बाबाजी यहां से उठकर महाराज जयसिंह वगैरह को साथ ले दूसरे बाग में पहुंचे और वहां घूम - फिरकर तमाम बाग, इमारत, खजाना और सब असबाबों को दिखाने लगे जो इस तिलिस्म में से कुमारी ने पाया था।
महाराज जयसिंह उन सब चीजों को देखते ही एकदम बोल उठे, “वाह - वाह, धन्य थे वे लोग जिन्होने इतनी दौलत इकट्ठी की थी। मैं अपना बिल्कुल राज्य बेचकर भी अगर इस तरह के दहेज का सामान इकट्ठा करना चाहता तो इसका चौथाई भी न कर सकता!!”
सबसे ज्यादा खजाना और जवाहिरखाना उस बाग और दीवानखाने के तहखाने में नजर पड़ा जहां कुंवर वीरेन्द्रसिंह ने कुमारी चंद्रकान्ता की तस्वीर का दरबार देखा था।
तीसरे और चौथे भाग के शुरू में पहाड़ी बाग, कोठरियों और रास्ते का कुछ हाल हम लिख चुके हैं। दो - तीन दिनों में सिद्ध बाबा ने इन लोगों को उन जगहों की पूरी सैर कराई। जब इन सब कामों से छुट्टी मिली और सब कोई दीवानखाने में बैठे उस वक्त महाराज जयसिंह ने सिद्ध बाबा से कहा :
“आपने जो कुछ मदद कुमारी चंद्रकान्ता की करके उसकी जान बचाई, उसका एहसान तमाम उम्र हम लोगों के सिर रहेगा। आज जिस तरह हो आप अपना हाल कहकर हम लोगों के तरद्दुद को दूर कीजिए, अब सब्र नहीं किया जाता।”
महाराज जयसिंह की बात सुन सिद्ध बाबा मुस्कराकर बोले, “मैं भी अपना हाल आप लोगों पर जाहिर करता हूं जरा सब्र कीजिए।” इतना कहकर जोर से जफील (सीटी) बजाई। उसी वक्त तीन - चार लौंडियां दौड़ती हुई आकर उनके पास खड़ी हो गईं। सिद्धनाथ बाबा ने हुक्म दिया, “हमारे नहाने के लिए जल और पहिरने के लिए असली कपड़ों का संदूक (उंगली का इशारा करके) इस कोठरी में लाकर जल्द रखो। आज मैं इस मृगछाले और लंबी दाढ़ी को इस्तीफा दूंगा।”
थोड़ी ही देर में सिद्ध बाबा के हुक्म की तामील हो गई। तब तक इधर - उधर की बातें होती रहीं। इसके बाद सिद्ध बाबा उठकर उस कोठरी में चले गए जिसमें उनके नहाने का जल और पहिरने के कपड़े रखे हुए थे।
थोड़ी ही देर बाद नहा - धो और कपड़े पहिर सिद्ध बाबा उस कोठरी के बाहर निकले। अब तो इनको सिद्ध बाबा कहना मुनासिब नहीं, आज तक बाबाजी कह चुके बहुत कहा, अब तो तेजसिंह के बाप जीतसिंह कहना ठीक है।
अब पूछने या हाल - चाल मालूम करने की फुरसत कहां! महाराज सुरेन्द्रसिंह तो जीतसिंह को पहचानते ही उठे और यह कह के कि 'तुम मेरे भाई से भी हजार दर्जे बढ़ के हो' गले लगा लिया और कहा, “जब महाराज शिवदत्त और कुमार से लड़ाई हुई तब तुमने सिर्फ पांच सौ सवार लेकर कुमार की मदद की थी। आज तो तुमने कुमार से भी बढ़कर नाम पैदा किया और पुश्तहापुश्त के लिए नौगढ़ और विजयगढ़ दोनों राज्यों के ऊपर अपने अहसान का बोझ रखा!” देर तक गले लगाए रहे, इसके बाद महाराज जयसिंह ने भी उन्हें बराबरी का दर्जा देकर गले लगाया। तेजसिंह और देवीसिंह वगैरह ने भी बड़ी खुशी से पूजा की।
अब मालूम हुआ कि कुमारी चंद्रकान्ता की जान बचाने वाले, नौगढ़ और विजयगढ़ दोनों की इज्जत रखने वाले, दोनों राज्यों की तरक्की करने वाले,आज तक अच्छे - अच्छे ऐयारों को धोखे में डालने वाले, कुंअर वीरेन्द्रसिंह को धोखे में डालकर विचित्र तमाशा दिखाने वाले, पहाड़ी से कूदते हुए कुमार को रोककर जान बचाने और चुनार राज्य में फतह का डंका बजाने वाले सिद्धनाथ योगी बने हुए यही महात्मा जीतसिंह थे।
इस वक्त की खुशी का क्या अंदाजा है। अपने - अपने में सब ऐसे मग्न हो रहे हैं कि त्रिवन की संपत्ति की तरफ हाथ उठाने को जी नहीं चाहता। कुंअर वीरेन्द्रसिंह को कुमारी चंद्रकान्ता से मिलने की खुशी जैसी भी थी आप खुद ही सोच - समझ सकते हैं, इसके सिवाय इस बात की खुशी बेहद हुई कि सिद्धनाथ का अहसान किसी के सिर न हुआ, या अगर हुआ तो जीतसिंह का, सिद्धनाथ बाबा तो कुछ थे ही नहीं।
इस वक्त महाराज जयसिंह और सुरेन्द्रसिंह का आपस में दिली प्रेम कितना बढ़ - चढ़ रहा है वे ही जानते होंगे। कुमारी चंद्रकान्ता को घर ले जाने के बाद शादी के लिए खत भेजने की ताब किसे? जयसिंह ने उसी वक्त कुमारी चंद्रकान्ता के हाथ पकड़ के राजा सुरेन्द्रसिंह के पैर पर डाल दिया और डबडबाई आंखों को पोंछकर कहा, “आप आज्ञा कीजिए कि इस लड़की को मैं अपने घर ले जाऊं और जात - बेरादरी तथा पंडित लोगों के सामने कुंअर वीरेन्द्रसिंह की लौंडी बनाऊं।”
राजा सुरेन्द्रसिंह ने कुमारी को अपने पैर से उठाया और बड़ी मुहब्बत के साथ महाराज जयसिंह को गले लगाकर कहा, “जहां तक जल्दी हो सके आप कुमारी को लेकर विजयगढ़ जायं क्योंकि इसकी मां बेचारी मारे गम के सूखकर कांटा हो रही होगी!”
इसके बाद महाराज सुरेन्द्रसिंह ने पूछा, “अब क्या करना चाहिए?”
जीत -अब सबों को यहां से चलना चाहिए, मगर मेरी समझ में यहां से माल - असबाब और खजाने को ले चलने की कोई जरूरत नहीं, क्योंकि अव्वल तो यह माल - असबाब सिवाय कुमारी चंद्रकान्ता के किसी के मतलब का नहीं, इसलिए कि दहेज का माल है, इसकी तालियां भी पहले से ही इनके कब्जे में रही हैं, यहां से उठाकर ले जाने और फिर इनके साथ भेजकर लोगों को दिखाने की कोई जरूरत नहीं, दूसरे यहां की आबोहवा कुमारी को बहुत पसंद है, जहां तक मैं समझता हूं, कुमारी चंद्रकान्ता फिर यहां आकर कुछ दिन जरूर रहेंगी, इसलिए हम लोगों को यहां से खाली हाथ सिर्फ कुमारी चंद्रकान्ता को लेकर बाहर होना चाहिए।
बहादुर और पूरे ऐयार जीतसिंह की राय को सबों ने पसंद किया और वहां से बाहर होकर नौगढ़ और विजयगढ़ जाने के लिए तैयार हुए।
जीतसिंह ने कुल लौंडियों को जिन्हें कुमारी की खिदमत के लिए वहां लाए थे, बुला के कहा, “तुम लोग अपने - अपने चेहरे को साफ करके असली सूरत में उस पालकी को लेकर जल्द यहां आओ जो कुमारी के लिए मैंने पहले से मंगा रखी है।”
जीतसिंह का हुक्म पाकर वे लौंडियां जो गिनती में बीस होंगी दूसरे बाग में चली गईं और थोड़ी ही देर बाद अपनी असली सूरत में एक निहायत उम्दा सोने की जड़ाऊ पालकी अपने कंधो पर लिये हाजिर हुईं।
कुंअर वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह ने अब इन लौंडियों को पहचाना। तेजसिंह ने ताज्जुब में आकर कहा :
“वाह - वाह, अपने घर की लौंडियों को आज तक मैंने न पहचाना। मेरी मां ने भी यह भेद मुझसे न कहा!”

 

 


 

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