प्रीत सूखे कांस सी ,

उर में दबा चलता रहा ।

फिर कभी बरसें स्वयं घन ,

फिर कभी सरसे स्वयं मन ,

हों हरित सूखे तृणों की आंस निकलें ।

बस यही विश्वास मन पलता रहा ।

*

लौट आये वह कभी ,

यदि चेतना वह प्रिय सुधि ,

जिसके सहारे लौट आओ तुम,

पुनः मुझ तक मेरे विगलित ह्रदय तक ।

मान जाओ अन्त्य क्षण में,

पूर्व है जोकि प्रलय से ।

मैं इन्हीं आश्वासनों फलता रहा ।

प्रीत सूखे कांस सी ,

उर में दबा चलता रहा ।।

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