देवीसिंह को चंपा की सच्चाई पर भरोसा था और वह उसे बहुत ही नेक तथा पतिव्रता भी समझते थे, जिस पर चंपा ने देवीसिंह के चरण की कसम खाकर विश्वास दिला दिया था कि वह नकाबपोशों के घर में नहीं गई और कोई सबब न था कि देवीसिंह चंपा की बात झूठ समझते। इस जगह यद्यपि देवीसिंह, पुनः चंपा को देखकर क्रोध में आ गये मगर तुरंत ही नीचे लिखी बातें विचारकर ठंडे हो गए और सोचने लगे –
'क्या मुझे पहचानने में धोखा हुआ नहीं-नहीं मेरी आंखें ऐसी गंदी नहीं हैं। तो क्या वास्तव में वह चंपा ही थी जिसे अभी मैंने देखा या पहले भी देखा था। यह भी नहीं हो सकता! चंपा जैसी नेक औरत कसम खाकर मुझसे झूठ भी नहीं बोल सकती। हां उसने क्या कसम खाई थी यही कि 'मैं आपके चरणों की कसम खाकर कहती हूं कि मुझे कुछ भी याद नहीं कि आप कब की बात कर रहे हैं।' ये ही उसके शब्द हैं, मगर यह कसम तो ठीक नहीं। यहां आने के बारे में उसने कसम नहीं खाई बल्कि अपनी याद के बारे में कसम खाई है, जिसे ठीक नहीं भी कह सकते। तो क्या उसने वास्तव में मुझे भूलभुलैये में डाल रखा है खैर यदि ऐसा भी हो तो मुझे रंज न होना चाहिए क्योंकि वह नेक है, यदि ऐसा किया भी होगा तो किसी अच्छे ही मतलब से किया होगा या फिर कुमारों की आज्ञा से किया होगा।'
ऐसी बातों को सोचकर देवीसिंह ने अपने क्रोध को ठंडा किया मगर भूतनाथ की बेचैनी दूर नहीं हुई।
वे दोनों औरतें जब अलमारी के अंदर घुसकर गायब हो गईं तब हमारे दोनों कुमार तथा महाराज सुरेन्द्रसिंह और वीरेन्द्रसिंह ने भी उसके अंदर पैर रखा। दरवाजे के साथ दाहिनी तरफ एक तहखाने के अंदर जाने का रास्ता था जिसके बारे में दरियाफ्त करने पर इंद्रजीतसिंह ने बयान किया कि “जमानिया जाने का रास्ता है, तहखाने में उतर जाने के बाद एक सुरंग मिलेगी जो बराबर जमानिया तक चली गई है।” इंद्रजीतसिंह की बात सुनकर देवीसिंह और भूतनाथ को विश्वास हो गया कि दोनों औरतें इसी तहखाने में उतर गई हैं जिससे उन्हें भागने के लिए काफी जगह मिल सकती है। भूतनाथ ने देवीसिंह की तरफ देखकर इशारे से कहा कि 'इस तहखाने में चलना चाहिए' मगर जवाब में देवीसिंह ने इशारे से ही इंकार करके अपनी लापरवाही जाहिर कर दी।
उस दीवार के अंदर इतनी जगह न थी कि सब कोई एक साथ ही जाकर वहां की कैफियत देख सकते, अतएव दो-तीन दफे करके सब कोई उसके अंदर गये और उन सब पुर्जों को देखकर बहुत प्रसन्न हुए जिनके सहारे तस्वीरें चलती-फिरती और काम करती थीं। जब सब कोई उस कैफियत को देख चुके तब उस दीवार का दरवाजा बंद कर दिया गया।
इस काम से छुट्टी पाकर सब कोई इंद्रजीतसिंह की इच्छानुसार उस चबूतरे के पास आए जिस पर सफेद पत्थर की खूबसूरत पुतली बैठी हुई थी। इंद्रजीतसिंह ने सुरेन्द्रसिंह की तरफ देखकर कहा, “यदि आज्ञा हो तो मैं इस दरवाजे को खोलूं और आपको तिलिस्म के अंदर ले चलूं।”
सुरेन्द्र - हम भी यही चाहते हैं कि अब तिलिस्म के अंदर चलकर वहां की कैफियत देखें, मगर यह तो बताओ कि जब इस चबूतरे के अंदर जाने के बाद हम यह तिलिस्म देखते हुए चुनारगढ़ वाले तिलिस्म की तरफ रवाना होंगे तो वहां पहुंचने में कितनी देर लगेगी?
इंद्र - कम से कम बारह घंटे। तमाशा देखने के सबब से यदि इससे ज्यादे देर हो जाय तो भी कोई ताज्जुब नहीं।
सुरेन्द्र - रात हो जाने के सबब किसी तरह का हर्ज तो न होगा?
इंद्र - कुछ भी नहीं, रात भर बराबर तमाशा देखते हुए हम लोग चले जा सकते हैं।
सुरेन्द्र - खैर तब तो कोई हर्ज नहीं।
इंद्रजीतसिंह ने पुतली वाले चबूतरे का दरवाजा उसी ढंग से खोला जैसे पहले खोल चुके थे और सभों को साथ लिए हुए नीचे वाले तहखाने में पहुंचे जिसमें बड़े-बड़े हण्डे, अशर्फियों और जवाहिरात से भरे हुए पड़े थे।
इस कमरे में दो दरवाजे भी थे जिनमें एक तो खुला हुआ था और दूसरा बंद। खुले हुए दरवाजे के बारे में दरियाफ्त करने पर कुंअर इंद्रजीतसिंह ने बयान किया कि यह रास्ता जमानिया को गया है और हम दोनों भाई तिलिस्म तोड़ते हुए इसी राह से आये हैं। यहां से बहुत दूर पर एक स्थान है जिसका नाम तिलिस्मी किताब में 'ब्रह्म-मंडल' लिखा हुआ है, वहां से भी मुझे एक छोटी-सी किताब मिली थी जिसमें इस विचित्र बंगले का पूरा हाल लिखा हुआ था कि तिलिस्म (चुनारगढ़ वाला) तोड़ने वाले के लिए क्या-क्या जरूरी है। उस किताब को चुनारगढ़ तिलिस्म की चाभी कहें तो अनुचित न होगा। वह किताब इस समय मौजूद नहीं है क्योंकि पढ़ने के बाद वह तिलिस्म तोड़ने के काम में खर्च कर दी गई। उस स्थान (ब्रह्म-मंडल) में बहुत-सी तस्वीरें देखने योग्य हैं और वहां की सैर करके भी आप बहुत प्रसन्न होंगे।”
सुरेन्द्र - हम जरूर उस स्थान को देखेंगे मगर अभी नहीं। हां और यह दूसरा दरवाजा जो बंद है कहां जाने के लिए है?
इंद्र - यही चुनारगढ़ वाले तिलिस्म में जाने का रास्ता है, इस समय यही दरवाजा खोला जायगा और हम लोग इसी राह से जायेंगे।
सुरेन्द्र - खैर तो अब इसे खोलना चाहिए।
पाठक, आपको इस संतति के पढ़ने से मालूम होता ही होगा कि अब यह उपन्यास समाप्ति की तरफ चला जा रहा है। हमारे लिखने के लिए अब सिर्फ दो बातें रह गई हैं, एक तो इस चुनारगढ़ वाले तिलिस्म की कैफियत और दूसरे दुष्ट कैदियों का मुकदमा जिसके साथ बचे-बचाये भेद भी खुल जायेंगे। हमारे पाठकों में बहुत से ऐसे हैं जिनकी रुचि अब तिलिस्मी तमाशे की तरफ कम झुकती है परंतु उन पाठकों की संख्या बहुत ज्यादे है जो तिलिस्म के तमाशे को पसंद करते हैं और उसकी अवस्था विस्तार के साथ दिखाने अथवा लिखने के लिए बराबर जोर दे रहे हैं। इस उपन्यास में जो कुछ तिलिस्मी बातें लिखी गई हैं यद्यपि वे असंभव नहीं और विज्ञानवेत्ता अथवा साइंस जानने वाले जरूर कहेंगे कि 'हां ऐसी चीजें तैयार हो सकती हैं' तथापि बहुत से अनजान आदमी ऐसे भी हैं जो इसे बिल्कुल खेल ही समझते हैं और कई इसकी देखादेखी अपनी अनूठी किताबों में असंभव बातें लिखकर तिलिस्म के नाम को बदनाम भी करने लग गए हैं, इसलिए हमारा ध्यान अब तिलिस्म लिखने की तरफ नहीं झुकता मगर क्या किया जाय लाचारी है, एक तो पाठकों की रुचि की तरफ ध्यान देना पड़ता है दूसरे चुनारगढ़ के चबूतरे वाले तिलिस्म की कैफियत लिखे बिना काम नहीं चलता जिसे इस उपन्यास की बुनियाद कहना चाहिए और जिसके लिए चंद्रकान्ता उपन्यास में वादा कर चुके हैं। अस्तु अब इस जगह चुनारगढ़ के चबूतरे वाले तिलिस्म की कैफियत लिखकर इस पक्ष को पूरा करते हैं, तब उसके बाद दोनों कुमारों की शादी और कैदियों के मामले की तरफ ध्यान देकर इस उपन्यास को पूरा करेंगे।
महाराज की आज्ञानुसार कुंअर इंद्रजीतसिंह दरवाजा खोलने के लिए तैयार हो गए। इस दरवाजे के ऊपर वाले महराब में किसी धातु के तीन मोर बने हुए थे जो हरदम हिला ही करते थे। कुमार ने उन तीनों मोरों की गर्दन घुमाकर एक में मिला दी, उसी समय दरवाजा भी खुल गया और कुमार ने सभों को अंदर जाने के लिए कहा। जब सब उसके अंदर चले गए तब कुमार ने उन मोरों को छोड़ दिया और दरवाजे के अंदर जाकर महाराज से कहा, “यह दरवाजा इसी ढंग से खुलता है। मगर इसके बंद करने की कोई तरकीब नहीं है, थोड़ी देर में आप से आप बंद हो जायगा। देखिए इस तरफ भी दरवाजे के ऊपर वाले महराब में उसी तरह के मोर बने हुए हैं अतएव इधर से भी दरवाजा खोलने के समय वही तरकीब करनी होगी।”
दरवाजे के अंदर जाने के बाद तिलिस्मी खंजर से रोशनी करने की जरूरत न रही क्योंकि यहां की छत में कई सूराख ऐसे बने हुए थे जिनमें से रोशनी बखूबी आ रही थी और आगे की तरफ निगाह दौड़ाने से यह भी मालूम होता था कि थोड़ी दूर जाने के बाद हम लोग मैदान में पहुंच जायेंगे जहां से खुला आसमान बखूबी दिखाई देगा, अस्तु तिलिस्मी खंजर की रोशनी बंद कर दी गई और दोनों कुमारों के पीछे-पीछे सब कोई आगे की तरफ बढ़े। लगभग डेढ़ सौ कदम चले जाने के बाद एक खुला हुआ दरवाजा मिला जिसमें चौखट या किवाड़ कुछ भी न था। इस दरवाजे के बाहर होने पर सभों ने अपने को संगमर्मर के एक छोटे से दालान में पाया और आगे की तरफ छोटा-सा बाग देखा जिसकी रविशें निहायत खूबसूरत स्याह और सफेद पत्थरों से बनी हुई थीं मगर पेड़ों की किस्म में केवल कुछ जंगली पौधों और लताओं की हरियाली मात्र ही बाग का नाम चरितार्थ करने के लिए दिखाई दे रही थी। इस बाग के चारों तरफ चार दालान चार ढंग के बने हुए थे और बीच में छोटे-छोटे कई चबूतरे और नहर की तौर पर सुंदर और पतली नालियां बनी हुई थीं जिनमें पहाड़ से गिरने वाले झरने का साफ जल बहकर वहां के पेड़ों को तरी पहुंचा रहा था और देखने में भी बहुत भला मालूम होता था। मैदान में से निकलकर और आंख उठाकर देखने पर बाग के चारों तरफ ऊंचे-ऊंचे हरे-भरे पहाड़ दिखाई दे रहे थे और वे इस बात की गवाही दे रहे थे कि यह बाग पहाड़ी की तराई अथवा घाटी में इस ढंग से बना हुआ है कि बाहर से किसी आदमी को इसके अंदर आने की हिम्मत नहीं हो सकती और न कोई इसके अंदर से निकलकर बाहर ही जा सकता है।
कुंअर इंद्रजीतसिंह ने महाराज सुरेन्द्रसिंह की तरफ देखकर कहा, “उस चबूतरे वाले तिलिस्म के दो दर्जे हैं, एक तो यही बाग है और दूसरा उस चबूतरे के पास पहुंचने पर मिलेगा। इस बाग में आप जितने खूबसूरत चबूतरे देख रहे हैं सभों के अंदर बेअंदाज दौलत भारी पड़ी है। जिस समय हम दोनों भाई यहां आये थे इन चबूतरों का छूना बल्कि इनके पास पहुंचना भी कठिन हो रहा था, (एक चबूतरे के पास ले जाकर) देखिए चबूतरे की बगल में नीचे की तरफ कड़ी लगी हुई है और इसके साथ नथी हुई जो बारीक जंजीर है वह (हाथ का इशारा करके) इस तरफ एक कुएं में गिरी हुई है। इसी तरह हर एक चबूतरे में कड़ी और जंजीर लगी हुई हैं जो सब उसी कुएं में जाकर इकट्ठी हुई हैं। मैं नहीं कह सकता कि उस कुएं के अंदर क्या है मगर उसकी तासीर यह थी कि इन चबूतरों को कोई छू नहीं सकता था। इसके अतिरिक्त आपको यह सुनकर ताज्जुब होगा कि उस चुनारगढ़ वाले तिलिस्मी चबूतरे में भी जिस पर पत्थर का (असल में किसी धातु का) आदमी सोया हुआ है एक जंजीर लगी हुई है और वह जंजीर भी भीतर-ही-भीतर यहां तक आकर उसी कुएं में गिरी हुई है जिसमें वे सब जंजीरें इकट्ठी हुई हैं, बस यही और इतना ही यहां का तिलिस्म है। इसके अतिरिक्त दरवाजों को छिपाने के सिवाय और कुछ भी नहीं है। हम दोनों भाइयों को तिलिस्मी किताब की बदौलत यह सब हाल मालूम हो चुका था। अतएव जब हम दोनों भाई यहां आये थे तो इन चबूतरों से बिल्कुल हटे रहते थे। पहला काम हम लोगों ने जो किया वह यही था कि ये नालियां जो पानी से भरी और बहती हुई आप देख रहे हैं जिस पहाड़ी झरने की बदौलत लबालब हो रही हैं उसमें से एक नई नाली खोदकर उसका पानी उस कुएं में गिरा दिया जिसमें सब जंजीरें इकट्ठी हुई हैं क्योंकि वह चश्मा भी उस कुएं के पास ही है और अभी तक उसका पानी उस कुएं में बराबर गिर रहा है। जब उस चश्मे का पानी कई घंटे तक कुएं के अंदर गिरा तब इन चबूतरों का तिलिस्मी असर जाता रहा और ये छूने के लायक हुए मानो उस कुएं में बिजली की आग भरी हुई थी जो पानी गिरने से ठंडी हो गई। हम दोनों भाइयों ने तिलिस्मी खंजर से सब जंजीरों को काट-काटकर इन चबूतरों का और इस चुनारगढ़ वाले तिलिस्मी चबूतरे का भी संबंध उस कुएं से छुड़ा दिया, इसके बाद इन चबूतरों को खोलकर देखा और मालूम किया कि इनके अंदर क्या है। अब आपकी आज्ञा होगी तो ऐयार लोग इस दौलत को चुनारगढ़ या जहां आप कहेंगे पहुंचा देंगे।”
इसके बाद इंद्रजीतसिंह ने महाराज की आज्ञानुसार उन चबूतरों का ऊपरी हिस्सा जो संदूक के पल्ले की तरह खुलता था खोल-खोलकर दिखाया। महाराज तथा सब कोई यह देखकर बहुत प्रसन्न हुए कि उनमें बेहिसाब दौलत और जेवरों के अतिरिक्त बहुत-सी अनमोल चीजें भी भरी हुई हैं जिनमें से दो चीजें महाराज ने बहुत पसन्द कीं। एक तो जड़ाऊ सिंहासन जिसमें अनमोल हीरे और माणिक विचित्र ढंग से जड़े हुए थे और दूसरा किसी धातु का बना हुआ एक चंद्रमा था। इस चंद्रमा के दो पल्ले थे, जब दोनों पल्ले एक साथ मिला दिए गए तो उसमें से चंद्रमा की ही तरह साफ और निर्मल तथा बहुत दूर तक फैलने वाली रोशनी पैदा होती थी।
उन चबूतरों के अंदर की चीजों को देखते ही देखते तमाम दिन बीत गया। उस समय कुंअर इंद्रजीतसिंह ने महाराज की तरफ देखकर कहा, “इस बाग में इन चबूतरों के सिवाय और कोई चीज देखने योग्य नहीं है और अब रात भी हो गई है, इसलिए यद्यपि आगे की तरफ जाने में कोई हर्ज तो नहीं है मगर आज की रात इसी बाग में ठहर जाते तो अच्छा था।”
भूत - क्या आज की रात भूखे-प्यासे ही बितानी पड़ेगी?
इंद्रजीत - (मुस्कराते हुए) प्यासे तो नहीं रह सकते क्योंकि पानी का चश्मा बह रहा है जितना चाहो पी सकते हो मगर खाने के नाम पर तब तक कुछ नहीं मिल सकता जब तक कि हम चुनारगढ़ वाले तिलिस्मी चबूतरे से बाहर न हो जाएं।
जीत - खैर कोई चिंता नहीं, ऐयारों के बटुए खाली न होंगे, कुछ-न-कुछ खाने की चीजें उनमें जरूर होंगी।
सुरेन्द्र - अच्छा अब जरूरी कामों से छुट्टी पाकर किसी दालान में आराम करने का बंदोबस्त करना चाहिए।
महाराज की आज्ञानुसार सब कोई जरूरी कामों से निपटने की फिक्र में लगे और इसके बाद एक दालान में आराम करने के लिए बैठ गये। खास-खास लोगों के लिए ऐयारों ने अपने सामान में से बिस्तरे का इंतजाम कर दिया।