भले-बुरे राजलक्ष्मी के दो दिन निकल गए। एक दिन सुबह उनका चेहरा खिला-खिला दिख रहा था। पीड़ा का नामोनिशान नहीं था। उसी दिन उन्होंने महेंद्र को बुला कर कहा - 'मैं अब ज्यादा देर की मेहमान नहीं, बेटे, मगर मैं बड़े सुख से मर सकूँगी, महेंद्र, मुझे अब कोई दु:ख नहीं है। तू जब छोटा था, तो तुझे पा कर जो खुशी मुझे थी, आज उसी खुशी से मेरा हृदय भर उठा है - तू मेरी गोदी का लाड़ला है, मेरे कलेजे का रत्न - मैं तेरी सारी बला साथ लिए जा रही हूँ, यही मेरा सबसे बड़ा सुख है।'

इतना कह कर वह महेंद्र के मुखड़े और बदन पर हाथ फेरने लगीं। महेंद्र की रुलाई का बाँध टूट गया।

राजलक्ष्मी ने कहा - 'रो मत बेटे! लक्ष्मी घर में रही। कुंजी मेरी बहू को देना। मैंने सब-कुछ सँजो कर रखा है, गिरस्ती में किसी बात की कमी न पड़ेगी तुम्हें। एक बात और कह लूँ, मेरी मौत से पहले किसी को मत बताना। मेरे बक्स में दो हजार के नोट पड़े हैं। वे रुपए विनोदिनी को दे रही हूँ। वह विधवा है, अकेली है, इन रुपयों के सूद से उसके दिन मजे में कट जाएँगे। मगर उसे अपने यहाँ मत रखना।

राजलक्ष्मी ने बिहारी को बुलवाया। कहा - 'बेटे बिहारी, कल महेंद्र बता रहा था, तूने लाचारजनों की चिकित्सा के लिए एक बगीचा लिया है - भगवान तुम्हें लंबी आयु दे कर गरीबों का भला करे। मेरे ब्याह के समय मेरे ससुर ने मुझे एक गाँव दिया था; वह गाँव मैं तुझे देती हूँ, उसे गरीबों की सेवा में लगाना। इससे मेरे ससुर का पुण्य होगा।'

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