दूसरे दिन पुनः उसी ढंग का दरबार लगा और सब कोई अपने-अपने ठिकाने पर बैठ गये।
इशारा पाकर दलीपशाह उठ खड़ा हुआ और उसने अपने चेहरे से नकाब हटाकर दारोगा, जैपाल, बेगम और नागर वगैरह की तरफ देखकर कहा –
दलीप - आप लोगों की खुशकिस्मती का जमाना तो बीत गया अब वह जमाना आ गया है कि आप लोग अपने किए का फल भोगें और देखें कि आपने जिन लोगों को जहन्नुम में पहुंचाने का बीड़ा उठाया था आज ईश्वर की कृपा से वे ही लोग आपको हंसते-खेलते दिखाई दे रहे हैं। खैर मुझे इन बातों से कोई मतलब नहीं, इसका निपटारा तो महाराज की आज्ञा से होगा, मुझे अपना किस्सा बयान करने का हुक्म हुआ है सो बयान करता हूं। (और लोगों की तरफ देखकर) मेरे किस्से से भूतनाथ का भी बहुत बड़ा संबंध है मगर इस खयाल से कि महाराज ने भूतनाथ का कसूर माफ करके उसे अपना ऐयार बना लिया है मैं अपने किस्से में उन बातों का जिक्र छोड़ता जाऊंगा जिनसे भूतनाथ की बदनामी होती है, इसके अतिरिक्त भूतनाथ प्रतिज्ञानुसार महाराज के आगे पेश करने के लिए स्वयं अपनी जीवनी लिख रहा है जिससे महाराज को पूरा-पूरा हाल मालूम हो जायगा अस्तु मुझे कुछ कहने की जरूरत भी नहीं है।
मैं मिर्जापुर के रहने वाले दीनदयालसिंह ऐयार का लड़का हूं। मेरे पिता महाराज धौलपुर के यहां रहते थे और वहां उनकी बहुत इज्जत और कदर थी। उन्होंने मुझे ऐयारी सिखाने में किसी तरह की त्रुटि नहीं की। जहां तक हो सका दिल लगाकर मुझे ऐयारी सिखाई और मैं भी इस फन में खूब होशियार हो गया, परंतु पिता के मरने के बाद मैंने किसी रियासत में नौकरी नहीं की। मुझे अपने पिता की जगह मिलती थी और महाराज मुझे बहुत चाहते थे, मगर मैंने पिता के मरने के साथ ही रियासत छोड़ दी और अपने जन्म-स्थान मिर्जापुर में चला आया क्योंकि मेरे पिता मेरे लिए बहुत दौलत छोड़ गये थे और मुझे खाने-पीने की कुछ परवाह न थी। पिता के देहांत के साल-भर पहले ही मेरी मां मर चुकी थी अतएव केवल मैं और मेरी स्त्री दो ही आदमी अपने घर के मालिक थे।
जमानिया की रियासत से मुझे किसी तरह का संबंध नहीं था परंतु इसलिए कि मैं एक नामी ऐयार का लड़का और खुद भी ऐयार था तथा बहुत से ऐयारों से गहरी जान-पहचान रखता था मुझे चारों तरफ की खबरें बराबर मिला करती थीं, इसी तरह जमानिया में जो कुछ चालबाजियां हुआ करती थीं वह भी मुझसे छिपी हुई न थीं। भूतनाथ की स्त्री और मेरी स्त्री आपस में मौसेरी बहिनें होती हैं और भूतनाथ का जमानिया से बहुत घना संबंध हो गया था इसलिए जमानिया का हाल जानने के लिए मैं उद्योग भी किया करता था मगर उसमें किसी तरह का दखल नहीं देता था। (दारोगा की तरफ इशारा करके) इस हरामखोर दारोगा ने रियासत पर अपना दबाव डालने की नीयत से विचित्र ढोंग रच लिया था। शादी नहीं की थी और बाबाजी तथा ब्रह्मचारी के नाम से अपने को प्रसिद्ध कर रखा था बल्कि मौके-मौके पर लोगों को कहता था कि मैं तो साधू आदमी हूं मुझे रुपये-पैसे की जरूरत ही क्या है, मैं तो रियासत की भलाई और परोपकार में अपना समय बिताना चाहता हूं, इत्यादि। परंतु वास्तव में यह परले सिरे का ऐयाश, बदमाश और लालची था जिसके विषय में कुछ विशेष कहना मैं पसंद नहीं करता।
मेरे पिता और इंद्रदेव के पिता दोनों दिली दोस्त और ऐयारी में एक ही गुरु के शिष्य थे अतएव मुझमें और इंद्रदेव में भी उसी प्रकार की दोस्ती और मुहब्बत थी इसलिए मैं प्रायः इंद्रदेव से मिलने के लिए उनके घर जाया करता और कभी-कभी वे मेरे घर आया करते थे। जरूरत पड़ने पर इंद्रदेव की इच्छानुसार मैं उनका कुछ काम भी कर दिया करता और उन्हीं के यहां कभी-कभी इस कम्बख्त दारोगा से भी मुलाकात हो जाया करती थी, बल्कि यों कहना चाहिए कि इंद्रदेव ही के सबब से दारोगा, जैपाल, राजा गोपालसिंह और भरतसिंह तथा जमानिया के और भी कई नामी आदमियों से मेरी मुलाकात और साहब-सलामत हो गई थी।
जब भूतनाथ के हाथ से बेचारा दयाराम मारा गया तब से मुझमें और भूतनाथ में एक प्रकार की खिंचाखिंची हो गई थी और वह खिंचाखिंची दिनों-दिन बढ़ती ही गई, यहां तक कि कुछ दिनों बाद हम दोनों की साहब-सलामत भी छूट गई।
एक दिन मैं इंद्रदेव के यहां बैठा हुआ भूतनाथ के विषय में बातचीत कर रहा था क्योंकि उन दिनों यह खबर बड़ी तेजी के साथ मशहूर हो रही थी कि 'गदाधरसिंह (भूतनाथ) मर गया।' परंतु उस समय इंद्रदेव इस समय बात पर जोर दे रहे थे कि भूतनाथ मरा नहीं, कहीं छिपकर बैठ गया है, कभी-न-कभी यकायक प्रकट हो जायगा। इसी समय दारोगा के आने की इत्तिला मिली जो बड़े शान-शौकत के साथ इंद्रदेव से मिलने के लिए आया था। इंद्रदेव बाहर निकलकर बड़ी खातिर के साथ इसे घर के अंदर ले गये और अपने आदमियों को हुक्म दे गये कि दारोगा के साथ जो आदमी आये हैं उनके खाने-पीने और रहने का उचित प्रबंध किया जाय।
दारोगा को साथ लिए हुए इंद्रदेव उसी कमरे में आए जिसमें मैं पहले ही से बैठा हुआ था, क्योंकि इंद्रदेव की तरह मैं दारोगा को लेने के लिए मकान के बाहर नहीं गया था और न दारोगा के आ पहुंचने पर मैंने उठकर इसकी इज्जत ही बढ़ाई, हां साहब-सलामत जरूर हुई। यह बात दारोगा को बहुत ही बुरी मालूम हुई मगर इंद्रदेव को नहीं क्योंकि इंद्रदेव गुरुभाई का सिर्फ नाता निबाहते थे, दिल से दारोगा की खातिर नहीं करते थे।
इंद्रदेव और दारोगा में देर तक तरह-तरह की बातें होती रहीं, जिसमें मौके-मौके पर दारोगा अपनी होशियारी और बुद्धिमानी की तस्वीर खैंचता रहा। जब ऐयारी की कहानी छिड़ी तो वह यकायक मेरी तरफ पलट पड़ा और बोला, 'आप इतने बड़े ऐयार के लड़के होकर घर में बेकार क्यों बैठे हैं और नहीं तो मेरी ही रियासत में काम कीजिए, यहां आपको बहुत आराम मिलेगा, देखिए बिहारीसिंह और हरनामसिंह कैसी इजजत और खुशी के साथ रहते हैं आप तो उनसे बहुत ज्यादे इज्जत के लायक हैं।'
मैं - मैं बेकार तो बैठा रहता हूं मगर अभी तक अपने को महाराज धौलपुर का नौकर समझता हूं क्योंकि रियासत का काम छोड़ देने पर भी वहां से मुझे खाने को बराबर मिल रहा है।
दारोगा - (मुंह बनाकर) अजी मिलता भी होगा तो क्या, एक छोटी-सी रकम से आपका क्या काम चल सकता है आखिर अपने पल्ले की जमा तो खर्च करते होंगे।
मैं - यह भी तो महाराज ही का दिया हुआ है!
दारोगा - नहीं, वह आपके बाप का दिया हुआ है। खैर मेरा मतलब यह है कि वहां से अगर कुछ मिलता है तो उसे भी आप रखिए और मेरी रियासत से भी फायदा उठाइए।
मैं - ऐसा करना बेईमानी और नमकहरामी कहा जायगा और यह मुझसे न हो सकेगा।
दारोगा - (हंसकर) वाह-वाह! ऐयार लोग दिन-रात ईमानदारी की हंडिया ही तो चढ़ाए रहते हैं!!
मैं - (तेजी के साथ) बेशक! अगर ऐसा न हो तो वह ऐयार नहीं रियासत का कोई ओहदेदार कहा जायगा!
दारोगा - (तमककर) ठीक है! गदाधरसिंह आप ही का नातेदार तो है, जरा उसकी तस्वीर तो खैंचिए!
मैं - गदाधरसिंह किसी रियासत का ऐयार नहीं है और न मैं उसे ऐयार समझता हूं, इतना होने पर भी आप यह नहीं साबित कर सकते कि उसने अपने मालिक के साथ किसी तरह की बेईमानी की।
दारोगा - (और भी तमक के) बस-बस-बस, रहने दीजिए, हमारे यहां भी बिहारीसिंह और हरनामसिंह ऐयार ही तो हैं।
मैं - इसी से तो मैं आपकी रियासत में जाना बेइज्जती समझता हूं।
दारोगा - (भौं सिकोड़कर) तो इसका यह मतलब कि हम लोग बेईमान और नमकहराम हैं!!
मैं - (मुस्कराकर) इस बात को तो आप ही सोचिए।
दारोगा - देखिए, जुबान सम्हालकर बात कीजिए, नहीं तो समझ रखिए कि मैं मामूली आदमी नहीं हूं!!
मैं - (क्रोध से) यह तो मैं खुद कहता हूं कि आप मामूली आदमी नहीं हैं क्योंकि आदमी में शर्म होती है और वह जानता है कि ईश्वर भी कोई चीज है।
दारोगा - (क्रोध भरी आंखें दिखाकर) फिर वही बात!!
मैं - हां वही बात! गोपालसिंह के पिता वाली बात! गुप्त कमेटी वाली बात! गदाधरसिंह की दोस्ती वाली बात! लक्ष्मीदेवी की शादी वाली बात और जो कि आपके गुरुभाई साहब को नहीं मालूम है वह बात!!
दारोगा - (दांत पीसकर और कुछ देर मेरी तरफ देखकर) खैर अब इन बहुत-सी बात का जवाब लात ही से दिया जायगा।
मैं - बेशक, और साथ ही इसके यह भी समझ रखिए कि जवाब देने वाले भी एक-दो नहीं हैं, लातों की गिनती भी आप न सम्हाल सकेंगे। दारोगा साहब, जरा होश में आइए और सोच-विचारकर बातें कीजिए। अपने को आप ईश्वर न समझिए बल्कि यह समझकर बातें कीजिए कि आप आदमी हैं और रियासत धौलपुर के किसी ऐयार से बातें कर रहे हैं।
दारोगा - (इंद्रदेव की तरफ गुरेरकर) क्या आप चुपचाप बैठे तमाशा देखेंगे और अपने मकान में मुझे बेइज्जत करावेंगे?
इंद्रदेव - आप तो खुद ही अपनी अनोखी मिलनसारी से अपने को बेइज्जत करा रहे हैं, इनसे बात बढ़ाने की आपको जरूरत ही क्या थी? मैं आप दोनों के बीच में नहीं बोल सकता क्योंकि दलीपशाह को भी अपना भाई समझता और इज्जत की निगाह से देखता हूं।
दारोगा - तो फिर जैसे बने हम इनसे निपट लें?
इंद्रदेव - हां-हां!
दारोगा - पीछे उलाहना न देना क्योंकि आप इन्हें अपना भाई समझते हैं!
इंद्रदेव - मैं कभी उलाहना न दूंगा।
दारोगा - अच्छा तो अब मैं जाता हूं, फिर कभी मिलूंगा तो बातें करूंगा।
इंद्रदेव ने इस बात का कुछ भी जवाब न दिया, हां जब दारोगा साहब बिदा हुए तो उन्हें दरवाजे तक पहुंचा आये। जब लौटकर कमरे में मेरे पास आये तो मुस्कराते हुए बोले, 'आज तो तुमने इसकी खूब खबर ली। 'जो बात तुम्हारे गुरुभाई साहब को नहीं मालूम है वही बात' इन शब्दों ने तो उसका कलेजा छेद दिया होगा। मगर तुमसे बेतरह रंज होकर गया है, इस बात का खूब खयाल रखना।'
मैं - आप इस बात की चिंता न कीजिए, देखिए मैं इन्हें कैसा छकाता हूं। मगर वाह रे आपका कलेजा! इतना कुछ हो जाने पर भी आपने अपनी जुबान से कुछ न कहा बल्कि पुराने बर्ताव में बल तक न पड़ने दिया।
इंद्रदेव - मैंने तो अपना मामला ईश्वर के हवाले कर दिया है।
मैं - खैर ईश्वर भी इंसाफ करेगा। अच्छा तो अब मुझे भी बिदा कीजिए क्योंकि अब इसके मुकाबले का बंदोबस्त शीघ्र करना पड़ेगा।
इंद्रदेव - यह तो मैं कहूंगा कि आप बेफिक्र न रहिए।
थोड़ी देर तक और बातचीत करने के बाद मैं इंद्रदेव से बिदा होकर अपने घर आया और उसी समय दारोगा के मुकाबले का ध्यान मेरे दिमाग में चक्कर काटने लगा।
घर पहुंचकर मैंने सब हाल अपनी स्त्री से बयान किया और ताकीद की कि हरदम होशियार रहा करना। उन दिनों मेरे यहां कई शागिर्द भी रहा करते थे। जिन्हें मैं ऐयारी सिखाता था। उनसे भी यह सब हाल कहा और होशियार रहने की ताकीद की। उन शागिर्दों में गिरिजाकुमार नाम का एक लड़का बड़ा ही तेज और चंचल था, लोगों को धोखे में डाल देना तो उसके लिए एक मामूली बात थी। बातचीत के समय वह अपना चेहरा ऐसा बना लेता था कि अच्छे-अच्छे उसकी बातों में फंसकर बेवकूफ बन जाते थे। यह गुण उसे ईश्वर का दिया हुआ था जो बहुत कम ऐयारों में पाया जाता है। अस्तु गिरिजाकुमार ने मुझसे कहा कि 'गुरुजी यदि दारोगा वाला मामला आप मेरे सुपुर्द कर दीजिए तो मैं बहुत ही प्रसन्न होऊं और उसे ऐसा छकाऊं कि वह भी याद करे! जमानिया में मुझे कोई पहचानता भी नहीं है, अतएव मैं अपना काम बड़े मजे में निकाल लूंगा।'
मैंने उसे समझाया और कहा कि 'कुछ दिन सब्र करो, जल्दी क्यों करते हो, फिर जैसा मौका होगा किया जायेगा' मगर उसने न माना। हाथ जोड़ के, खुशामद करके, गिड़गिड़ा के, जिस तरह हो सका उसने आज्ञा ले ही ली और उसी दिन सब सामान दुरुस्त करके मेरे यहां से चला गया।
अब मैं थोड़ा-सा हाल गिरिजाकुमार का बयान करूंगा कि इसने दारोगा के साथ क्या किया।
आप लोगों को यह बात सुनकर ताज्जुब होगा कि मनोरमा असल में दारोगा साहब की रंडी है, इन्हीं की बदौलत मायारानी के दरबार में उसकी इज्जत बढ़ी और इन्हीं की बदौलत उसने मायारानी को अपने फंदे में फंसाकर बेहिसाब दौलत पैदा की। पहले-पहल गिरिजाकुमार ने मनोरमा के मकान ही पर दारोगा साहब से मुलाकात भी की थी।
दारोगा साहब मनोरमा से प्रेम रखते थे सही, मगर इसमें कोई शक नहीं कि इस प्रेम और ऐयाशी को इन्होंने बहुत अच्छे ढंग से छिपाया और बहुत आदमियों को मालूम न होने दिया तथा लोगों की निगाहों में साधू और ब्रह्मचारी ही बने रहे। स्वयं तो जमानिया में रहते थे मगर मनोरमा के लिए इन्होंने काशी में एक मकान भी बनवा दिया था, दसवें-बारहवें दिन अथवा जब कभी समय मिलता तेज घोड़े पर या रथ पर सवार होकर काशी चले जाते और दस-बारह घंटे मनोरमा के मेहमान रहकर लौट जाते।
एक दिन दारोगा साहब आधी रात के समय मनोरमा के खास कमरे में बैठे हुए उसके साथ शराब पी रहे थे और साथ ही साथ हंसी-दिल्लगी का आनंद भी लूट रहे थे। उस समय इन दोनों में इस तरह की बातें हो रही थीं –
दारोगा - जो कुछ मेरे पास है सब तुम्हारा है, रुपये-पैसे के बारे में तुम्हें कभी तकलीफ न होने दूंगा! तुम बेशक अमीराना ठाठ के साथ रहो और खुशी से जिंदगी बिताओ। गोपालसिंह अगर तिलिस्म का राजा है तो क्या हुआ, मैं भी तिलिस्म का दारोगा हूं, उसमें दो-चार स्थान ऐसे हैं कि जिनकी खबर राजा साहब को भी नहीं मगर मैं वहां बखूबी जा सकता हूं और वहां की दौलत को खास अपनी मिल्कियत समझता हूं। इसके अतिरिक्त मायारानी से भी मैंने तुम्हारी मुलाकात करा दी है और वह भी हर तरह से तुम्हारी खातिर करती ही है, फिर तुम्हें परवाह किस बात की है?
मनोरमा - बेशक मुझे किसी बात की परवाह नहीं है और आपकी बदौलत मैं बहुत खुश रहती हूं, मगर मैं यह नहीं चाहती हूं कि मायारानी के पास खुल्लमखुल्ला मेरी आमदरफ्त हो जाय, अभी गोपालसिंह के डर से बहुत लुक-छिपकर और नखरे-तिल्ले के साथ जाना पड़ता है।
दारोगा - फिर यह तो जरा मुश्किल बात है।
मनोरमा - मुश्किल क्या है लक्ष्मीदेवी की जगह दूसरी औरत को राजरानी बना देना क्या साधारण काम था सो तो आपने सहज ही में कर दिखाया और इस एक सहज काम के लिए कहते हैं कि मुश्किल है!
दारोगा - (मुस्कराकर) सो तो ठीक है, गोपालसिंह को सहज में बैकुंठ पहुंचा सकता हूं मगर यह काम मेरे किये न हो सकेगा, उसके ऊपर मेरा हाथ न उठेगा।
मनोरमा - (तिनककर) अब इतनी रहमदिली से तो काम न चलेगा! उनके मौजूद रहने से बहुत बड़ा हर्ज हो रहा है, अगर वह न रहे तो बेशक आप खुद जमानिया और तिलिस्म का राज्य कर सकते हैं, मायारानी तो अपने को आपका ताबेदार समझती हैं।
दारोगा - बेशक ऐसा ही है मगर...।
मनोरमा - और इसमें आपको कुछ करना भी न पड़ेगा, सब काम मायारानी ठीक कर लेंगी।
दारोगा - (चौंककर) क्या मायारानी का भी ऐसा इरादा है।
मनोरमा - जी हां, वह इस काम के लिए तैयार हैं मगर आपसे डरती हैं आप आज्ञा दें तो सब-कुछ ठीक हो जाय।
दारोगा - तो तुम उसी की तरफ से इस बात की कोशिश कर रही हो?
मनोरमा - बेशक, मगर साथ ही इसमें आपका और अपना भी फायदा समझती हूं तब ऐसा कहती हूं (दारोगा के गले में हाथ डालकर) बस आप आज्ञा दे दीजिए।
दारोगा - (मुस्कराकर) खैर तुम्हारी खातिर मुझको मंजूर है, मगर एक काम करना कि मायारानी से औ मुझसे इस बारे में बातचीत न करना जिससे मौका पड़े तो मैं यह कहने लायक रह जाऊं कि मुझे इसकी कुछ भी खबर नहीं। तुम मायारानी को दिलजमई करा दो कि दारोगा साहब इस बारे में कुछ भी न बोलेंगे तुम जो कुछ चाहो कर गुजरो, मगर साथ ही इसके इस बात का खयाल रखो कि सर्वसाधारण को किसी तरह का शक न होने पावे और लोग यही समझें कि गोपालसिंह अपनी मौत मरा है। मैं भी जहां तक हो सकेगा छिपाने की कोशिश करूंगा।
मनोरमा - (खुश होकर) बस अब मुझे विश्वास हो गया कि तुम मुझसे प्रेम रखते हो।
इसके बाद दोनों में बहुत ही धीरे-धीरे कुछ बातें होने लगीं जिन्हें गिरजाकुमार सुन न सका। गिरजाकुमार चोरों की तरह उस मकान में घुस गया था और छिपकर ये बातें सुन रहा था। जब मनोरमा ने कमरे का दरवाजा बंद कर लिया तब वह कमंद लगाकर मकान के पीछे की तरफ उतर गया और धीरे-धीरे मनोरमा के अस्तबल में जा पहुंचा। अबकी दफे दारोगा यहां रथ पर सवार होगर आया था, वह रथ अस्तबल में था, घोड़े बंधे हुए थे और सारथी रथ के अंदर सो रहा था। इससे कुछ दूर पर मनोरमा के और सब साईस तथा घसियारे वगैरह पड़े खुर्राटे ले रहे थे।
बहुत होशियारी से गिरजाकुमार ने दारोगा के सारथी को बेहोशी की दवा सुंघाकर बेहोश किया और उठा के बाग के एक कोने में घनी झाड़ी के अंदर छिपाकर रख आया, उसके कपड़े आप पहन लिये और चुपचाप रथ के अंदर घुसकर सो रहा।
जब रात घंटा भर के लगभग बाकी रह गई तब दारोगा साहब जमानिया जाने के लिए बिदा हुए और एक लौंडी ने अस्तबल में आकर रथ जोतने की आज्ञा सुनाई। नये सारथी अर्थात् गिरिजाकुमार ने रथ जोतकर तैयार किया और फाटक पर लाकर दारोगा साहब का इंतजार करने लगा। शराब के नशे में चूर झूमते हुए एक लौंडी का हाथ थामे हुए दारोगा साहब भी आ पहुंचे। उनके रथ पर सवार होते ही रथ तेजी के साथ रवाना हुआ। सुबह की ठंडी हवा ने दारोगा साहब के दिमाग में खुनकी पैदा कर दी और वे रथ के अंदर लेटकर बेखबर सो गये। गिरिजाकुमार ने जिधर चाहा घोड़ों का मुंह फेर दिया और दारोगा साहब को लेकर रवाना हो गया। इस तौर पर उसे सूरत बदलने की भी जरूरत न पड़ी।
नहीं कह सकते कि मनोरमा के बाग में उस दारोगा का असली सारथी जब होश में आया होगा तो वहां कैसी खलबली मची होगी मगर गिरिजाकुमार को इस बात की कुछ भी परवाह न थी, उसने रथ को रोहतासगढ़ की सड़क पर रवाना किया और चलते-चलते बटुए में से मसाला निकालकर अपनी सूरत साधारण ढंग पर बदल ली जिससे होश आने पर दारोगा उसकी असली सूरत से जानकार न हो सके, उसके बाद उसने दवा सुंघाकर दारोगा को और भी बेहोश कर दिया।
जब रथ एक घने जंगल में पहुंचा और सुबह की सफेदी भी निकल आई तब गिरिजाकुमार रथ को सड़क पर से हटाकर जंगल में ले आया जहां सड़क पर चलने वाले मुसाफिरों की निगाह न पड़े। घोड़ों को खोल लंबी बागडोर के सहारे एक पेड़ के साथ बांध दिया और दारोगा को पीठ पर लादकर वहां से थोड़ी दूर पर एक घनी झाड़ी के अंदर ले गया जिसके पास ही एक पानी का झरना भी बह रहा था। घोड़े की रास से दारोगा साहब को एक पेड़ के साथ बांध दिया और बेहोशी दूर करने की दवा सुंघाने के बाद थोड़ा पानी भी चेहरे पर डाला जिससे शराब का नशा ठंडा हो जाय, और तब हाथ में कोड़ा लेकर सामने खड़ा हो गया।
दारोगा साहब जब होश में आये तो बड़ी परेशानी के साथ चारों तरफ निगाह दौड़ाने लगे। अपने को मजबूर और एक अनजान आदमी को हाथ में कोड़ा लिए सामने खड़ा देख कांप उठे और बोले, 'भाई, तुम कौन हो और मुझे इस तरह क्यों सता रखा है मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है?
गिरिजा - क्या करूं लाचार हूं, मालिक का हुक्म ही ऐसा है!
दारोगा - तुम्हारा मालिक कौन है, और उसने ऐसी आज्ञा तुम्हें क्यों दी?
गिरिजा - मैं मनोरमाजी का नौकर हूं और उन्होंने अपना काम ठीक करने के लिए मुझे ऐसी आज्ञा दी है।
दारोगा - (ताज्जुब से) तुम मनोरमा के नौकर हो! नहीं-नहीं, ऐसा नहीं हो सकता, मैं उनके सब नौकरों को अच्छी तरह पहचानता हूं।
गिरिजा - मगर आप मुझे नहीं पहचानते क्योंकि मैं गुप्त रीति पर उनका काम किया करता हूं और उनके मकान पर बराबर नहीं रहता।
दारोगा - शायद ऐसा हो मगर विश्वास नहीं होता, खैर लाचार हूं, खैर यह बताओ कि उन्होंने किस काम के लिए ऐसा करने को कहा है?
गिरिजा - आपको विश्वास हो चाहे न हो इसके लिए मैं लाचार हूं, हां, उनके हुक्म की तामील किए बिना नहीं रह सकता। उन्होंने मुझे यह कहा है कि 'दारोगा साहब मायारानी के लिए इस बात की इजाजत दे गये हैं कि वह जिस तरह हो सके राजा गोपालसिंह को मार डाले, हम इस मामले में कुछ भी दखल न देंगे, मगर यह बात नशे में कह गये हैं, कहीं ऐसा न हो कि भूल जायं, अस्तु जिस तरह हो सके तुम इस बात की एक चिट्ठी उनसे लिखाकर मेरे पास ले आओ जिससे उन्हें अपना वायदा अच्छी तरह याद रहे।' अब आप कृपा कर इस मजमून की एक चिट्ठी लिख दीजिये कि मैं गोपालसिंह को मार डालने के लिए मायारानी को इजाजत देता हूं।
दारोगा - (ताज्जुब का चेहरा बनाकर) न मालूम तुम क्या कह रहे हो! मैंने मनोरमा से ऐसा कोई वादा नहीं किया!!
गिरिजा - तो शायद मनोरमाजी ने मुझसे झूठ कहा होगा, मैं इस बात को नहीं जानता, हां उन्होंने जो आज्ञा दी है सो आपसे कह रहा हूं।
इतना सुनकर दारोगा कुछ सोच में पड़ गया। मालूम होता था कि उसे गिरिजाकुमार की बातों पर विश्वास हो रहा है मगर फिर भी बात को टाला चाहता है।
दारोगा - मगर ताज्जुब है कि मनोरमा ने मेरे साथ ऐसा बुरा बर्ताव क्यों किया और उसे जो कुछ कहना था वह स्वयं मुझसे क्यों नहीं कहा?
गिरिजा - मैं इस बात का जवाब क्योंकर दे सकता हूं?
दारोगा - अगर मैं तुम्हारे कहने के मुताबिक चिट्ठी लिखकर न दूं तो?
गिरिजा - तब इस कोड़े से आपकी खबर ली जायगी और जिस तरह से हो सकेगा आपसे चिट्ठी लिखाई जायगी। आप खुद समझ सकते हैं कि यहां आपका कोई मददगार नहीं पहुंच सकता।
दारोगा - क्या तुमको या मनोरमा को इस बात का कुछ भी खयाल नहीं है कि चिट्ठी लिखकर भी छूट जाने के बाद मैं क्या कर सकता हूं!!
गिरिजा - अब ये सब बातें तो आप उन्हीं से पूछियेगा, मुझे जवाब देने की कोई जरूरत नहीं, मैं सिर्फ उनके हुक्म की तामील करना जानता हूं। बताइए आप जल्दी चिट्ठी लिख देते हैं या नहीं, मैं ज्यादे देर तक इंतजार नहीं कर सकता!
दारोगा - (झुंझलाकर और यह समझकर कि यह मुझ पर हाथ न उठावेगा केवल धमकाता है) अबे, मैं चिट्ठी किस बात की लिख दूं! व्यर्थ की बकबक लगा रखी है!!
इतना सुनते ही गिरिजाकुमार ने कोड़े जमाने शुरू किए, पांच ही सात कोड़े खाकर दारोगा बिलबिला उठा और हाथ जोड़कर बोला, 'बस-बस माफ करो, जो कुछ कहो मैं लिख देने को तैयार हूं!'
गिरिजाकुमार ने झट कलम-दवात और कागज अपने बटुए में से निकालकर दारोगा के सामने रख दिया और उसके हाथ की रस्सी ढीली कर दी। दारोगा ने उसकी इच्छानुसार चिट्ठी लिख दी। चिट्ठी अपने कब्जे में कर लेने के बाद उसने दारोगा की तलाशी ली, कमर में खंजर और कुछ अशर्फियां निकलीं वह भी ले लेने के बाद दारोगा के हाथ-पैर खोल दिये और बता दिया कि फलानी जगह आपके रथ और घोड़े हैं। जाइए कस-कसाकर अपने घर का रास्ता लीजिए।
इतना कहकर गिरिजाकुमार चला गया और फिर दारोगा को मालूम न हुआ कि वह कहां गया और क्या हुआ।

 

 


 

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