग भरी। पहाड़ी बहुत ऊँची थी। सिंह छलांग भरकर उसकी ढलान पर जा गिरा और लुढ़कता-पुढ़कता नीचे एक गहरे गड्ढे में जा गिरा।

शेर की हड्डी पसली चूर-चूर हो गई। इसी समय शूकरों के नेता ने अपने साथियों सहित आक्रमण करके उसे मार डाला। सिंह के मर जाने पर नेता ने कहा, “अब तो तुम लोग निर्भय हो गए?”

शूकरों ने कहा, “अभी कहाँ? जब तक वह ढोंगी संन्यासी जीवित है, तब तक सिंहों का आना बन्द नहीं होगा। वह फिर किसीको बुला लाएगा।”

नेता ने कहा, “अच्छा, चलो उसे भी देख लें!” सब लोग उसकी कंदरा को ओर चल पड़े।

इधर सिंह की प्रतीक्षा करते जब बहुत देर हो गई, तो ढोंगी संन्यासी बड़बड़ाता हुआ उसकी खोज में निकला। रास्ते में उसने जब शूकरों के झुण्ड को अपनी ओर आते देखा, तब तो वह एक दम घबड़ा गया और दौड़कर एक अंजीर के पेड़ पर चढ़ गया।

शूकरों ने उस पेड़ को घेर लिया। अब नेता ने बताया कि अपनी खीसों से सब लोग पेड़ के आस-पास की मिट्टी खोद डालो। इससे जड़ें बाहर आ जायँगी। फिर उन जड़ों को भी दाँतों से काट डालो। इससे पेड़ कमजोर हो जायगा। इसके पश्चात् धक्का मारकर पेड़ को गिरा दो, जिससे ढोंगी संन्यासी अपने आप भूमि पर गिर जायगा। सबने ऐसा ही किया और उस ढोंगी संन्यासी का वहीं अन्त हो गया।

बोधिसत्व उस समय निकट ही एक वृक्ष के खोखले में निवास करते थे। उन्होंने शूकर का साहस व उसकी कुशलता देखकर नीचे लिखी तीसरी गाथा कही–

“समस्त समवेत जातियों की जय हो! मैंने स्वयम् एक आश्चर्यजनक संगठन देखा है कि शूकरों ने एक बार संघ-शक्ति और सम्मिलित दंत-शक्ति के द्वारा वनराज केशरी को परास्त कर दिया।”

कथा के अंत में पूर्वा पर सम्बन्ध जोड़ते हुए भगवान बुद्ध ने कहा, “धनुग्रह तिस्स ही पूर्व जन्म में बढ़ई का शूकर था और मैं तो वृक्षवासी आत्मा था ही।”

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