कुलावक जातक की गाथा – [हे मातलि! सिम्बलि वन के गरुड़-शावकों को रथ के अगले भाग से कुचलने से बचाओ। हम असुरों को अपने प्राण चाहे दे दें, परन्तु इन पक्षियों के घोंसले नष्ट न होने पाएँ।]

वर्तमान कथा – भिक्षु का अधर्म
एक बार भगवान बुद्ध के समीप आकर दो भिक्षुत्रों ने प्रणाम किया। भगवान ने प्रश्न किया, “कहां से आ रहे हो? मेल-मिलाप से तो रहते हो न?”

उनमें से एक भिक्षु बोला, “भगवन्! मेरे पास पानी छानने के लिये छन्ना न था। मेरे इस साथी ने मुझे अपना छन्ना न दिया। मुझे प्यास बहुत जोर से लगी थी, अतः मैंने बिना छना पानी पी लिया।

भगवान ने कहा, “हे भिक्षु! विपत्ति पड़ने पर ही तो धर्म विषयक आस्था की परीक्षा होती है। सुन, मैं अपने पूर्व जन्म की एक कथा सुनाता हूँ, जिसमें मघ का मंत्र और इन्द्रपद की प्राप्ति का वर्णन है।”

अतीत कथा – मघ का मंत्र और इन्द्र-पद की प्राप्ति
मगध देश के मचल ग्राम में एक बार बोधिसत्व का जन्म हुआ। यहाँ उनका नाम मघमाणवक रखा गया। उस गाँव में तीस कुल थे। प्रायः सदाचार के अभाव में सभी लोग दुःखी रहते थे। परिश्रम न करना, मद्य मांस का सेवन तथा अन्य बुरी आदतों के कारण जब उनकी हालत बहुत दयनीय हो गई, तब उन लोगों ने मघ-माणवक के परामर्श के अनुसार कार्य आरंभ किया।

सब लोग प्रातःकाल उठकर पूर्व निश्चित कार्यों में लग जाते थे और शाम को घर आकर विश्राम करते थे। उन्होंने आस-पास के वनों को काटकर साफ भूमि खेती के लिए निकाली, चट्टानों और टीलों को काटकर अच्छे मार्ग बनाए, तालाब, पुल और शालाओं का निर्माण कर उन्होंने मचल ग्राम को सब प्रकार से सुन्दर और सुखमय बना लिया।

उसी गांव में एक भोजक रहता था, जो मांस, मदिरा तथा अन्य वस्तुएँ बेचकर ग्रामवासियों को ठगा करता था। लोगों के मद्य मांस त्याग कर आत्मनिर्भर बन जाने से उसे बहुत हानि उठाना पड़ी, क्योंकि उसका सब धन्धा ही समाप्त हो गया। उसने राजा से शिकायत की कि ग्राम में बहुत-से चोर आ गए हैं। राजा के सिपाहियों के आने पर उसने उन तीसों आदमियों को पकड़वा दिया।

राजा क्रोध से पागल हो रहा था। उसने बिना पूरी बात समझे आदेश दिया कि इनको मस्त हाथी के पैरों से कुचलवा डालो। दूसरे दिन सब लोग मैदान में हाथी द्वारा चोरों के कुचले जाने का तमाशा देखने को एकत्र हुए, परन्तु बहुत यत्न करने पर भी जब हाथी उन चोरों के ऊपर आक्रमण करने को आगे न बढ़ा तो राजा ने मघमाणवक को बुलाकर पूछा, ‘तुम कौन-सा मन्त्र जानते हो?’

मघ ने कहा, “हमारा मंत्र है–
१. चोरी न करना,
२. हिंसा न करना,
३. झूठ न बोलना,
४. शराब न पीना और
५. सबसे मित्रभाव रखना।
हम लोग तालाब खोदते हैं, रास्ते बनाते हैं, शालाएं बनाते हैं और सब को सुखी बनाने के लिये काम करते हैं।”

मघ का मंत्र जानकर राजा पर बहुत प्रभाव पड़ा। उसने पूछताछ की तो सब बातें सही पाईं। उसने प्रसन्न हो उन्हें छोड़ दिया। उस भोजक बनिये पर राजा को बड़ा क्रोध आया और उसने उसका सब धन छीनकर उन तीस व्यक्तियों को दे दिया।

इस प्रकार मिले हुए धन से तीसों व्यक्तियों ने मघमाणवक की सलाह से एक विशाल ग्राम भवन का निर्माण करने का निश्चय किया। मघ के घर में उस समय चार स्त्रियाँ थीं जिनके नाम थे सुधर्मा, चित्रा, नन्दा और सुजाता। सुधर्मा ने चाहा कि ग्राम भवन के निर्माण में स्त्रियों को भी कुछ कार्य करने का अवसर दिया जाय। परन्तु उस समय स्त्रियों को इस प्रकार के कार्य करने की मनाही थी।

मघ ने कहा, “तुम चुप-चाप इस भवन के लिए कर्णिकाएँ (धन्नियाँ) बनवाकर उन्हें छिपा कर रखो।” शाला भवन बन जाने पर जब छत का काम प्रारम्भ करने का समय आया तब मालूम हुआ कि कर्णिकाएँ तो बनी ही नहीं। लोगों ने कहा, “वृक्ष काटकर कर्णिकाएँ बनाओ।”

मघ ने कहा, “हरी लकड़ी की कर्णिकाएँ ठीक न होंगी। क्यों न सुधर्मा की कर्णिकाएँ हम ले लें?” पहले तो लोगों ने नारी की वस्तु लेने से इनकार किया, परन्तु मघमाणवक के समझाने से वे ले ली गईं। स्त्रियों का सहयोग भी अच्छे कामों में लिया जा सकता है–यह बात धीरे-धीरे मान ली गई। भवन बन जाने पर चित्रा ने उसके आस-पास सुन्दर बाग़ लगाया और नन्दा ने एक अच्छा सरोवर बनवाया। केवल सुजाता ने कोई सहयोग इस काम में नहीं दिया।

कालान्तर में मघमाणवक ने शरीर त्याग दिया और अच्छे कर्म करने से अगले जन्म में इन्द्र हुआ। उसकी तीनों पत्नियाँ सुधर्मा, चित्रा और नन्दा यहाँ भी उसकी पत्नियाँ हुईं। मघ का मंत्र न मानने और जन-हितकारी कार्य में सहयोग न देने के कारण सुजाता को एक सूखे जंगल में बगुला पक्षी की योनि मिली और वह दुःखी रहने लगी।

इन्द्र पद प्राप्त होने पर बोधिसत्व का ध्यान देवों और असुरों के बीच चलने वाले झगड़ों की ओर गया। असुर बहुत झगड़ालू थे, अतः उन्हें दिव्य-पान द्वारा अचेत कराकर सुमेरु पर्वत के नीचे समुद्र के पास के प्रदेश में पहुंचा दिया गया। चेत आने पर असुरों को सब बात मालूम हुई और वे सुमेरु पर्वत को पारकर पुनः देव लोक में आने का प्रयत्न करने लगे।

उन्हें इस प्रयत्न से रोकने के लिये इन्द्र ने उन पर आक्रमण किया। परन्तु असुर क्रोध से पागल हो रहे थे। उन्हें जीतना कठिन हो गया। निराश हो इन्द्र का सारथी मातलि रथ को समुद्र तट से जंगलों के बीच से हाँकता हुआ द्रुत गति से देवपुर की ओर ले जाने लगा। मार्ग में गरुड़ पक्षियों के बहुत-से घोंसले थे, जो रथ के वेग से चलने से टूट-टूटकर गिरने लगे।

गरुड़ शावकों का क्रन्दन सुन इन्द्र ने कहा, मातलि, अपने प्राणों की रक्षा के लिये मैं गरुड़-शावकों को नष्ट नहीं होने दूंगा। तुम इस मार्ग को त्याग दो। उपरोक्त गाथा का यही आशय है।

असुर देवपुर जा पहुँचे। परन्तु इन्द्र के पुनः आ जाने से वे डर कर भाग गए। बोधिसत्व (इन्द्र) ने अब देवों और असुरों के नगरों के बीच पाँच चौकियाँ डलवा दीं और उन्हें आदेश दे दिया कि जो भी अपनी सीमा से बाहर बढ़ने का प्रयत्न करे उसे बल-प्रयोग द्वारा तुरन्त रोक दो। इस प्रकार देवताओं और असुरों के बीच चलने वाले युद्धों का अन्त हो गया और दोनों नगर अयुद्धपुर कहलाने लगे।

अब बोधिसत्व को सुजाता को चिन्ता हुई। उन्होंने उसे पंचशील की शिक्षा देकर धर्मरत किया। उसने घोर कष्ट पाकर भी संयम न छोड़ा और जन्मान्तर में पुनः अपनी तीन सहेलियों के साथ बोधिसत्व की सहचरी बनी। यही है मघ के मंत्र की तथा इंद्रपद प्राप्ति की कथा।

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